नानाजी देशमुख: 60 साल की उम्र में छोड़ दी थी कुर्सी, सत्ता के लिए लड़ रहे नेताओं के लिए उदाहरण

Dr SB MisraDr SB Misra   11 Oct 2017 1:35 PM GMT

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नानाजी देशमुख:  60 साल की उम्र में छोड़ दी थी कुर्सी,  सत्ता के लिए लड़ रहे नेताओं के लिए उदाहरणउस वक्त गृह मंत्री की दौड़ में शामिल नाना जी ने ले लिया था राजनीति से संन्यास।

महाराष्ट्र के सामान्य परिवार में जन्मे नानाजी देशमुख का नाम बहुतों ने सुना होगा। वह भारतीय जनसंघ में दीनदयाल उपाध्याय के समकक्ष थे और दोनों में अतीव घनिष्टता थी। नाना जी देशमुख का मानना था जब कोई नेता 60 साल का हो जाए तो उसे राजनीति छोड़कर समाज का काम करना चाहिए।

नानाजी जनता पार्टी की मोरारजी के मंत्रिमंडल में कोई बड़ा मंत्रालय मांग सकते थे और चर्चा थी कि वह गृहमंत्री बनेंगे। लेकिन अपने सोच के अनुसार जैसे ही वह 60 साल के हुए राजनीति छोड़ दी और चित्रकूट में एकात्म मानववाद की कल्पना लेकर ग्रामीण विकास के काम में लग गए और जीवन पर्यन्त लगे रहे।

चर्चा थी कि मोराजी मंत्रिमंडल में नानाजी गृहमंत्री बनेंगे लेकिन अपनी सोच के अनुसार जैसे ही वह 60 साल के हुए राजनीति छोड़ दी और चित्रकूट में एकात्म मानववाद की कल्पना लेकर ग्रामीण विकास के काम में लग गए और जीवन पर्यन्त लगे रहे।

आज परिस्थितियां बदल गई हैं तो भी नेताओं को भारत की प्राचीन परम्परा के अनुसार 75 साल की उम्र के बाद राजनीति से संन्यास ले लेना चाहिए। दूसरे दलों में चाहे स्वेच्छा से या मजबूरी में लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और यशवंत सिन्हा ने भी 75 साल की उम्र के बाद सक्रिय राजनीति से वैराग्य ले लिया था। कितना अच्छा हो यदि सभी दलों के बुजुर्ग नेता अपने भारतीय सिद्धान्त को मान लें जिसके अनुसार 75 साल की उम्र में संन्यास ले लेना चाहिए और समाज का मार्गदर्शन करना चाहिए।

दूसरे दलों में चाहे स्वेच्छा से या मजबूरी में लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और यशवंत सिन्हा ने भी 75 साल की उम्र के बाद सक्रिय राजनीति से वैराग्य ले लिया है। कितना अच्छा हो यदि सभी दलों के बुजुर्ग नेता अपने भारतीय सिद्धान्त को मान लें जिसके अनुसार 75 साल की उम्र में संन्यास ले लेना चाहिए और समाज का मार्गदर्शन करना चाहिए।

नानाजी देशमुख।

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भारतीय संस्कृति को मानने वालों ने इसी त्याग बोध के कारण कभी भी राजगद्दी पाने के लिए औरंगजेब की तरह अपने पिता को जेल में नहीं डाला और अपने भाइयों का कत्ल नहीं किया। केवल अपने देश में नहीं बाहर जाकर भी तोप तलवार का प्रयोग नहीं किया। राज पाट के लिए खून खराबा की संस्कृति विदेशों में हुआ करती थी। नानाजी देशमुख भारतीय परम्परा और संस्कृति के जीते जागते उदाहरण थे। स्वेच्छा से राजनीति छोड़ने वालों में लोकनायक जय प्रकाश नारायण भी थे जो बिनोवा भावे के साथ भूदान यज्ञ में लग गए थे।

जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक माधवराव सदाशिव गोलवलकर ने राजनैतिक दल की स्थापना की तो उसके महासचिव बने नानाजी देशमुख और भारतीय जनसंघ ने तेजी से उत्तर प्रदेश की राजनीति में विस्तार किया।

दीनदयाल उपाध्याय और अटल बिहारी वाजपेयी ने उन दिनों राष्ट्रधर्म और पांचजन्य नामक पत्रिकाओं के माध्यम से खूब काम किया। चन्द्रभानु गुप्त जो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे उन्होंने कहा था यह नाना देशमुख नहीं नाना फड़नवीस हैं। उनका घनिष्ट सम्बन्ध डाॅक्टर लोहिया और जयप्रकाश नारायण से रहा था। जब 1967 में उत्तर प्रदेश में संयुक्त विधायक दल की सरकार बनी तो नाना जी देशमुख उसके प्रमुख सूत्रधारों में से एक थे।

नाना जी का मुख्य योगदान राजनीति में नहीं ग्रामोदय में रहा। उनके द्वारा स्थापित चित्रकूट का विश्वविद्यालय ग्रामीण विकास का माॅडल है। उन्हें 2010 में पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया था। निस्वार्थ भाव से राजनीति और समर्पण भाव से समाज सेवा करने का आदर्श प्रस्तुत किया है नाना जी देशमुख ने। हमारे नेता यदि उस मार्ग पर कुछ कदम भी चल सकें तो आज का कलह भरा वातावरण अपने आप समाप्त हो जाएगा।

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