सड़कें बनीं, वाहन बढ़े… लेकिन सुरक्षा कहाँ? ग्रामीण भारत में बढ़ती दुर्घटनाओं पर सवाल
सड़कें बनीं, वाहन बढ़े… लेकिन सुरक्षा कहाँ? ग्रामीण भारत में बढ़ती दुर्घटनाओं पर सवाल

By Dr SB Misra

एक समय था जब गाँवों की लाइफ साइकिल और बैलगाड़ी तक सीमित थी। आज वहां मोटरसाइकिल, कार और ट्रैक्टर की भरमार है, लेकिन ड्राइविंग ट्रेनिंग और ट्रैफिक नियमों की समझ पीछे छूट गई। नतीजा: दुर्घटनाएं बढ़ रहीं, और जिम्मेदारी कोई लेने को तैयार नहीं।

एक समय था जब गाँवों की लाइफ साइकिल और बैलगाड़ी तक सीमित थी। आज वहां मोटरसाइकिल, कार और ट्रैक्टर की भरमार है, लेकिन ड्राइविंग ट्रेनिंग और ट्रैफिक नियमों की समझ पीछे छूट गई। नतीजा: दुर्घटनाएं बढ़ रहीं, और जिम्मेदारी कोई लेने को तैयार नहीं।

मानव अस्तित्व और धर्म: जनहित में कैसा हो हमारा आध्यात्मिक स्वरूप?
मानव अस्तित्व और धर्म: जनहित में कैसा हो हमारा आध्यात्मिक स्वरूप?

By Dr SB Misra

मन में एक सवाल आना स्वाभाविक है कि आखिर धर्म मनुष्य के अस्तित्व के लिए कितना जरूरी है? आखिर मनुष्य कोई धर्म लेकर तो पैदा नहीं होता; उसे जिस परिवार में वह पैदा हुआ, उसके बड़े-बूढ़ों से धर्मज्ञान मिलता है।

मन में एक सवाल आना स्वाभाविक है कि आखिर धर्म मनुष्य के अस्तित्व के लिए कितना जरूरी है? आखिर मनुष्य कोई धर्म लेकर तो पैदा नहीं होता; उसे जिस परिवार में वह पैदा हुआ, उसके बड़े-बूढ़ों से धर्मज्ञान मिलता है।

विकास की दौड़ में पीछे छूटती भारतीय संस्कृति
विकास की दौड़ में पीछे छूटती भारतीय संस्कृति

By Dr SB Misra

आधुनिक भारत में हम भले ही तकनीक और विकास की राह पर आगे बढ़ गए हों, पर हमारी नैतिकता, शिक्षा और संस्कृति पीछे छूटती जा रही है। कैसे औपनिवेशिक मानसिकता, अंधी आधुनिकता और मूल्यों का ह्रास आज के समाज, राजनीति और शिक्षा- सबको प्रभावित कर रहा है।

आधुनिक भारत में हम भले ही तकनीक और विकास की राह पर आगे बढ़ गए हों, पर हमारी नैतिकता, शिक्षा और संस्कृति पीछे छूटती जा रही है। कैसे औपनिवेशिक मानसिकता, अंधी आधुनिकता और मूल्यों का ह्रास आज के समाज, राजनीति और शिक्षा- सबको प्रभावित कर रहा है।

उच्च शिक्षा का असली लक्ष्य - विशेषज्ञता, न कि भीड़ बढ़ाना
उच्च शिक्षा का असली लक्ष्य - विशेषज्ञता, न कि भीड़ बढ़ाना

By Dr SB Misra

आजकल दिन-प्रतिदिन उच्च शिक्षा की आवश्यकता पड़ती जा रही है — फिर चाहे कंप्यूटर, एयरोनॉटिक्स अथवा अन्य क्षेत्रों की बात हो। अब तो ए.आई. अर्थात आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का युग आने वाला है और उसके लिए उच्च शिक्षा का महत्व और भी बढ़ गया है।

आजकल दिन-प्रतिदिन उच्च शिक्षा की आवश्यकता पड़ती जा रही है — फिर चाहे कंप्यूटर, एयरोनॉटिक्स अथवा अन्य क्षेत्रों की बात हो। अब तो ए.आई. अर्थात आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का युग आने वाला है और उसके लिए उच्च शिक्षा का महत्व और भी बढ़ गया है।

ग्रामीण शिक्षा: साधन बढ़े, लेकिन गुणवत्ता क्यों नहीं?
ग्रामीण शिक्षा: साधन बढ़े, लेकिन गुणवत्ता क्यों नहीं?

By Dr SB Misra

आज के समय में गाँव-गाँव में प्राइमरी स्कूल खुले हैं और हर पंचायत में एक सीनियर प्राइमरी यानी कक्षा 6, 7, 8 के लिए विद्यालय मौजूद है। पहले की अपेक्षा अच्छे भवन हैं, अधिक संख्या में अध्यापक, कुर्सी, मेज, ब्लैकबोर्ड सब कुछ है। लेकिन फिर भी शिक्षा का स्तर दयनीय है।

आज के समय में गाँव-गाँव में प्राइमरी स्कूल खुले हैं और हर पंचायत में एक सीनियर प्राइमरी यानी कक्षा 6, 7, 8 के लिए विद्यालय मौजूद है। पहले की अपेक्षा अच्छे भवन हैं, अधिक संख्या में अध्यापक, कुर्सी, मेज, ब्लैकबोर्ड सब कुछ है। लेकिन फिर भी शिक्षा का स्तर दयनीय है।

