प्राकृतिक खेती से जीवन में क्रांति: पिछले 16 साल में दवाई पर नहीं खर्च किया एक भी रुपया
Manvendra Singh | Jul 28, 2025, 14:26 IST
प्रदूषित खेती और बढ़ती बीमारियों के इस दौर में उत्तर प्रदेश के किसान प्रदीप दीक्षित ने एक अनोखा रास्ता चुना - प्राकृतिक खेती। पिछले 16 सालों से न उन्होंने कोई दवा खाई, न अपने खेतों में कोई रसायन डाला। उनके खेत अब ज़हरमुक्त हैं, मिट्टी फिर से ज़िंदा हो गई है और परिवार पूरी तरह स्वस्थ है। यह कहानी बताती है कि अगर इरादा मजबूत हो, तो मिट्टी और जीवन दोनों को स्वस्थ बनाया जा सकता है- बिना ज़हर, बिना दवाई।
प्रकृति के करीब जाने की चाह और रासायनिक ज़हर से मुक्त ज़िंदगी जीने का सपना, जब किसी के जीवन का लक्ष्य बन जाए तो चमत्कार होना तय है। लखनऊ के रहने वाले प्रदीप दीक्षित इसकी एक मिसाल हैं। पिछले 16 सालों से उन्होंने और उनके पूरे परिवार ने एक भी दवाई नहीं खाई, और इसका श्रेय वे सिर्फ और सिर्फ प्राकृतिक खेती और सादी जीवनशैली को देते हैं।
प्रदीप दीक्षित कहते हैं, “अब 16 साल से न मैंने गोली खाई है, न मेरे परिवार के किसी सदस्य ने।” इन्होंने अपनी खेती और जीवनशैली दोनों में एक बड़ा बदलाव किया और वो है प्राकृतिक खेती की ओर लौटना।
प्रदीप दीक्षित कभी परंपरागत तरीके से खेती करते थे, जिसमें रासायनिक खाद और कीटनाशकों का उपयोग आम था। लेकिन एक वक्त ऐसा आया जब उन्हें एहसास हुआ कि ज़मीन की सेहत और परिवार की सेहत दोनों ही बिगड़ रही हैं। उसी मोड़ पर उन्होंने एक फैसला लिया,खेती को ज़हरमुक्त और जीवन को दवा-मुक्त बनाने का।
शुरुआत आसान नहीं थी। आसपास के लोग उनका मज़ाक उड़ाते थे। कोई कहता, “इससे क्या होगा?” कोई कहता, “ये खेती नहीं चल पाएगी।” लेकिन प्रदीप दीक्षित डिगे नहीं। उन्होंने प्रकृति के साथ चलना चुना। उन्होंने गोबर, गौमूत्र, नीम, छाछ और जैविक तरीके से बने जीवामृत और घनजीवामृत जैसे देशी तरीकों को अपनाया। आज उनके खेत बिना किसी रसायन के उपजाऊ हैं और उनका परिवार बिना किसी दवा के स्वस्थ।
उनका मानना है कि ज़हरमुक्त खेती केवल स्वास्थ्य का ही नहीं, बल्कि आत्मनिर्भरता और आर्थिक मजबूती का रास्ता भी है। पहले वे जो पैसा दवाइयों और उर्वरकों पर खर्च करते थे, अब वो पैसा बचता है। खेतों की मिट्टी में केंचुए और जीवाणु फिर से लौट आए हैं। फसलों का स्वाद भी पहले से कहीं बेहतर है।
प्रदीप दीक्षित की बातों में एक गहरी सच्चाई झलकती है। वे कहते हैं, “जैसे एक मां अपने बच्चे को बिना ज़हर के दूध पिलाती है, वैसे ही धरती मां को भी ज़हर से मुक्त रखा जाना चाहिए।” यही भावना उन्हें आगे बढ़ाती रही।
प्राकृतिक खेती का एक और पहलू है - आत्मनिर्भरता। प्रदीप दीक्षित खुद अपने बीज उगाते हैं, खाद बनाते हैं और छाछ जैसे घरेलू नुस्खों से कीटों को नियंत्रित करते हैं। उनका मानना है कि किसान को बाहरी कंपनियों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। वो जितना स्वावलंबी होगा, उतना ही मज़बूत होगा।
उन्होंने बताया कि पहले उनके परिवार में सालभर में हजारों रुपये दवाओं पर खर्च होते थे। आज वह पैसा उनके बच्चों की पढ़ाई, परिवार की ज़रूरतें और खेत के विकास में लग रहा है। वो कहते हैं, “सिर्फ खेती नहीं, ये तो जीवन की दिशा बदलने वाली बात है।”
