भारत में क्यों महंगा हुआ दूध?

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भारत में क्यों महंगा हुआ दूध?

दूध के बढ़ते दामों से चिंतित केंद्र सरकार के पशुपालन और डेयरी मंत्रालय ने देश में दूध के उत्पादन, उपलब्धता और बढ़ती कीमतों के आंकलन के लिए 3 जनवरी को सभी प्रमुख निजी और सहकारी क्षेत्र की डेयरियों की एक बैठक बुलाई थी। प्याज के मामले में किरकिरी होने के बाद सरकार दूध के मामले में पहले ही सतर्क होकर उचित कदम उठाना चाहती है।

पिछले दिनों देश की सहकारी क्षेत्र की डेयरियों ने दूध के दाम दो से तीन रुपए प्रति लीटर बढ़ाए थे। उनकी देखा-देखी निजी क्षेत्र की डेयरियों और स्थानीय दूधियों ने भी अपने दाम बढ़ा दिए। यह पिछले सात महीनों के भीतर दूध की कीमतों में दूसरी बढ़ोतरी थी। पिछले साल मई में भी दिल्ली में फुल-क्रीम दूध, जिसमें 6 प्रतिशत फैट (घी या वसा) और 9 प्रतिशत सॉलिड्स-नॉट-फैट (वसा के अलावा दूध में मौजूद अन्य ठोस पदार्थ) की मात्रा होती है, के दाम दो रुपए प्रति लीटर बढ़ाए गए थे।

प्याज व अन्य सब्जियों के बढ़ते दामों के बाद दूध की बढ़ी कीमतें सरकार के लिए नया सिरदर्द बन सकती हैं। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार इस वर्ष नवंबर में उपभोक्ता खाद्य पदार्थ महंगाई दर 10 प्रतिशत पर पहुंच गई जो पिछले छह सालों का सबसे उच्चतम स्तर है। इसका मूल कारण खाद्य पदार्थों विशेषकर सब्जियों, दूध आदि की महंगाई दर बढ़ना है। अर्थव्यवस्था में छाई मंदी और बढ़ती बेरोजगारी के बीच लगातार बढ़ते महंगाई के बोझ से आम आदमी पस्त है। ऐसी स्थिति में दूध जैसी अति आवश्यक खाद्य वस्तु के दाम क्यों बढ़े?

भारत 18.5 करोड़ टन वार्षिक दूध उत्पादन के साथ विश्व में प्रथम स्थान पर है। हम दूध के विषय में आत्मनिर्भर ही नहीं है बल्कि दुग्ध उत्पादों को अन्य देशों के बाजारों में निर्यात करने की स्थिति में भी है। यदि दूध समेत पशुपालन से होने वाली सम्पूर्ण आमदनी का आंकलन करें तो 28 लाख करोड़ रुपये की कृषि जीडीपी में दूध और पशुपालन क्षेत्र की हिस्सेदारी लगभग 30% है।

दूध के दाम बढ़ने के कारणों का विश्लेषण करने के लिए दूध की पिछले दस सालों की कीमतों और सरकारी नीतियों का आंकलन करना होगा। फरवरी 2010 में दिल्ली में फुल-क्रीम दूध के दाम 30 रुपए प्रति लीटर थे, जो मई 2014 में बढ़कर 48 रुपए प्रति लीटर हो गए।

यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल की इस अवधि में उपभोक्ताओं के लिए दूध के मौद्रिक दाम औसतन 15 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से बढ़े। इस अवधि में 11 प्रतिशत की औसत उपभोक्ता खाद्य महंगाई दर को देखते हुए यह बढ़ोतरी बहुत अधिक भी नहीं थी। मोदी सरकार के पहले पांच सालों के कार्यकाल में दिल्ली में फुल क्रीम दूध के दाम मई 2014 में 48 रुपए प्रति लीटर से बढ़कर मई 2019 में 53 रुपए प्रति लीटर पर पहुंचे। यानी मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में उपभोक्ताओं के लिए दूध के मौद्रिक दाम औसतन 2.1 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से बढ़े। इस अवधि में 3.3 प्रतिशत की औसत उपभोक्ता खाद्य महंगाई दर को देखते हुए दूध के वास्तविक दाम घट गए थे।

