"जो लोग मुझे परेशान करते थे, आज वही लोग मेरी तारीफ़ करते हैं" - राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से सम्मानित आसिया फारूक़ी

यूपी के फतेहपुर ज़िले के प्राथमिक विद्यालय, अस्ती की प्रधानाध्यापिका आसिया फारूक़ी भी देश के उन 50 शिक्षकों में से एक हैं, जिन्हें शिक्षक दिवस के मौके पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से सम्मानित किया।

Ambika TripathiAmbika Tripathi   30 Aug 2023 12:24 PM GMT

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जो लोग मुझे परेशान करते थे, आज वही लोग मेरी तारीफ़ करते हैं - राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से सम्मानित आसिया फारूक़ी

प्राथमिक विद्यालय, अस्ती में इन दिनों उत्सव का माहौल है, बच्चों के साथ उनके घर वाले भी अपने दूर-दूर के रिश्तेदारों को ये ख़बर दे रहे हैं। आखिर उनके लिए इतनी बड़ी बात है, क्योंकि उनके स्कूल की प्रधानाध्यापिका को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से सम्मानित किया है ।

उत्तर प्रदेश के फतेहपुर ज़िले के इस प्राथमिक विद्यालय में शुरू से ऐसा नहीं था, एक समय था जब यहाँ आसपास के लोग अपने जानवरों को बाँधते थे, शाम होते ही जुआरियों और शराबियों का अड्डा बन जाता था। लेकिन बदलाव की शुरुआत तब हुई जब यहाँ आसिया फारूक़ी की नियुक्ति हुई।

आसिया का प्रमोशन 2016 में प्राथमिक विद्यालय अस्ती में हुआ, आसिया गाँव कनेक्शन से बताती हैं, "मैं पहले दिन स्कूल आयी तो स्कूल की हालत एकदम जर्जर थी। गाँव के लोग यहाँ शराब पीते, जुआ खेलते, गाँव की महिलाएँ कपड़े धोती थी, यही कपड़े सुखाती। कई लोग तो अपने जानवर भी यहीं पर बाँधते। स्कूल का मैदान बंजर था, जहाँ पर लड़के क्रिकेट खेलते थे।"


स्कूल में कूड़े का पहाड़ बना हुआ था, आठ-दस बच्चे स्कूल आते थे। आसिया पहले दिन को याद करके कहती हैं, "मैंने एक बच्चे से कहा बेटा मैं आपकी नई मैम हूँ, अपने देश का नाम बताओ तो बच्चे ने बोला अस्ती।"

"मेरी आँखो से आँसू आ गए थे, न स्कूल अच्छा और बच्चों स्थिति इतनी ख़राब थी, उस दिन मैं रात को सो भी नहीं पाई, फिर मैंने सोच लिया की मुझे यहाँ पर बहुत काम करना है, "आसिया ने आगे कहा।

स्कूल में आसिया अकेली टीचर थीं, आसिया उस दिन को याद करती हैं, "स्कूल में साफ-सफाई कराई, स्कूल में बने कूड़े के पहाड़ को हटाने में 21 हज़ार रुपए लगे।"

लेकिन आसिया के लिए सब इतना आसान नहीं था। गाँव वाले उन्हें परेशान करने के लिए नए-नए बहाने तलाशते, उनकी स्कूटी का टायर पंचर कर देते, कार का शीशा तोड़ देते, यहाँ तक की उन्हें मारने की भी कोशिश की। आसिया ने कई बार पुलिस से भी शिकायत की।


आसिया आगे कहती हैं, "इस सब के बाद भी मैंने हार नहीं मानी स्कूल की साफ सफाई करके मैदान की जुताई कराके क्यारियाँ बनवा दी। शुरू में जब पेड‍़ लगाए तो लोग उसे भी उखाड़ देते थे। इसलिए मैंने अपने पैसों से कंटीले तार लगवा दिए।" आज उनके इस गार्डन में सब्ज़ियाँ उगती हैं और कई तरह के पेड़-पौधे लगे हुए हैं।

साल 2016 में जहाँ इस स्कूल में दस बच्चे थे, आज 250 से बच्चों का एडमिशन है। आज उनके स्कूल में कई तरह की एक्टिविटी कराई जाती है। हर बच्चा यूनिफॉर्म में आता है। दो साल पहले आसिया को उत्तर प्रदेश के राज्यपाल ने भी सम्मानित किया है।

आज बच्चे अगर यूनिफॉर्म में नहीं आते तो मैम के सामने नहीं आना चाहते हैं। 12 साल के मोहम्मद अनस पाँचवीं में पढ़ते हैं। वो गाँव कनेक्शन से बताते हैं, "हमें स्कूल में खूब मज़ा आता है, साथ में हम बहुत सारे गेम भी खेलते हैं।"

