झुग्गी-झोपड़ियों के बच्चे 'छोटे मास्टर जी' से सीख रहे पढ़ाई

Neetu SinghNeetu Singh   1 Sep 2017 1:28 PM GMT

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लखनऊ। जो बच्चे स्कूल जाने से डरते हैं या जिनके माता-पिता उन्हें स्कूल नहीं भेजते हैं, ऐसे बच्चों को पढ़ाने और उन्हें स्कूल भेजने की जिम्मेदारी 13 वर्षीय आनंद पिछले पांच वर्षों से उठा रहे हैं अब तक सैकड़ों बच्चों को स्कूल पहुंचाने के साथ ही 150 से ज्यादा गाँव में अपनी बाल चौपाल के जरिये हजारों बच्चों से रूबरू हो चुके हैं।

"गाँव में खेल रहे बच्चों से पहले दोस्ती करता हूँ फिर उन्हें एक जगह इकट्ठा करके पढ़ाता हूँ, पढ़ाने से ज्यादा उन्हें ये समझाने की कोशिश करता हूँ कि पढ़ाई उनके लिए कितनी जरूरी है। अपनी पढ़ाई के बाद मेरे पास जितना भी समय बचता है कोशिश करता हूँ इन बस्तियों में जाऊं और इन बच्चों को पढ़ा सकूं,'' ये बताते हुए नवीं के छात्र आनन्द कृष्ण मिश्रा के माथे पर परेशानियों की लकीरें आ जाती हैं, " मै हमेशा उन बच्चों को देखकर परेशान होता हूँ जो सड़क पर भिक्षा मांग रहे होते हैं या फिर होटलों पर काम कर रहे होते हैंकोई भी बच्चा पढ़ाई से वंचित न रहे इसके लिए मै हर सम्भव प्रयास करता हूँ।''

बाल-चौपाल के अलावा स्कूल में भी जाते हैं आनंद, वहां के बच्चों से करते हैं संवाद

बाल चौपाल खोलने का ऐसे आया विचार

लखनऊ के आलमबाग के समर बिहार पार्क के श्रीनगर कस्बे में रहने वाले आनन्द कृष्ण मिश्रा कानपुर रोड स्थित सिटी मांटसरी स्कूल में नवीं के छात्र है। आनन्द सिर्फ पांच घंटे ही सोते हैं इनका पूरा समय पढ़ने और पढ़ाने में गुजरता है। जब आनंद चौथी कक्षा में पढ़ते थे तब वो अपने माता-पिता के साथ साल 2011 में उज्जैन घूमने गये, एक छोटी सी घटना से आनंद के मन में बाल चौपाल शुरू करने का विचार आया। उस छोटी सी घटना का जिक्र करते हुए आनंद भावुक हो जाते है, "एक मन्दिर में दर्शन के दौरान मन्दिर के बाहर धीमी रोशनी में एक छोटा बच्चा पढ़ाई कर रहा था, जब आरती शुरू हुई तो वो छोटा सा बच्चा मराठी और संस्कृत में पूरी आरती को लीद कर रहा था। जब हम बाहर निकले तो उस बच्चे को हमारे पिताजी ने कुछ पैसे दिए तो उसने ये कहकर मना कर दिया ये भीख है हम नहीं लेंगे,'' ये बताते हुये आनंद की आँख में आंसू भर जाते हैं, "बहुत कहने पर उसने पैसे नहीं लिए, उसने कहा उसे कुछ कॉपी पेन खरीद कर दे दीजिये। उस बच्चे की इस बात से मै बहुत प्रभावित हुआ, उसने मुझसे तबतक अपना हाथ हिलाया जबतक की हम उसकी नजरों से ओझल नहीं हो गये।''

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नौ वर्ष की उम्र से आनंद ने शुरू की थी बाल चौपाल लगाना (हरी शर्ट में आनंद)