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दुग्ध उत्पादन की बढ़ती लागत और खाद्य महंगाई दर को समायोजित करने के लिए इस अवधि में दूध के दाम कम से कम 7 प्रतिशत प्रति वर्ष की मामूली मौद्रिक दर से भी बढ़ाये जाते तो भी मई 2019 में दिल्ली में फुल क्रीम दूध के दाम लगभग 65 रुपए प्रति लीटर होते। जबकि 15 दिसंबर को हुई बढ़ोतरी के बाद भी फुल क्रीम दूध की कीमत 55 रुपए प्रति लीटर ही हैं। यानी दूध के दामों में हुई हालिया बढ़ोतरी के बावजूद उपभोक्ताओं को दूध अब भी वाजिब दामों से लगभग 10 रुपए प्रति लीटर सस्ता मिल रहा है।

दूध के क्षेत्र में सक्रिय अमूल जैसी सहकारी संस्थाओं के कारण एक तरफ तो उपभोक्ताओं को दूध के बहुत अधिक दाम नहीं चुकाने पड़ते, वहीं दूसरी तरफ उपभोक्ताओं द्वारा दूध पर खर्च किये गए एक रुपए में से लगभग 75 पैसे किसानों तक पहुंचते हैं। किसान अपने उपयोग के बाद लगभग 10 करोड़ टन दूध प्रति वर्ष बेच देते हैं। दूध के दाम 10 रुपए प्रति लीटर कम मिलने के कारण देश का दुग्ध उत्पादक किसान लगभग एक लाख करोड़ रुपए प्रति वर्ष का घाटा अब भी सह रहे हैं और यह रकम किसानों की जेब से निकलकर सीधा उपभोक्ताओं की जेब में जा रही है।

पिछले पांच सालों में किसानों को दूध के उचित एवं लाभकारी मूल्य नहीं मिले, उल्टे हर साल महंगाई और लागत बढ़ने के कारण दुग्ध उत्पादक किसानों को काफी घाटा झेलना पड़ा। इस कारण सबसे पहले तो किसानों ने अपने दुधारू पशुओं की संख्या को घटा दिया। दूसरा, दुग्ध उत्पादन की बढ़ती लागत को देखते हुए पशुओं को किसान उचित मात्रा में पोषक पशु-आहार और चारा भी नहीं खिला पाए। दुग्ध उत्पादन में घाटे के कारण बीमार पशुओं के इलाज और रखरखाव पर होने वाले खर्चे में भी कटौती करनी पड़ी। डीज़ल के दाम और मजदूरी भी पिछले पांच सालों में काफी बढ़े हैं जिसका प्रभाव दूध के दामों में दिख रहा है।

तीसरा, पिछले पांच सालों में ग्रामीण क्षेत्रों में आवारा पशुओं की संख्या बेतहाशा बढ़ी है। पशु-गणना 2012 के अनुसार देश में आवारा पशुओं की संख्या 53 लाख थी। एक अनुमान के अनुसार इस वक्त भारत में लगभग एक करोड़ आवारा पशु हैं जो दुधारू पशुओं के हरे चारे को बड़ी मात्रा में खेतों में ही चट कर जाते हैं। पशु-आहार में काम आने वाली अन्य फसलों को भी ये नुकसान पहुँचाते हैं। इससे दुधारू पशुओं के लिए चारे और पशु-आहार की उपलब्धता घट जाती है। इससे चारा महंगा हो जाता है और दुग्ध उत्पादन की लागत बढ़ जाती है।

भारतीय चरागाह और चारा अनुसंधान संस्थान के अनुसार देश में हरे चारे की 64 प्रतिशत और सूखे चारे की 24 प्रतिशत कमी है। आवारा पशुओं के कारण चारे की उपलब्धता और कम हो गई है। चौथा, पिछले कुछ सालों में पशु-आहार जैसे खल, चूरी, छिलका आदि के दाम भी काफी बढ़े हैं जिस कारण दुग्ध उत्पादन की लागत में काफी वृद्धि हुई है। पांचवा, गोरक्षा की अति उत्साही नीतियों के कारण पुराने, बांझ और बेकार पशुओं का व्यापार और परिवहन बहुत जोखिम भरा हो गया है। इस कारण बेकार पशुओं, विशेषकर गौवंश का बाज़ार लगभग समाप्त हो गया है। इनको बेचकर जो पूंजी किसानों को पहले मिल जाती थी उसे किसान नये पशुओं को खरीदने और अपने मौजूदा दुधारू पशुओं के रखरखाव में लगा देते थे।