राष्ट्रीय सम्मान के बारे में आसिया कहती हैं, "मेरे लिए राष्ट्रीय सम्मान मेरे बच्चों की दुआ और मेरी जी तोड़ मेहनत हैं जिससे ये सफल हो पाया है। मैंने अब तक जितनी मेहनत की हैं मुझे लगता है अब उससे ज़्यादा करने की ज़रूरत है। इससे लोग देख सकें राष्ट्रीय सम्मान ऐसे ही नहीं मुझे मिला , लोग मेरे काम को देख सकें, जब मैं इंटरव्यू के लिए जा रही थी तभी मैंने बच्चों से बोल दिया था बच्चों दुआ करना और जिस दिन रिजल्ट आया उस समय मुझे ये समझ आया की न्याय ज़रूर होता है , आपकी मेहनत का फल आपको मिलता है। "आसिया ने खुशी से कहा।

बच्चों को ही नहीं उनकी माँओं को भी पढ़ाया

आसिया के सामने चुनौती थी कि अधिकतर बच्चों की माँ पढ़ी-लिखी नहीं थी, इसलिए वो शिक्षा के महत्व को अच्छे से नहीं समझती थी। आसिया कहती हैं, "गाँव की लगभग 100 ऐसी महिलाओं को मैंने पढ़ाया, जिन्होंने अपने सपने खो दिए थे। फिर मैंने उनको जागरुकता अभियान से जोड़ा जिसमें ओपन माइक शो होता है, जिसमें महिलाओ से कहा आपने अपने लिए जो भी सपना देखा है, उसके बारे बताएँ और कई महिलाएँ बताते समय रो देती थी, फिर हमने सोचा की कुछ ऐसा किया जाए जिससे महिलाएँ अपने पैरों पर पैर खड़ी हो सकें।"


आसिया ने महिलाओं के लिए जगह-जगह कैंप लगाना शुरू किया, जिसमें सिलाई, क्रोशिया और सजावटी सामान बनाना सिखाया जाता है। आसिया आंगनवाड़ी के ज़रिए पुरानी साड़ियों को इकट्ठा करवाती हैं, फिर डोर मैट बनवाकर बेचती हैं, ये पिछले तीन साल से कर रहीं हैं।

आसिया कहती हैं, "जबसे प्लास्टिक बैन हुआ तो पुराने पैंट के कपड़े से झोले सिलवाते हैं। हमारी स्कूल की रसोइया को उसका पति मारता था, मैंने उसे ब्लाउज सिलना सिखाया, अब वो स्कूल के बाद ब्लाउज सिलती हैं और अब अपनी बेटी को भी पढ़ा रहीं हैं।" आसिया की शादी में उन्हें मायके से सिलाई मशीन मिली थी, उसे भी उन्होंने स्कूल में रख दिया है।"

आसिया की इस यात्रा में उनके ससुराल वालों ने भी पूरा साथ दिया है। बारहवीं में पढ़ती थीं, तभी उनकी शादी हो गई, यहीं पर उन्होंने बीए और बीटीसी की, तब उनके दो बच्चे भी हो गए थे।


संयुक्त परिवार की सबसे छोटी बहू आसिया जब इस स्कूल में आयी तो घर वालों ने कहा कि तुम अकेली टीचर नहीं हो, बहुत लोगों ने नौकरी की ही है, फिर इतनी चिंता क्यों? "मेरी अम्मी और अब्बू मेरे लिए बहुत परेशान रहते हैं, कहते हैं अपना भी तो ध्यान रखो। लेकिन धीरे-धीरे सभी ने मेरा साथ दिया तभी मैं यहाँ तक पहुँच पायी हूँ,"आसिया ने कहा।

आसिया ने स्कूल में वॉलिंटियर भी रखें हैं, जिससे उनकी काफी मदद हो जाती है। अभी उनके यहाँ 11 वॉलिंटियर हैं। ये सभी खुद पढ़ने के साथ बच्चों को भी पढ़ाती हैं।

22 साल की रेहाना वालिंटियर हैं वो गाँव कनेक्शन से बताती हैं, "एक बार मैं 26 जनवरी को स्कूल आई थी, मैंने साज़िया को मैम के साथ देखा तो मैंने साज़िया से बात की, उससे पूछा तुम स्कूल में पढ़ाती हो तो साज़िया ने मुझे सारी बात बताई। उसके बाद मैं मैम के पास आई बात किया तो मैम ने मुझे भी स्कूल में पढ़ाने का मौका दिया।"

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