विवेकानंद जयंती पर की थी शुरुआत

आनंद जब घूमकर वापस आये तो उनके जेहन से उस लड़के की वो छवी धूमिल नहीं हुई। आनन्द उस समय लगभग नौ बरस के थे। 12 जनवरी साल 2012 को राष्ट्रीय युवा दिवस और विवेकानन्द जी की जयंती पर पहली बार काकोरी ब्लॉक के भवानी खेड़ा गाँव से बाल चौपाल की शुरुवात की। पहले दिन का अनुभव साझा करते हुए आनंद बताते हैं, "उस समय मै बहुत छोटा था, गाँव मम्मी-पापा के साथ गया था, कुछ बात करेंगे उनसे ये कहकर एक जगह खेल रहे बच्चों को मैंने इकट्ठा किया। कुछ देर में 20-25 बच्चे इकट्ठे हो गये, शुरुवात उस दिन उस गाँव से की थी।'' उन्होंने आगे कहा, "उस दिन से अपने पड़ोस के बच्चों को इकट्ठा करके पढ़ाना शुरू कर दिया था, पहले दिन चार पांच बच्चे ही थे ये वो बच्चे थे जिनके मम्मी दूसरों के घरों में काम करती थी और पापा मजदूरी, कुछ तो सरकारी स्कूल में पढ़ने जाते थे पर कुछ गर पर ही रहते थे, इन बच्चों को मेरे जैसी ही शिक्षा मिले इसके लिए मै रोज इन्हें पढ़ाता था।''

आनंद के मम्मी-पापा (अनूप मिश्रा और रीना मिश्रा), दोनों यूपी पुलिस में कार्यरत हैं

आनंद के माता-पिता भी इनके इस काम में करते हैं सहयोग

आनंद के माता-पिता यूपी पुलिस में नौकरी करते हैं पर अपने बेटे के इस कार्य में ये पूरा सहयोग करते हैं। आनंद के पिता अनूप मिश्रा घर की आलमारी में रखे अवार्ड की ओर देखते हुए बताते हैं, "इस छोटी सी उम्र में आनंद ने इतने सारे अवार्ड पाए हैं एक पिता के लिए इससे ज्यादा गर्व की क्या बात हो सकती है, जब आनंद छोटे थे तब मै या मेरी पत्नी अपनी ड्यूटी से लौटकर किसी एक गाँव ले जाते थे पर पिछले दो सालों से आनंद ने घर से दो किलोमीटर दूर कलिंदर खेड़ा गाँव में साइकिल से पढ़ाने खुद चले जाते हैं।'' वो आगे बताते हैं, "इन्हें छोटी उम्र से ही किताबें पढ़ने का बहुत शौक है, ये ये हर हफ्ते कोई न कोई साहित्यिक किताब जरुर मंगाते हैं, पढ़ाई के अलावा लखनऊ महोत्सव में आनंद लगातर सहजादे अवध का तीन बार खिताब जीत चुके हैं।''

इनकी माँ रीना मिश्रा खुश होकर बताती हैं, "आनंद के इस काम से हम खुश है, इस काम की वजह से आनंद की पढ़ाई पर कोई असर न पड़े इसके लिए मै इनकी पढ़ाई में इन्हें बहुत सयोग करती हूँ, अभी तक 96 प्रतिशत से कम कभी भी इनका रिजल्ट नहीं आया है, इनके सवाल कई बार ऐसे होते हैं जिनके जबाब हमारे पास नहीं होते हैं, इतनी कम उम्र में आनंद ने बहुत किताबें पढ़ ली हैं इसलिए इनके पास हर विषय की बहुत जानकारी है।''

'छोटे मास्टर जी' के साथ बच्चे रहते हैं खुश, ये पढ़ाई के साथ सीखतें हैं और कई चीजें

जबसे आनंद ऊंची कक्षाओं में पहुंच रहे हैं इनका कोर्स बढ़ रहा ही इसलिए इनका जो सपना है उसे इनके माता-पिता सन्देश वाहक की तरह पूरा करते हैं। प्राथमिक विद्यालयों की शैक्षिणक व्यवस्था बेहतर हो इसके लिए इनका पिता स्कूल जाते हैं, उन समस्याओं को कैसे मिलकर सुलझाया जाए उस पर आपस में विचार विमर्श करते हैं। कुछ स्कूल इन्होने अभी गोद भी लिए हैं। जिसकी ये पूरी देखरेख कर रहे हैं।

नन्हे मास्टर जी हैं छोटे पर इनकी सोच है बड़ी

चाणक्य का जिक्र करते हुए आनंद बताते हैं, "मुझे उनकी ये बात हमेशा याद रहती है कि जब भी किसी से मीलों ऐसे मीलों जैसे जीवन के आखिरी क्षणों में मिल रहे हो, यही सोंचकर मै हर किसी से मिलता हूँ, मै अपना जन्मदिन नहीं मनाता हूँ, जन्मदिन पर जो पैसे खर्च होते हैं उन्ही पैसों से मै इन बच्चों को कॉपी-पेन, बैग खरीदकर देता हूँ, नवरात्रि में रामनवमी को माँ कन्याभोज कराती हैं मै गाँव में उन कन्याओं को पढ़ने के लिए प्रेरित करता हूँ और उनकी जरूरत का सामान उपलभ्ध कराता हूँ।''