भौतिक सुविधाओं के साथ खोती जा रही ग्रामीण संस्कृति
भौतिक सुविधाओं के साथ खोती जा रही ग्रामीण संस्कृति

By Divendra Singh

कैसे पिछले 80 वर्षों में गाँवों का भौतिक विकास हुआ, लेकिन इसके साथ-साथ ग्रामीण संस्कृति, पारंपरिक जीवनशैली और परिवार भाव में कमी आई।

कैसे पिछले 80 वर्षों में गाँवों का भौतिक विकास हुआ, लेकिन इसके साथ-साथ ग्रामीण संस्कृति, पारंपरिक जीवनशैली और परिवार भाव में कमी आई।

डुग्गी से सोशल मीडिया तक: कैसे बदले भारत के संचार साधन
डुग्गी से सोशल मीडिया तक: कैसे बदले भारत के संचार साधन

By Dr SB Misra

भारत में संचार माध्यमों की यात्रा अनोखी रही है। कभी हल्कारा और डुग्गी के जरिए संदेश पहुँचाए जाते थे, तो आज डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हावी है। जानिए कैसे स्वतंत्रता संग्राम, अखबार, रेडियो, टीवी और विज्ञापनों ने संचार की विश्वसनीयता को आकार दिया।

भारत में संचार माध्यमों की यात्रा अनोखी रही है। कभी हल्कारा और डुग्गी के जरिए संदेश पहुँचाए जाते थे, तो आज डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हावी है। जानिए कैसे स्वतंत्रता संग्राम, अखबार, रेडियो, टीवी और विज्ञापनों ने संचार की विश्वसनीयता को आकार दिया।

भारत विभाजन पर वाक् युद्ध, जिम्मेदार कौन?
भारत विभाजन पर वाक् युद्ध, जिम्मेदार कौन?

By Dr SB Misra

भारत विभाजन को लेकर आज भी बहस जारी है। उस समय तीन प्रमुख हस्ताक्षरों - नेहरू, जिन्ना और माउंटबेटन - ने इतिहास की दिशा तय की। गांधी जी कट्टर विरोधी थे और आख़िरी क्षण तक विभाजन रोकने की कोशिश करते रहे। लेकिन क्या बँटवारा टाला जा सकता था? और असली जिम्मेदारी किसकी थी - नेताओं की महत्वाकांक्षा, अंग्रेज़ों की रणनीति या हालात की मजबूरी? यह लेख उन्हीं सवालों पर गहराई से नज़र डालता है।

भारत विभाजन को लेकर आज भी बहस जारी है। उस समय तीन प्रमुख हस्ताक्षरों - नेहरू, जिन्ना और माउंटबेटन - ने इतिहास की दिशा तय की। गांधी जी कट्टर विरोधी थे और आख़िरी क्षण तक विभाजन रोकने की कोशिश करते रहे। लेकिन क्या बँटवारा टाला जा सकता था? और असली जिम्मेदारी किसकी थी - नेताओं की महत्वाकांक्षा, अंग्रेज़ों की रणनीति या हालात की मजबूरी? यह लेख उन्हीं सवालों पर गहराई से नज़र डालता है।

समाप्त होना ही चाहिए ग्रामीणों में व्याप्त अंधविश्वास
समाप्त होना ही चाहिए ग्रामीणों में व्याप्त अंधविश्वास

By Dr SB Misra

गाँवों में बच्चों को डराकर या परंपराओं के नाम पर जो अंधविश्वास पनपते हैं, वे केवल डर नहीं फैलाते, बल्कि वैज्ञानिक सोच को भी दबा देते हैं। कैसे झाड़-फूंक, भूत-प्रेत, बिल्ली के रास्ता काटने जैसी बातें आज भी लोगों को भ्रमित कर रही हैं और क्यों ज़रूरी है कि हम शिक्षा और तर्क की मदद से इनसे बाहर निकलें।

गाँवों में बच्चों को डराकर या परंपराओं के नाम पर जो अंधविश्वास पनपते हैं, वे केवल डर नहीं फैलाते, बल्कि वैज्ञानिक सोच को भी दबा देते हैं। कैसे झाड़-फूंक, भूत-प्रेत, बिल्ली के रास्ता काटने जैसी बातें आज भी लोगों को भ्रमित कर रही हैं और क्यों ज़रूरी है कि हम शिक्षा और तर्क की मदद से इनसे बाहर निकलें।

प्रजातंत्र की जिम्मेदारी: सत्ता पक्ष ही नहीं, विपक्ष भी जवाबदेह है
प्रजातंत्र की जिम्मेदारी: सत्ता पक्ष ही नहीं, विपक्ष भी जवाबदेह है

By Dr SB Misra

भारतीय लोकतंत्र की सफलता सिर्फ सत्ता पक्ष पर नहीं, बल्कि विपक्ष की जिम्मेदारी पर भी निर्भर करती है। लेकिन जब संसद में चर्चा की जगह शोरगुल और सड़क पर केवल लांछन दिखाई दे, तो यह सोचने का समय है कि क्या हम अपने लोकतांत्रिक आदर्शों से भटक रहे हैं।

भारतीय लोकतंत्र की सफलता सिर्फ सत्ता पक्ष पर नहीं, बल्कि विपक्ष की जिम्मेदारी पर भी निर्भर करती है। लेकिन जब संसद में चर्चा की जगह शोरगुल और सड़क पर केवल लांछन दिखाई दे, तो यह सोचने का समय है कि क्या हम अपने लोकतांत्रिक आदर्शों से भटक रहे हैं।

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