चीन की चुनौती से निपटने के लिए नेपाल है ज़रूरी

मंजीत ठाकुर | Nov 06, 2016, 14:06 IST
President Pranab Mukherjee
अठारह साल बाद भारत के किसी राष्ट्रपति की यह नेपाल यात्रा थी। दो से चार नवंबर तक हुई यह यात्रा इस मायने में भी महत्वपूर्ण है क्योंकि चीन ने रणनीतिक तौर पर भारत को घेरने के लिए नेपाल की बिला शर्त मदद करनी उस पर शिकंजा कसने की तैयारियां शुरू कर दी थीं। इसके बाद, भारतीय मूल के लोगों, जिन्हें नेपाल में मधेसी कहा जाता है, उनमें भी एक बेचैनी का आलाम था क्योंकि नेपाल के मौजूदा संविधान में मधेसियों के हितों की अनदेखी की गई थी।

लेकिन राष्ट्रपति की यह यात्रा किसी समझौते या नई परियोजना के लिए नहीं थी। बल्कि, यह तो राजनीतिक और कामकाजी स्तरों पर नेपाल के साथ भारत के सघन संवाद के विस्तार का एक रूप माना जाना चाहिए।

वैसे भी राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के नेपाल के लोगों और वहां के राजनीतिक नेताओं के साथ लंबे समय से संबंध रहे हैं और वह ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने नेपाल में लोकतांत्रिक प्रक्रिया के विकास में रक्षा मंत्री, वित्त मंत्री और विदेश मंत्री वगैरह पदो पर रहते हुए भारत की तरफ से अहम भूमिका निभाई है।

बहरहाल, काठमांडू में साल 2104 में हुए सार्क सम्मलेन में द्विपक्षीय बातचीत में भारत और नेपाल ने व्यापार, आर्थिक, कनेक्टिविटी, जनसंपर्क और पर्यटन के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने के लिए कई नए समझौते किए हुए हैं और राष्ट्रपति का यह दौरा उन संधियों और समझौतों को लागू करने और परियोजनाओं को तेज़ रफ्तार देने की कोशिश है। भारत की कोशिश है कि जिन संधियों पर पहले हस्ताक्षर हुए हैं, उन्हें वाकई लागू किया जाए।

हालांकि, आपको याद होगा नेपाल के नए संविधान के लागू होने बाद भारत की सरहद को मधेसियों ने विरोध-स्वरूप बंद कर दिया था। असल में, नेपाल के इससे पहले के प्रधानमंत्री के पी ओली की झुकाव चीन की तरफ ज्यादा था। लेकिन, सत्ता परिवर्तन में पुष्प कुमार दहल ‘प्रचंड’ के प्रधानमंत्री बनने के बाद से नेपाल की विदेश नीति में यू-टर्न आया है और वहां पहले की तरह पूर्ववत भारत की ओर झुकाव दिख रहा है। बीते दिनों दहल की भारत यात्रा से दोनों देशों में बर्फ गलनी शुरू हुई।

नेपाल के साथ भारत की डिप्लोमेसी नए सिरे से परवान चढ़ने लगी है। नेपाली राजनीति में चीन की तरफ का झुकाव थोड़ा कम हुआ है। चीन के साथ संबंधों के मद्देनजर भारत अब अपने इस पड़ोसी देश को नए रणनीतिक साझीदार के तौर पर विकसित करने में जुट रहा है।

नेपाल में तीन नई रेल लाइन बिछाने, नए सड़क संपर्क विकसित करने के साथ ही सीमा सुरक्षा का साझा मेकेनिज्म विकसित करने और सैन्य सुरक्षा बढ़ाने पर दोनों देश मसविदा तैयार करने में जुटे हैं।

नेपाल ने अपनी ओर से भारत द्वारा फंडिंग की जा रही उन परियोजनाओं की फेहरिस्त सौंपी है, जो नेपाल के अंदरूनी राजनीतिक हालात के चलते ठंडे बस्ते में चले गए थे। वहां के पूर्व प्रधानमंत्री केपी ओली के दौर में नेपाल का झुकाव चीन की तरफ हो गया था। तब चीन ने अपने यहां से काठमांडो तक रेल नेटवर्क बनाने की परियोजना शुरू की थी।