अब पूंजी का यह स्रोत लगभग समाप्त हो गया है, उल्टा आवारा पशु सारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर एक बोझ बन गए हैं। इसका खामियाजा एक तरफ दुग्ध उत्पादन की बढ़ती लागत के कारण किसानों को, तो दूसरी तरफ महंगे दूध के रूप में उपभोक्ताओं को उठाना पड़ रहा है। इस साल अब तक किसानों को ज़्यादा कीमत देने के बावजूद सहकारी और निज़ी डेयरियों के द्वारा किसानों से खरीदे जाने वाले दूध की मात्रा पिछले साल के मुकाबले 5-6 प्रतिशत कम हुई है। छठा, इस वर्ष विलंब से आये मानसून के कारण कई राज्यों में पहले तो सूखा पड़ा, फिर बाद में अत्यधिक बारिश और बाढ़ की स्थिति बन गई जिस कारण भी चारे की उपलब्धता घटी है।

सातवां, वर्ष 2019-20 का देश का कुल बजट 27.86 लाख करोड़ रुपए है। इसमें से पशुपालन और डेयरी कार्य हेतु मिलने वाले छोटे से बजट को पिछले वर्ष के 3,273 करोड़ से घटाकर इस साल 2,932 करोड़ रुपए कर दिया गया। दूध उत्पादन जैसी अति महत्वपूर्ण आर्थिक गतिविधि का बजट कम करना उचित नहीं है। आठवां, अक्टूबर से मार्च के बीच का समय दूध के अधिक उत्पादन का सीजन होता है जिसे 'फ्लश सीजन' कहते हैं। इस दौरान दूध के दाम बढ़ने की संभावना ना के बराबर होती है। लेकिन गर्मियों में दूध का उत्पादन कम हो जाता है और दाम बढ़ जाते हैं। इस बार सर्दियों में दाम बढ़ाने के बावजूद डेरियों की दूध की खरीद में गिरावट आना अच्छा संकेत नहीं है।

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पिछले साल जब दूध पाउडर का ढ़ेर लगा हुआ था और इसके दाम गिरकर 150 रुपए प्रति किलोग्राम के स्तर पर आ गए थे। उस समय सरकार ने दूध पाउडर के निर्यात के लिए 50 रुपए प्रति किलोग्राम की सब्सिडी भी दी थी। अब दूध पाउडर के दाम दोगुने होकर 300 रुपए प्रति किलोग्राम हो गए हैं। यदि पिछले साल सरकार दूध पाउडर का बफर स्टॉक बना लेती तो उस वक्त किसानों को दूध की कम कीमत मिलने से नुकसान नहीं होता और आज उपभोक्ताओं को भी बहुत अधिक कीमत नहीं चुकानी पड़ती।

इन सब नीतियों का असर अब दुग्ध उत्पादन और दूध की कीमतों में दिखने लगा है। हमारे देश में लगभग संगठित व असंगठित क्षेत्र के 12 करोड़ परिवार दुग्ध उत्पादन, दुग्ध व्यापार और दुग्ध उत्पादों को बनाने के काम में लगे हुए हैं। यानी हमारे देश के लगभग 60 करोड़ लोगों की जीविका दूध पर निर्भर है। दूध की कम कीमत मिलने से घाटे के कारण यदि किसान पशुपालन से विमुख हो गए तो पहले से ही संकट से जूझ रही कृषि व ग्रामीण अर्थव्यवस्था और गहरे संकट में फंस जाएगी। देश की दूध की बढ़ती मांग की आपूर्ति और दुग्ध उत्पादन में आत्मनिर्भरता बनाये रखने के लिए दुग्ध उत्पादक किसानों को लाभकारी मूल्य देना होगा, अन्यथा दूध की कीमतें भी प्याज की राह पर जा सकती हैं।

(लेखक किसान शक्ति संघ के अध्यक्ष हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)


   

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