झारखंड के इस रेस्टोरेंट में केवल इशारों में ही क्यों मिलती है चाय, कॉफी?, वजह जान आप भी करेंगे तारीफ़

झारखंड के जमशेदपुर में एक रेस्टोरेंट है, जहां सिर्फ इशारों में ही आप ऑर्डर कर सकते हैं। क्योंकि ज्यादातर जो कर्मचारी (स्टॉफ) है वो साइन लैंग्वेंज ही समझते हैं, देखिए वीडियो

Anand DuttaAnand Dutta   10 July 2021 9:03 AM GMT

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जमशेदपुर (झारखंड़)। न बोल पाने वाले और न सुन पाने वाले अगर किसी होटल के वेटर हों, तो क्या हो सकता है ये आपने सोचा है? ऐसे किसी होटल में आप जाएं तो शायद झुंझला कर बाहर आ जाएं। लेकिन थोड़ा ठहरिये, ऐसा भी होटल है और लोग खूब वहां चाप, कॉफी, केक, पिज्जा, पेस्ट्री खाते हैं जो ऐसे ही लोगों द्वारा सर्व किया जाता है। यही नहीं, न बोल और सुन पाने वाले लोगों यहां खाना चाय से लेकर पिज्जा तक बनाया भी जाता है। और सिर्फ दस रुपए वाली ही नहीं, हजार रुपए की चाय भी पिलाई जाती है। झारखंड के जमशेदपुर के 'ला ग्रैविटी' रेस्टोरेंट का 90 प्रतिशत स्टॉफ मूक-बधिर है, जिसे अब दिव्यांग कहा जाने लगा है।

बीती छह जुलाई की शाम जमशेदपुर में थोड़ी अलसाई थी। बारिश बंद ही हुई थी। लोग घरों से निकल होटल, रेस्टोरेंट, पार्क की तरफ निकले थे। जिलाधिकारी आवास से 100 मीटर की दूरी पर सर्किट हाउस के सामने स्थित इस रेस्टोरेंट में एक महिला आई और इशारों में कुछ कहा। बाद में पता चला कि साइन लैंग्वेज में उन्होंने स्पाईसी और मोमो ऑर्डर किया है। कुछ ही देर में सूरज नाम का स्टॉफ बड़े करीने से सजाकर उनकी टेबल पर उनका ऑर्डर रख, दूसरे टेबल की तरफ बढ़ गया। यहां भी उन्हें साइन लैंग्वेज में ही कुछ ऑर्डर मिला और वह किचन की तरफ मुड़ गए।

सूरज (27 वर्ष) ने बताया कि हाल ही में उसने एक मोटर साइकिल बुक की है, ये पैसे उसने इसी जगह काम करते हुए कमाए हैं। (सूरज की साइन लैंग्वेंज को अविनाश ने गांव कनेक्शन को बताईं)। अविनाश की मदद से गांव कनेक्शन को अमित लाहड़ी (29 वर्ष) के परिवार, कमाई के बारे पता चला। अमित के पिता का देहांत हो चुका है। मां एक प्राइवेट कंपनी में चपरासी का काम करती हैं। मां के साथ वह एक बहन और भाई के पढ़ाई का खर्चा उठाता है। ऑनलाइन पढ़ाई के लिए हाल ही में उसने एक मोबाइल इन दोनों बच्चों को खरीद कर दिया है।

रेस्टोरेंट के कर्मचारियों से साइन लैंग्वेज में बात करते अविनाश दुग्गर।

आखिर ये आइडिया आया कहां से

इस रेस्टोरेंट को जमशेदपुर के अविनाश दुग्गर को चलाते हैं। अविनाश कोहीनूर स्टील प्रा. लि. स्टील कंपनी में वाइस-प्रेसिडेंट का जॉब छोड़, साल 2016 जुलाई में चाय दुकान की शुरूआत की। दुकान पर एक लड़की आई जिसे नौकरी में बार-बार रिजेक्ट कर दिया जा रहा था। लड़के के भाई ने बताया कि वह सुन नहीं सकती है, इसलिए उसे नौकरी नहीं मिल पा रही है। अविनाश ने सोचा क्यों न ऐसे लोगों को नौकरी दी जाए। यहीं से उन्होंने पहले खुद साइन लैंग्वेज सीखी। इसके बाद जमशेदपुर के ही एक मूक-बधिर स्कूल गए और वहां के पुराने छात्रों का पता लगाया। जिसके बाद वो रूमा कुमारी नाम की लड़की के घर पहुंचे थे।