आनंद अपनी बातचीत में बहुत ही कठिन और साहित्यिक शब्दों का प्रयोग करते हैं, इनसे बातचीत करते हुए ऐसा लगता नहीं है कि ये महज 13 वर्ष के हैं। आनंद हमेशा इस बात से परेशान रहते हैं कि शिक्षा पर इतना पैसा खर्च हो रहा है पर गाँव के बच्चों की शिक्षा में कोई सुधार नहीं हो रहा है। इनका कहना है, "मै सप्ताह में तीन से चार दिन 70-80 बच्चों को एक घंटे पढ़ाने जाता हूँ, अब ये बच्चे मेरे अच्छे दोस्त बन गये है, मुझे जितनी सुविधाएँ पढ़ाई के लिए मिली हैं ये उनसे वंचित है इसलिए मेरी कोशिश है मै अपने ज्ञान को इनके बीच बाँट सकूं जिससे इन्हें अपनी असुविधाओं का एहसास न हो।''

तमाम अवार्ड पा चुके हैं 13 वर्षीय आनंद

टीचर और दोस्तों की मदद से गाँव में बच्चों के लिए शुरू की लाइब्रेरी

इन बच्चों के पास अच्छी किताबों का अभाव होता है इसलिए आनंद ने अपनी टीचर और कुछ दोस्तों की मदद से इन बच्चों के पुस्तकालय बनाया है। अबतक 10 छोटी-छोटी लाइब्रेरी ये उन गाँव में बना चुके हैं जहाँ के बच्चों ने पढने में रूचि दिखाई थी। आनंद बताते हैं, "पढ़ाई के अलावा भी बच्चों को किताबें मिले जिससे उनका सामान्य ज्ञान बढ़े इसलिए अपनी टीचर जो कि हमारे स्कूल की फाउंडर भारती गांधी मैम ने हमे बहुत सारी किताबें दी, अपने दोस्तों से पुरानी और नई किताबें इकट्ठा करके इन बच्चों के लिए इनके ही गाँव में किसी एक के घर में एक के घर लाइब्रेरी बनाई है।'' इस लाइब्रेरी से बच्चे ज्यादा से ज्यादा किताबें पढ़ सकें, और हर गाँव में लाइब्रेरी हो इसके लिए ये सभी से किताबें देने की बात कहते हैं जिनके पास भी पुरानी किताबें हैं ये उन्हें दे दें जिससे लाइब्रेरी की संख्या बढाई जा सके ऐसी इन्होने इच्छा जाहिर की है।

पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत 'यूथ आइकान अवार्ड 2015' से कर चुके हैं आनंद को सम्मानित

खाली समय में बनाते हैं आगे की कार्य योजना

आनंद अपने मम्मी-पापा के साथ खाली समय में कार्ययोजना बनाते हैं कि इस बाल चौपाल को आगे कैसे ले जाना है। इनके मम्मी-पापा सरकारी सर्विस में भले ही हैं पर आनंद के इस विजन को पूरा करने में बहुत सहयोग कर रहे हैं। हर दिन इनकी बाल चौपाल में कुछ नया हो ये इनकी कोशिश रहती है। ये अपने ड्रीम प्रोजेक्ट के बारे में बताते हैं, "मै इंजीनियर बनना चाहता हूँ और अपने देश में एक ऐसी कम्पनी बनाना चाहता हूँ जिसमे उनको उनकी योग्यता के हिसाब से पूरा पैसा मिल सके। जिससे हमारे देश का कोई भी इंजीनियर विदेश न जाए, देश का ज्ञान देश के काम आये यही हमारा सपना है।'' वो आगे बताते हैं, "मेरे बहुत सारे अवार्ड मेरे आगे बढ़ने की सीढ़ियां हैं, मै अपनी बाल चौपाल कभी बंद नहीं करूंगा इसे और बेहतर ढंग से आगे ले जाऊँगा। मेरे बहुत सारे दोस्त मेरे इस काम में मदद कर रहे हैं, हम सभी अपनी पढ़ाई के बाद इन बच्चों को निशुल्क पढ़ाने में जुटे हुए हैं।''

       

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