जलवायु परिवर्तन में पशुपालन के क्षेत्र में भी बढ़ रहीं हैं गंभीर चुनौतियां, अपने क्षेत्र के हिसाब से ही करें पशुओं का पालन

पुराने समय से ही भारत में पाले जाने वाले पशुओं पर नजर डाली जाये तो यह लगता है कि यहां गाय, भैंस, भेड़, बकरी, मिथुन, याक, घोड़ा, ऊंट आदि की नस्लों को एक क्षेत्र विशेष की जलवायु के अनुकूल ही प्रमुखता दी जाती थी।

Dr. Satyendra Pal SinghDr. Satyendra Pal Singh   2 Nov 2021 10:26 AM GMT

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जलवायु परिवर्तन में पशुपालन के क्षेत्र में भी बढ़ रहीं हैं गंभीर चुनौतियां, अपने क्षेत्र के हिसाब से ही करें पशुओं का पालन

जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को लंबे समय तक कम करने के लिये यह आवश्यक हो जाता है कि पशुओं की ऐसी नस्लें विकसित की जायें जोकि आनुवांशिक रूप से अधिक उत्पादन, प्रजनन और स्वास्थ्य की दृष्टि से सक्षम होने के साथ ही बदलती जलवायु के प्रति सहनशाल हों। (सभी फोटो: दिवेंद्र सिंह)

खेतीबाड़ी के साथ पशुपालन सहायक व्यवसाय के रूप में पुराने समय से ही ग्रामीणों और किसानों की आजीविका का एक जरूरी हिस्सा रहा है। ग्रामीण अंचल में लोगों द्वारा पशुओं का लालन-पालन खेतीबाड़ी से पहले ही कर रहे हैं। इसके बाद धीरे-धीरे लोगों द्वारा पशुओं के सहयोग से खेतीबाड़ी करना शुरू किया गया। इसलिए यह कहा जाता है कि पशुपालन भारतीय कृषि की रीढ़ रहा है।

मशीनीकरण के दौर में खेतीबाड़ी में पशुओं का प्रयोग भले ही कम हो गया है। बावजूद इसके पशुपालन का महत्व कम नहीं हो जाता है। पुरातन काल में भारत में पाले जाने वाले पशुओं पर नजर डाली जाये तो यह लगता है कि यहां गाय, भैंस, भेड़, बकरी, मिथुन, याक, घोड़ा, ऊंट आदि की नस्लों को एक क्षेत्र विशेष की जलवायु के अनुकूल ही प्रमुखता दी जाती थी।

ऐसा क्यों था? इसका उत्तर उस समय के लोगों की वैज्ञानिक सोच को ही दर्शाता है। क्योंकि क्षेत्र विशेष की जलवायु के अनुकूल विकसित नस्लों के पालन में जोखिम नहीं था। देश में आज भी अधिकांश क्षेत्रों में वहां की अनुकूलता के अनुसार ही पशुओं की नस्लों का पालन किया जा रहा है।


बदलते जलवायु परिवर्तन को देखते हुये पशुपालन के समझ कई गंभीर चुनौतियां अभरकर सामने आ रहीं हैं। जलवायु परिवर्तन के दुषपरिणाम आसानी से देखे जा सकते हैं। जिनका प्रभाव खेतीबाड़ी के साथ पशुपालन पर पड़ने लगा है। दुधारू पशुओं का दुग्ध उत्पादन प्रभावित होने से लेकर उनके विकास, प्रजनन और पशु रोगों पर असर आसानी से देखा जा सकता है। आने वाले समय में यदि यही रूख जारी रहा तो जलवायु परिवर्तन के खतरे पशुपालन के समझ गंभीर चुनौतियां बनकर उभरेंगे।

आज देश के कई भागों में कहीं सूखा तो कहीं बाढ़ की अलग-अलग तस्वीर देखने को मिल रही है। इतना ही नहीं कम होती सर्दी, घटते बरसात के दिन, बढ़ता तापमान यह सब जलवायु परिवर्तन के कारण ही हो रहा है। तापमान में बढ़ोत्तरी से सर्दियों के दिन कम होने के साथ ही गर्मियों के दिनों में बढ़ोत्तरी हो रही है जिससे उत्तर भारत में दुधारू पशुओं से प्राप्त होने वाले दुग्ध उत्पादन और उनके प्रजनन में गिरावट देखी जा सकती है। इसका प्रभाव पशुपालन पर आसानी से देखा जा सकता है। यदि अभी से इस दिशा में प्रयास नहीं किये गये तो आने वाले वर्षों में इसके घातक परिणाम भी सामने आ सकते हैं।

जलवायु परिवर्तन का ही असर है कि पशुधन की संख्या में कमी आ रही है। उत्तर भारत में पशुपालकों द्वारा गायों की बजाय भैस पालन ज्यादा जोर दिया जाता है। भैस एक सीजनल ब्रीडर है जोकि बरसात से लेकर सर्दियों तक ही गर्मी में आकर गर्भधारण करती है। पशुओं का वृद्धि और विकास उनके जीनोटाइप व पर्यावरणीय कारकों द्वारा प्रभावित होता है।