अविनाश बताते हैं, ''पहले न तो रूमा तैयार हुई, न ही उसके परिजन। फिर मैं उन्हें अपने रेस्टोरेंट लेकर आया। दिखाया कि कैसे काम करना है। रूमा तैयार हो गई। शुरूआत में उसके पिताजी उसे लेकर आते थे, जब आत्मविश्वास बढ़ा तो वह खुद एक सामान्य कर्मचारी की तरह आने लगी।''

रूमा के बाद उसके साथ उसकी पांच और दोस्त रश्मि, कोमल, सुग्गी, पूजा, मोनिका यहां काम करने आईं। फिलहाल 11 ऐसे लोग वहां काम कर रहे हैं, जिसमें सात लड़कियां हैं। इसमें दो स्टाफ अनाथाश्रम में पली हैं। सभी जमशेदपुर के रहने वाले हैं।

इस कैफेटेरिया में 150 तरह की चाय मिलती है, जिसे 12 देशों ब्राजील, नेपाल, चीन, श्रीलंका, केन्या, वियतनाम, कंबोडिया, साउथ अफ्रीका, अर्जेंटीना, जापान से मंगाई जाता है। केवल दूध की 26 तरह की चाय ये मूक-बधिर बनाते हैं।

इस रेस्टोरेंट में सिर्फ 10 फीसदी कर्मचारी ऐसे हैं जो बोल और सुन सकते यानि सामान्य हैं, मैनेजर शकुंतरा हांसदा उनमें से एक हैं। वो कहती हैं, ''एक दिन एक महिला ग्रुप उनके यहां आया। उन्होंने चाय के अलावा सैंडविच, पिज्जा आदि ऑर्डर किए। उन्हें सर्व करने के बाद सभी स्टॉफ अपना काम कर रहे थे। अचानक उस महिला ने आवाज दी। पहले तो कोई सुन नहीं पाया। मैंने देखा कि वो बुला रही है, तब जाकर पूछा तो उन्होंने कहा कि ये सामान किसने बनाया है, मैं उससे मिलना चाहती हूं।"

वो आगे कहती हैं, "आप समझ सकते हैं किसी भी शेफ के लिए ये कितना बड़ा कॉम्पीमेंट होता है। जब बनाने वाले को बुलाया और उसके बारे में बताया तो उन्होंने हमारे उस स्टॉफ को गले लगा लिया।''

ये बताते हुए शंकुतरा की आंखों की चमक देखने लायक थी। ऐसे ही एक वाकए का जिक्र अविनाश करते हैं।

''साल 2019 में ऐसे ही एक ग्राहक आए। खुश होकर वो 2000 रुपए टिप देना चाहे। मैं उस वक्त रेस्टोरेंट में नहीं था। स्टॉफ डर गया। शकुंतला ने मुझे फोन पर पूरी बात बताई, मैं पास में ही कहीं था। भागा-भागा आया और फिर बहुत आग्रह से उनसे कहा कि हम टिप को प्रमोट नहीं करते हैं। अगर आपको इनका बनाया अच्छा लगा है तो आप दुबारा आएं, यही हमारा टिप होगी। अब उनका पूरा परिवार हमारे यहां आए दिन आता रहता है।'

'ला ग्रैविटी' रेस्टोरेंट का 90 फीसदी स्टॉफ दिव्यांग है।

मूक वधिर स्टॉफ के साथ काम करना नहीं था आसान

अविनाश कहते हैं, ''बिल्कुल नहीं, मूक-बधिरों को शुरूआत से ही ऐसी ट्रेनिंग दी जाती है कि तुम किसी काम के लायक नहीं हो। तुम्हें सबकुछ मुफ्त मिलेगा। यहां तक कि बड़ी-बड़ी कंपनियां भी इन्हें केवल इसलिए नौकरी देती हैं कि वो अपने कंपनी सोशल रिस्पांसिबिलिटी (सीएसआर) में इसका जिक्र कर सकें। चाहे वो मूक-बधिर स्टॉफ काम करने या न करें, उन्हें सैलरी देते हैं। लेकिन उनके यहां जो स्टाफ हैं, अगर वो एबसेंट या देरी से आते हैं तो उनकी सैलरी कटती है।''