आज प्रदीप दीक्षित के खेत देखने दूर-दूर से लोग आते हैं- किसान, विद्यार्थी, NGO कार्यकर्ता और वैज्ञानिक तक। वे सब यही जानना चाहते हैं कि कैसे प्रदीप जी ने बिना किसी बाहरी मदद के, बिना किसी बड़े तकनीक या मशीन के, केवल देशी ज्ञान से ये कमाल कर दिखाया।
यह केवल खेती की नहीं, एक सोच की जीत है कि अगर हम प्रकृति के साथ चलें, ज़मीन को मां की तरह समझें और लालच छोड़ दें, तो हमारी ज़िंदगी भी बदल सकती है और आने वाली पीढ़ियां भी सुरक्षित रह सकती हैं।
प्राकृतिक खेती केवल पर्यावरण के लिए नहीं, समाज के लिए भी एक बड़ा बदलाव ला सकती है। इससे न केवल ज़मीन की उर्वरता बढ़ती है, बल्कि जल संरक्षण, जैव विविधता और स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी मजबूती मिलती है। दीक्षित जी जैसे किसान इस बात के उदाहरण हैं कि बदलाव अगर नीयत से शुरू हो, तो दूर तक जाता है।
प्रदीप दीक्षित की कहानी एक प्रेरणा है, उन सभी किसानों के लिए जो बदलाव लाना चाहते हैं, लेकिन डरते हैं। यह कहानी बताती है कि रास्ता मुश्किल जरूर होता है, लेकिन अगर आप डटे रहें, तो सफलता मिलना तय है। और यह केवल उनकी नहीं, हर उस व्यक्ति की जीत है जो प्रकृति को पूजता है, ज़मीन को मां मानता है और जीवन को रसायनमुक्त बनाना चाहता है
प्राकृतिक खेती: आज की ज़रूरत, कल की उम्मीद
प्राकृतिक खेती सिर्फ खेती का तरीका नहीं, बल्कि जीवन का एक विचार है। यह खेती प्रकृति के साथ मिलकर काम करती है, न कि उसके खिलाफ। इसमें जल, मिट्टी और हवा की शुद्धता बनाए रखी जाती है। किसान रासायनिक कंपनियों की जगह अपनी गाय, गोबर और देशी बीजों पर निर्भर रहता है। यही आत्मनिर्भरता की असली शुरुआत है।
भारत सरकार भी अब प्राकृतिक खेती को बढ़ावा दे रही है। राष्ट्रीय प्राकृतिक खेती मिशन के तहत कई राज्यों में जीरो बजट प्राकृतिक खेती को अपनाने के लिए किसानों को प्रशिक्षित किया जा रहा है। आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में हजारों किसान इस दिशा में आगे बढ़ चुके हैं।
प्रदीप दीक्षित कहते हैं, “अब 16 साल से न मैंने गोली खाई है, न मेरे परिवार के किसी सदस्य ने।” इन्होंने अपनी खेती और जीवनशैली दोनों में एक बड़ा बदलाव किया और वो है प्राकृतिक खेती की ओर लौटना।
प्रदीप दीक्षित कभी परंपरागत तरीके से खेती करते थे, जिसमें रासायनिक खाद और कीटनाशकों का उपयोग आम था। लेकिन एक वक्त ऐसा आया जब उन्हें एहसास हुआ कि ज़मीन की सेहत और परिवार की सेहत दोनों ही बिगड़ रही हैं। उसी मोड़ पर उन्होंने एक फैसला लिया,खेती को ज़हरमुक्त और जीवन को दवा-मुक्त बनाने का।
शुरुआत आसान नहीं थी। आसपास के लोग उनका मज़ाक उड़ाते थे। कोई कहता, “इससे क्या होगा?” कोई कहता, “ये खेती नहीं चल पाएगी।” लेकिन प्रदीप दीक्षित डिगे नहीं। उन्होंने प्रकृति के साथ चलना चुना। उन्होंने गोबर, गौमूत्र, नीम, छाछ और जैविक तरीके से बने जीवामृत और घनजीवामृत जैसे देशी तरीकों को अपनाया। आज उनके खेत बिना किसी रसायन के उपजाऊ हैं और उनका परिवार बिना किसी दवा के स्वस्थ।
प्रदीप दीक्षित मानते हैं कि किसान केवल अन्नदाता नहीं, बल्कि देश की असली रीढ़ हैं। अगर किसान बीमार ज़मीन पर ज़हरीली उपज उगाएगा तो देश की सेहत कैसे ठीक रहेगी? इसी सोच से उन्होंने न सिर्फ अपनी खेती बदली बल्कि अपने गाँव और आसपास के क्षेत्रों में जागरूकता फैलाने का काम भी शुरू किया।
