शत्रु का जयकारा बोलने तक की आजादी है और क्या चाहिए

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कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा भारत में सहिष्णुता घट रहीं है हमारी विरासत समाप्त हो रही है। यदि इन्दिरा गांधी का आपातकाल छोड़ दें तो भारत में बोलने की आजादी हमेशा से रही है परन्तु उसका दुरुपयोग ऐसा कभी नहीं हुआ जैसा अब हो रहा है।

अपने स्वार्थ के लिए दूसरों को दुख पहुंचाने की आजादी नहीं होनी चाहिए। यहां पाकिस्तान जिन्दाबाद और भारत के टुकड़े करने के नारे लगाने वालों का भी बाल बांका नहीं होता, प्रधानमंत्री को गाली देते हैं और देश के अभिन्न अंग कश्मीर को आजाद कराने के नारे लगाते हैं अब और कितनी आजादी चाहिए।

स्वर्गीय एमएफ़ हुसैन ने अपने चित्रों के माध्यम से हिन्दू धर्म पर अक्सर करारी चोट पहुंचाई। यदि उन्हें ऐसा करने की आजादी थी तो आहत लोगों को अदालत का दरवाजा खटखटाने की भी आजादी थी। लेकिन एमएफ हुसैन अदालतों से बचने के लिए विदेश चले गए। इसके विपरीत अभिव्यक्ति की आजादी का रचनात्मक उदाहरण हम सन्त कबीर में पाते हैं।

उन्होंने हिन्दू और मुसलमान दोनों को खूब खरी-खरी सुनाई परन्तु उनके मरने के बाद दोनों ने उनका अन्तिम संस्कार अपने अपने ढंग से करना चाहा। कबीर ने बिना भेदभाव, अन्याय और कुरीतियों की आलोचना की थी, बिना भय के निस्वार्थ भाव से अपनी बात कही थी।

अभी कुछ दिन पहले एक फिल्म आई है ‘‘रामलीला”। विवादित नाम होने और उसके विरोध से लोगों में जिज्ञासा बढ़ती है और आमदनी भी। अन्यथा इस फिल्म का रामलीला से कुछ लेना-देना नहीं है। यदि आप एक किताब लिखें और उसका नाम तलाशें तो क्या अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर उसका नाम भगवत गीता, बाइबिल या कुरान शरीफ़ रख देंगे, ये धर्मग्रंथ हैं। अनावश्यक विवाद पैदा करने से बचा जा सकता है यदि यह सोची समझी रणनीति ना हो।

फिल्म जगत में कुछ लोग रेप, लूट, कत्ल, ठगी, भ्रष्टाचार आदि के मामले विस्तार से दिखाते है अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर। कुछ फिल्मकार तो अजीब तर्क देते हैं अश्लीलता परोसने के पक्ष में। उनका कहना है कि भारत ऐसा देश है जहां शिवलिंग पूजा जाता है और जहां खजुराहो और दूसरे मन्दिरों में कामुक मूर्तियां बनाने की आजादी थी। यह सच है कि आजादी थी परन्तु उस आजादी का दौलत कमाने के लिए दुरुपयोग नहीं किया गया है। अब लोग, दौलत कमाने के लिए अर्थ का अनर्थ कर रहे हैं।

बोलने की आजादी का सबसे अधिक दुरुपयोग शायद राजनेता करते हैं। नरेन्द्र मोदी के लिए ना जाने कितने विशेषण प्रयोग किए गए मौत का सौदागर, फेंकू, मर्डरर और नरपिशाच और ना जाने क्या क्या। जब नरेन्द्र मोदी को समय मिला तो उन्होंने भी कोई कोर कसर नहीं छोड़ी जैसे शहज़ादा, खूनी पंजा आदि।

शायद राजनेता यही भाषा समझते हैं अन्यथा कठोर से कठोर बातों को भी सरल भाषा में कहा जा सकता है। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) और दूसरे विश्वविद्यालयों के छात्रों ने जो नारे लगाए वह किसी दूसरे देश में नहीं लग सकते और फिर भी तुर्रा यह कि भारत असहिष्णु हो रहा है। बहुत हो चुका अब आजादी के दुरुपयोग पर विराम लगना ही चाहिए।

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