अपनी बात आगे बढ़ाते हुए वो कहते हैं, ''ये लोग ( स्टॉफ) जहां पहले घर में बैठे रहते थे। टीवी देखते थे, लड़ाई करते थे। आज सुबह वह उठते हैं, बाकि कर्मचारियों की तरह रेस्टोरेंट आते हैं। यहां जो चीज बनाकर ग्राहकों को खिलाते हैं, वही अपने घरवालों को भी बनाकर खिलाते हैं। कोई घर के लिए आलमारी खरीद रहा है तो कोई कपड़े लेकर घर जाता है।''

दिव्यांगता को न बनाएं कमजोरी

मूक-बधिर या किसी तरह के दिव्यांग को हुनरमंद बनाने और स्वरोजगार देने की हिमायत करने वाले अविनाश आगे कहते हैं, ''कुछ दिन पहले जिलाधिकारी के ऑफिस के सामने 100 से अधिक मूक-बधिर रोजगार के लिए प्रदर्शन कर रहे थे। मैंने वहां जाकर कहा कि आपलोग मेरे यहां आइए, मैं आपको 12000-15,000 की नौकरी देता हूं। चूंकि एक स्कूल में ऐसे लोगों के साथ कैंटीन चलाने का प्रपोजल मेरे पास था। इनमें से मात्र चार लोग आए। जब काम के बारे में बताया तो अगले दिन उनमें से कोई नहीं आया।"

थोड़ा रुककर वो कहते हैं, "कुछ देर पहले मैं जिस माइंडसेट (मानसिकता) का जिक्र कर रहा था, ये उसी का नतीजा था। समाज ने परिवार ने बता दिया कि दिव्यांग हो, तुम्हें फ्री में मिलेगा। अगर ऐसा नहीं रहता तो 50 लोगों को रोजगार दे चुका होता।''

ला ग्रैविटी रेस्टोरेंट में काम करने वाले कई दिव्यांग कर्मचारी आज अपने घर का सहारा बन चुके हैं। वो दूसरे पर आश्रित नहीं बल्कि अपने परिवार को आर्थिक रुप से सक्षम बना रहे हैं। कोई अपने भाई-बहनों को अपनी सैलरी से पढ़ा रहा है तो कोई घर बनने में पिता की मदद कर रहा है। इस रेस्टोरेंट में कार्यरत मोनिका महतो ने अपने पिता को घर बनाने के लिए अपनी बचत से पैसे दिए हैं। नंदिता अनाथालाय में रहती है। यहां वह काम करने के साथ हुनर सीख रही है, उसे एक्सपोजर मिल रहा है।


"साइन लैंग्वेंज की सभी स्कूलों में चले क्लास"

मूक बधिर लोगों के सामने सबसे मुश्किल होता है अपनी बात दूसरे को समझा पाना। अगर सामने वाला थोड़ी कोशिश करता है तो वो इनकी इशारों वाली भाषा को समझ जाता है।

स्टाफ चंद्र प्रभा कहती हैं, ''साइन लैंग्वेज की बेसिक जानकारी सभी को होनी चाहिए। जैसे स्कूल में अंग्रेजी भाषा सिखाते हैं, उसी तरह हफ्ते में एक दिन ही सही, बच्चों को इसका क्लास जरूर देना चाहिए। इससे फायदा ये होगा कि वो एक नई भाषा तो सीखेंगे ही, हमें भी स्पेशल फील नहीं होगा। हम सामान्य महसूस करना चाहते हैं.'' (ये सारी बातें उसने साइन लैंग्वेज में अविनाश को बताई और उन्होंने फिर गांव कनेक्शन को बताईं।)

चंद्र प्रभा की बात को आगे बढ़ाते हुए अविनाश कहते हैं, "जमशेदपुर में ही बिष्टुपुर इलाके में एक डीएवी पब्लिक स्कूल है। वहां दीवाल पर साइन लैंग्वेज की पेंटिंग बनाई गई है। यहां लगभग 3,000 बच्चे पढ़ते हैं। आप बस सोचिये जब ये बच्चे यहां से पढ़कर निकलेंगे, चंद्र प्रभा, मोनिका, सूरज जैसे कितनों से आसानी से बात कर पाएंगे। उनके काम को एक बड़ा बाजार मिल पाएगा। सरकार को भी हफ्ते में एक दिन का क्लास सभी सरकारी-गैर सरकारी स्कूलों में अनिवार्य करना चाहिए। बस शिक्षक इस भाषा को पूरी संवेनशीलता के साथ सिखाएं, तो मूक-बधिरों की दुनिया ही बदल जाएगी।

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