उनका मानना है कि ज़हरमुक्त खेती केवल स्वास्थ्य का ही नहीं, बल्कि आत्मनिर्भरता और आर्थिक मजबूती का रास्ता भी है। पहले वे जो पैसा दवाइयों और उर्वरकों पर खर्च करते थे, अब वो पैसा बचता है। खेतों की मिट्टी में केंचुए और जीवाणु फिर से लौट आए हैं। फसलों का स्वाद भी पहले से कहीं बेहतर है।
प्रदीप दीक्षित की बातों में एक गहरी सच्चाई झलकती है। वे कहते हैं, “जैसे एक मां अपने बच्चे को बिना ज़हर के दूध पिलाती है, वैसे ही धरती मां को भी ज़हर से मुक्त रखा जाना चाहिए।” यही भावना उन्हें आगे बढ़ाती रही।
प्राकृतिक खेती का एक और पहलू है - आत्मनिर्भरता। प्रदीप दीक्षित खुद अपने बीज उगाते हैं, खाद बनाते हैं और छाछ जैसे घरेलू नुस्खों से कीटों को नियंत्रित करते हैं। उनका मानना है कि किसान को बाहरी कंपनियों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। वो जितना स्वावलंबी होगा, उतना ही मज़बूत होगा।
उन्होंने बताया कि पहले उनके परिवार में सालभर में हजारों रुपये दवाओं पर खर्च होते थे। आज वह पैसा उनके बच्चों की पढ़ाई, परिवार की ज़रूरतें और खेत के विकास में लग रहा है। वो कहते हैं, “सिर्फ खेती नहीं, ये तो जीवन की दिशा बदलने वाली बात है।”
आज प्रदीप दीक्षित के खेत देखने दूर-दूर से लोग आते हैं- किसान, विद्यार्थी, NGO कार्यकर्ता और वैज्ञानिक तक। वे सब यही जानना चाहते हैं कि कैसे प्रदीप जी ने बिना किसी बाहरी मदद के, बिना किसी बड़े तकनीक या मशीन के, केवल देशी ज्ञान से ये कमाल कर दिखाया।
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प्राकृतिक खेती केवल पर्यावरण के लिए नहीं, समाज के लिए भी एक बड़ा बदलाव ला सकती है। इससे न केवल ज़मीन की उर्वरता बढ़ती है, बल्कि जल संरक्षण, जैव विविधता और स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी मजबूती मिलती है। दीक्षित जी जैसे किसान इस बात के उदाहरण हैं कि बदलाव अगर नीयत से शुरू हो, तो दूर तक जाता है।
प्रदीप दीक्षित की कहानी एक प्रेरणा है, उन सभी किसानों के लिए जो बदलाव लाना चाहते हैं, लेकिन डरते हैं। यह कहानी बताती है कि रास्ता मुश्किल जरूर होता है, लेकिन अगर आप डटे रहें, तो सफलता मिलना तय है। और यह केवल उनकी नहीं, हर उस व्यक्ति की जीत है जो प्रकृति को पूजता है, ज़मीन को मां मानता है और जीवन को रसायनमुक्त बनाना चाहता है
प्राकृतिक खेती: आज की ज़रूरत, कल की उम्मीद
प्राकृतिक खेती सिर्फ खेती का तरीका नहीं, बल्कि जीवन का एक विचार है। यह खेती प्रकृति के साथ मिलकर काम करती है, न कि उसके खिलाफ। इसमें जल, मिट्टी और हवा की शुद्धता बनाए रखी जाती है। किसान रासायनिक कंपनियों की जगह अपनी गाय, गोबर और देशी बीजों पर निर्भर रहता है। यही आत्मनिर्भरता की असली शुरुआत है।
भारत सरकार भी अब प्राकृतिक खेती को बढ़ावा दे रही है। राष्ट्रीय प्राकृतिक खेती मिशन के तहत कई राज्यों में जीरो बजट प्राकृतिक खेती को अपनाने के लिए किसानों को प्रशिक्षित किया जा रहा है। आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में हजारों किसान इस दिशा में आगे बढ़ चुके हैं।