अब ‘भारत-नेपाल संयुक्त आयोग’ की बैठक के मंच से भारत चार महत्त्वपूर्ण योजनाओं पर काम कर रहा है। बड़ी परियोजना रेल नेटवर्क की है। कोलकाता बंदरगाह से नेपाल के औद्योगिक हब बीरगंज के लिए सिंगल लाइन है, जिस पर मालगाड़ी चलती है। उसे विकसित कर पैसेंजर ट्रेन चलाने लायक बनाने का प्रस्ताव है। नई रेल लाइन नेपाल के बिराटनगर तक बिछाई जा रही है, जिसमें भारत की तरफ का काम पूरा हो चुका है। आगे के लिए नेपाल सरकार को अनुमति देना है। तीसरी रेल लाइन परियोजना का प्रस्ताव है- नेपाल के काकरभिट्टा सीमा से लेकर बंगाल के पानीटंकी इलाके तक।

इसके अलाबा नेपाल में 945 किलोमीटर की ईस्ट-वेस्ट रेल लाइन बिछाने की परियोजना का प्रस्ताव है, जिसके लिए राइट्स समेत तमाम भारतीय एजेंसियां अपना शुरुआती काम निपटा चुकी हैं। भारत द्वारा प्रस्तावित बीबीआइएन (भूटान-बांग्लादेश-इंडिया-नेपाल) देशों में रेल और सड़क नेटवर्क के विस्तार के लिए नेपाल में इन योजनाओं को जरूरी माना जा रहा है। विदेश मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार, हमारा पूरा ध्यान रेल नेटवर्क की ओर है।

भारत की तरफ से सड़क संपर्क, सीमा-पार संपर्क बढ़ाने, सुरक्षा मामलों, सीमा पर सतर्कता, पेट्रोलियम पाइप लाइन बिछाने और नेपाल में भारतीय फंडिंग वाली 4800 मेगावाट की पनबिजली परियोजना के साथ ही कई ऐसे प्रस्तावों पर बातचीत का एजेंडा है, जिसकी नेपाल को बेहद जरूरत है। इस एजंडे में महाकाली संधि को लागू करने का मेकेनिज्म विकसित करने का विषय है, जिसके तहत दोनों देशों के बीच जल बंटवारे का फार्मूला तैयार किया जाना है। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता विकास स्वरूप के अनुसार, ‘राजनयिक स्तर पर कोशिश है कि सभी प्रस्तावों पर तेजी से काम हो।’

सुस्ता और कालापानी इलाके में इंटीग्रेटेड चेक पोस्ट बनाने और साझा पेट्रोलिंग का प्रस्ताव भारत ने दिया, जिसे मान लिया गया है। इसकी घोषणा खुद राष्ट्रपति ने की।

लेकिन इस मामले में सबसे अहम रहा, नेपाली छात्रों को आईआईटी में पढ़ने की सुविधा की घोषणा और इसकी प्रवेश परीक्षा अब काठमांडू में भी होगी। जाहिर है भारत ने नेपाल को साथ रखने के लिए उसे सौगातों से लाद दिया है। इसमें भूकंप के दौरान ध्वस्त हुए घरों के निर्माण के लिए 6800 करोड़ की मदद भी शामिल है।

लेकिन भारतीय कूटनायिकों के चेहरे पर खुशी तब दिखी, जब पाकिस्तान का नाम लिए बगैर राष्ट्रपति ने अपने भाषण में कहा कि जिन देशों ने अपनी नीति का हिस्सा आतंकवाद को बना लिया हैं उन्हें अलग-थलग किया जाना जरूरी है। नेपाल के साथ खुली सरहद से आंतकवाद आने का खतरा हमेशा बना रहता है। ऐसे में नेपाल के उप-प्रधानमंत्री, प्रधानमंत्री समेत तमाम लोगों ने जब कहा कि नेपाल की धरती का इस्तेमाल भारत के खिलाफ नहीं होने दिया जाएगा, तो इसे भारत की कामयाबी माना जाना चाहिए।

वैसे भी, भारतीय बंदरगाहों से आने वाले दूसरे देशों के सामानों समेत भारत के कारोबार को भी जोड़ दें तो नेपाल का 96 फीसद सामान प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भारत से आता है। ऐसे में नेपाल के लिए भारत अपरिहार्य है और चीन की चुनौती के मद्देनजर नेपाल भारत के लिए। दोनों साथ चलें, तो दोनो का फायदा है।

(यह लेख, लेखक के ब्लॉग गुस्ताख से लिया गया है।)

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