तापमान के बढ़ने पर पशुओं की शारीरिक प्रतिक्रियाओं में वृद्धि होती है जिससे कार्डियोपल्मोनरी और उसकी तीव्रता की क्षमता प्रभावित होती है। थर्मल स्ट्रेस के कारण डेयरी पशुओं के दुग्ध उत्पादन में गिरावट, समय से गर्मी में न आने और गर्मी के लक्षण प्रकट नहीं करने व गर्भ धारण नहीं होना प्रमुखता से देखा जा रहा है। जलवायु परिवर्तन के चलते इसी प्रकार से आगे भी तापमान में वृद्धि जारी रही पशुओं में साइलेंट हीट, छोटा मदकाल और प्रजनन क्षमता में ओर अधिक गिरावट आयेगी। जलवायु परिवर्तन के कारण पशु रोगों में भी ओर अधिक वृद्धि होगी। इन पर काबू पाने के लिये अभी से हर संभावित प्रयास करने की जरूरत है।

पशुओं के आवास में पर्यावरण के अनुकूल संशोधन करके सूर्य के सीधे आने प्रकाश को रोका जा सकता है। पानी का छिड़काव और पंखे आदि लगाकार तापमान और गर्मी को कम किया जा सकता है। पशुओं का आवास ऐसे स्थान पर बनाना चाहिये जहां पेड़ों की घनी छांव हो अथवा पशुशाला के आसपास चारो और पेड़-पौधे लगाकर भी तापमान एवं सीधे आने वाली सूर्य किरणों और धूप को काफी हद तक रोखा जा सकता है।

पशु आवास को उचित तरीके से डिजाइन करना चाहिये जिससे हवा का आवागमन बढ़ने के साथ ही प्राकृतिक रूप से प्रकाश और हवा अंदर आती रहे। पशु आवास में पानी की बौछार का प्रयोग करके पशुओं को प्रभावित करने वाले थर्मल हीट स्ट्रेस को कम किया जा सकता है। पशुओं को पौषणयुक्त आहार खिलाने की रणनीति अपनानी चाहिये जिससे हीट स्ट्रेस के कारण पशुओं के उत्पादन पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव को कम किया जा सके।


पशुओं के आहार में सभी प्रकार के ऐसे घटक मिलाने चाहिये जिससे उसका आहार संतुलित हो सके। पशुओं के आहार में पोटेशियम, सोडियम, मैगनीशियम, कॉपर, सेलेनियम, जिंक, फास्फोरस, कैल्शियम आदि खनिज लवणों को उपयुक्त मात्रा में शामिल करने से गर्मी के प्रभाव को कम करने के साथ ही पशुओं से अच्छा उत्त्पादन लिया जा सकता है। पशु आहार में पौषण की दृष्टि से फीड एडीटिव्स उष्मागत तनाव को कम करने में लाभदायक होते हैं।

सामान्यतौर पर फीड एडीटिव्स गर्मी की अधिकता को कम करने के साथ ही पशुओं के शरीर के अंदरूनी तापमान को कम करते हैं। पशुओं को गर्मियों के दिनों में ठंड़े समय पर अर्थात सुबह और देर शाम में चारा-दाना खाने को देना उपयुक्त रहता है। पशुओं को एक साथ खिलाने की बजाय थोड़ा-थोड़ा करके दिन में कई बार खाने को देना चाहिए। आहार देने के बाद यदि पानी की उपलब्धता नहीं है तो उत्पादन प्रभावित होता है। अच्छे दुग्ध उत्पादन के लिये भी लगातार पानी पिलाते रहना आवश्यक है। इससे पशुओं के शरीर का तापमान कम करने में मदद मिलती है।

जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को लंबे समय तक कम करने के लिये यह आवश्यक हो जाता है कि पशुओं की ऐसी नस्लें विकसित की जायें जोकि आनुवांशिक रूप से अधिक उत्पादन, प्रजनन और स्वास्थ्य की दृष्टि से सक्षम होने के साथ ही बदलती जलवायु के प्रति सहनशाल हों।


वर्तमान में पशुओं की आनुवांशिक संरचना में बदलाव करके जलवायु सहनशीलता के अनुकूल नस्लें विकसित करने की जरूरत है। जिनमें अत्यधिक गर्मी, सर्दी आदि को सहने व अधिक उत्पादन, वृद्धि, रोगों से लड़ने की क्षमता हो। पशु रोगों पर प्रभावी ढ़ग से काबू पाने के लिये सतर्कता और निगरानी तंत्र को बहुत अधिक मजबूत बनाये जाने की आवश्यकता है।

आज जिस तरीके से देश में अधिक दुग्ध उत्पादन लेने के लिये विदेशी क्रॉसब्रीड गाय की नस्लों को बढ़ावा दिया गया। उससे भारतीय नस्लों के संरक्षण व संवर्धन में रुकावट पैदा हुई है। फलस्वरूप आज क्रॉसब्रीड गायें कई क्षेत्रों में अनेकों समस्याओं जैसे-बांझपन, बार-बार गर्मी में आना परंतु गर्भ नहीं ठहरना, थनैला आदि गभीर समस्याओं के चलते लाभ की बजाय घाटे का कारण ही बन रहीं हैं। इन गायों का दूध भी आज एक अहम चर्चा का विषय बनकर सामने आ रहा है। वैज्ञानिकों से लेकर आम जागरूक लोगों में ए 1 और ए 2 दूध के प्रति जिज्ञासाओं से लेकर गंभीर चिंताऐं हैं देखी जा रही हैं।

(डॉ सत्येंद्र पाल सिंह, कृषि विज्ञान केंद्र, शिवपुरी, मध्य प्रदेश के प्रमुख और वरिष्ठ वैज्ञानिक हैं, यह उनके निजी विचार हैं।)

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