स्वतंत्रता दिवस : हमें अलगाव के बीज भी तलाशने चाहिए...

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संसद के दोनों सदनों में 'अंग्रेजो भारत छोड़ो' आवाहन की वर्षगांठ नौ अगस्त को मनाई गई। सभी पार्टियां खुद की प्रशंसा में लगी रहीं। अगले सप्ताह 15 अगस्त को स्वतंत्रता प्राप्ति की वर्षगांठ मनेगी। इन सबके बीच हमें अलगाव के बीज खोजने चाहिए। मुहम्मद अली जिन्ना ने आजादी की लड़ाई के आखिरी दौर में कहा था हिन्दू और मुसलमान दो अलग कौमें हैं वे एक साथ नहीं रह सकतीं लेकिन महात्मा गांधी ने कहा था कि 'भारत का बटवारा मेरी छाती पर होगा।' ये परस्पर विरोधी विचारधाराओं की अभिव्यक्ति है, एक समन्वयवादी और दूसरी अलगाव वादी।

महात्मा गांधी और अखंड भारत का घोष करने वाले विभाजन की वास्तविकता स्वीकार करने को तैयार नहीं थे लेकिन डॉक्टर अम्बेडकर जानते थे समय का पहिया वापस नहीं घूम सकता इसलिए उन्होंने पाकिस्तान में छूट गए दलितों को जैसे हो भारत आने का आवाहन किया था। विनायक दामोदर सावरकर ने तो विभाजन के यथार्थ को मानते हुए हिन्दू-मुस्लिम आबादी की अदला-बदली की बात कही थी। यह सब न सम्भव है और न इसकी जरूरत, लेकिन मुसलमानों को सेकुलर भारत की वास्तविकता को स्वीकार करना ही चाहिए।

कोई कह सकता है अब इन बातों से क्या फायदा। लेकिन फायदा है क्योंकि हमें पता रहना चाहिए मजहबी बटवारा हुआ ही क्यों और क्या आज भी वही शक्तियां काम कर रही हैं कश्मीर, हैदराबाद और केरल में। बटवारे के असली कारण थे अलग पहचान और निजी कानून। भारत के बंटवारे और सेकुलर कानून मानने के बाद न तो अलग पहचान का कोई मतलब है और न निजी कानूनों का। सोचना यह चाहिए कि बटवारे के बाद पाकिस्तान इस्लामिक देश बन गया और बांग्लादेश भी लेकिन भारत सर्वधर्म समभाव के रास्ते पर चला, जिस रास्ते पर हजारों साल से चल रहा था। इस अन्तर को समझना चाहिए।

क्या भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमान मुहम्मद अली जिन्ना का इस्लाम मानेंगे जो एक ऐसे इंसान थे जो कभी हज करने नहीं गए, पांच बार नमाज़ नहीं पढ़ते थे, जिन्हें कुरान शरीफ़ की आयतें भी ठीक से नहीं आती थीं, सुअर के मांस से परहेज़ नहीं था, एक समय मुस्लिम लीग के बजाय कांग्रेस पार्टी की सदस्यता स्वीकार की थी। वहीं जिन्ना मुस्लिम लीग जॉइन करके पाकिस्तान के पक्षधर कब और कैसे हो गए यह सोचने का विषय है। जब लालकृष्ण आडवाणी कहते हैं कि जिन्ना सेकुलर थे और जब जसवंत सिंह कहते हैं पाकिस्तान निर्माण के लिए कांग्रेस भी उतना ही जिम्मेदार है जितना मुस्लिम लीग तो इनकी बातों में कुछ तो सच्चाई है।

जिन्ना, नेहरू और माउन्टबेटेन ने शिमला में बैठकर मुसलमानों को मजहबी आधार पर पाकिस्तान दे दिया और मुस्लिम लीग व कांग्रेस ने मान लिया। इसलिए जब हम कांग्रेस को आजादी का श्रेय देते हैं तो उसे भारत के मजहबी बटवारे का अपयश भी स्वीकार करना होगा। अजीब बात है कि मजहबी बटवारे को सहज भाव से स्वीकार करने वाले सेकुलर कहलाए और अखंड भारत का अरमान संजोए लोगों को साम्प्रदायिक कहा गया। जब हम आजादी का जश्न मनाएं तो महसूस करना न भूलें ''अः भारत मां का बटवारा।'

एक बात और, द्विराष्ट्रवाद जिन्ना का व्यक्तिगत एजेंडा नहीं था, इसके कट्टर समर्थक थे पंजाब के लियाकत अली खां और बंगाल के सुहरावर्दी। जब सेपरेट एलक्टोरेट यानी हिन्दू और मुसलमानों के लिए प्रथक निर्वाचन मंडल का प्रस्ताव जिन्ना ने रखा तो कांग्रेस ने स्वीकार किया और इसके अनुसार चुनाव भी लड़ा। यह न पूछिए कितनी मुस्लिम सीटें मिली थीं कांग्रेस को। इसी तरह मुस्लिम लीग ने भारत के मजहबी बटवारे की मांग उठाई तो गांधीजी के विरोध के बावजूद कांग्रेस ने उसे स्वीकार किया। मुसलमानों को पाकिस्तान मिला और हिन्दुओं को हिन्दुस्तान, लेकिन नहीं, हिन्दुस्तान तो सभी का है, हजारों साल से रहा है सभी का।

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