COP30 : जलवायु पर दुनिया की सबसे बड़ी बैठक, लेकिन इसका सबसे बड़ा असर भारत के गाँवों पर क्यों पड़ेगा?

Manvendra Singh | Nov 12, 2025, 18:09 IST
COP 30
अब तक तो आप सभी ने यह महसूस कर ही लिया होगा कि मौसम अब पहले जैसा नहीं रहा। कभी इतनी बारिश होती है कि बाढ़ आ जाती है, तो कभी सूखा पड़ जाता है।वक्त से पहले गर्मी का आना और देर तक रुक जाना, और तापमान इतना बढ़ जाना कि सहना मुश्किल हो जाए, इन सभी चीज़ों के पीछे का कारण है जलवायु परिवर्तन। इसी मुद्दे पर चर्चा के लिए पूरा विश्व हर साल एक मंच पर जुटता है, जिसे कहा जाता है COP (Conference of the Parties)।इस साल यह इसका 30वां सत्र है, इसका नाम है COP30। यह बैठक 10 से 21 नवंबर, 2025 तक ब्राज़ील के बेलें (Belém) शहर में हो रही है।

क्यों ज़रूरी है Cop30 ?

COP – Conference of the Parties वही वार्षिक सम्मेलन है जहां तय किया जाता है कि बढ़ते तापमान, प्रदूषण और ग्लोबल वॉर्मिंग से लड़ने के लिए दुनिया को कौन से कदम उठाने हैं। साथ ही, यह भी तय होता है कि कौन सा देश इसके लिए वित्तीय सहायता (finance) और तकनीकी सहयोग (technology) देगा।इस बार का COP पहले से अलग है क्योंकि अब लक्ष्य सिर्फ नए वादे करने का नहीं, बल्कि पुराने वादों को ज़मीन पर उतारने का है। COP30 के तीन बड़े एजेंडे हैं, पहला, अब तक किए गए वादों का पालन यानी Implementation; दूसरा, गरीब और विकासशील देशों के लिए Climate Finance यानी जलवायु से निपटने के लिए धन की व्यवस्था; और तीसरा, Adaptation यानी बदलते मौसम के हिसाब से खुद को तैयार करना,जैसे सूखा, बाढ़ और गर्मी से बचाव के उपाय।

संयुक्त राष्ट्र की UNFCCC रिपोर्ट बताती है कि पिछले तीस सालों में दुनिया के देश कई घोषणाएं कर चुके हैं, लेकिन धरती का तापमान लगातार बढ़ रहा है। अब वक्त है कि बातों से आगे बढ़कर कार्रवाई की जाए।

क्लाइमेट चेंज पर डेटा क्या कहता है?

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) की Emissions Gap Report-2024 कहती है कि अगर दुनिया का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखना है, यानी की धरती के बढ़ते हुए औसतन तापमान को काबू में रखना है, तो 2030 तक वैश्विक उत्सर्जन यानि की ग्लोबल एमिशन में 2019 की तुलना में 43% की कमी करनी होगी। लेकिन मौजूदा नीतियों के हिसाब से दुनिया इस समय सिर्फ 4 से 10% कमी की दिशा में आगे बढ़ रही है। इसका मतलब है कि हमारी रफ्तार बहुत धीमी है। अगर ऐसा ही चलता रहा, तो 1.5°C की सीमा 2030 से पहले ही टूट जाएगी, जिससे मौसम से जुड़ी घटनाएं जो बहुत नुकसान पंहुचा सकती हैं, जैसे बाढ़, सूखा, और हीटवेव और भी तेज़ हो जाएंगी।

IPCC (Intergovernmental Panel on Climate Change) की रिपोर्ट चेतावनी देती है कि इन परिस्थितियों का सबसे ज़्यादा असर विकासशील देशों पर पड़ेगा, खासकर उन समुदायों पर जो खेती, पानी और प्रकृति पर निर्भर हैं यानी कि भारत के गॉंवों पर।

सबसे ज्यादा खतरे में गाँव

भारत जैसे देश में जलवायु परिवर्तन सिर्फ पर्यावरण का नहीं, बल्कि अर्थव्यवस्था और आजीविका का मुद्दा है।

भारत की करीब 60% खेती अब भी मानसून पर निर्भर है। पिछले दस सालों में मानसून के पैटर्न में 20 से 25% बदलाव देखा गया है, कभी बारिश बहुत ज़्यादा होती है, तो कभी बिल्कुल नहीं।कृषि मंत्रालय और वर्ल्ड बैंक की 2024 की रिपोर्ट के अनुसार, बढ़ते तापमान की वजह से भारत में फसल उत्पादकता में 8 से 10% तक की गिरावट आ सकती है।NITI Aayog की रिपोर्ट चेतावनी देती है कि अगर हालात ऐसे ही रहे तो 2030 तक देश के 40% हिस्से में पेयजल संकट खड़ा हो सकता है।

ग्रामीण परिवारों के लिए यह सब सिर्फ मौसम का मुद्दा नहीं रह गया है, बल्कि अब आर्थिक संकट बनता जा रहा है।

जब बारिश नहीं होती तो फसल सूख जाती है, किसान कर्ज़ में डूब जाते हैं, और कई बार उन्हें गाँव छोड़कर शहरों की ओर पलायन (migration) करना पड़ता है।

क्लाइमेट फाइनेंस पर क्यों अटका है मामला?

विकसित देशों ने 2009 में वादा किया था कि वो विकासशील देशों को हर साल 100 अरब डॉलर (USD 100 Billion) की वित्तीय मदद देंगे ताकि वो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से लड़ने की तैयारी कर सकें। लेकिन यह राशि कई साल देरी से, 2022 में जाकर पूरी हुई। OECD की रिपोर्ट के मुताबिक, असल ज़रूरतें इस रकम से कहीं ज़्यादा हैं, कई ट्रिलियन डॉलर जितनी ज़्यादा। भारत जैसे देशों के लिए यह पैसा सिर्फ मदद नहीं, बल्कि जीविका बचाने का जरिया है। इसी फंड से किसान सौर पंप लगा सकते हैं, पानी बचाने की तकनीकें अपना सकते हैं, और जलवायु-अनुकूल फसलें (climate-resilient crops) उगा सकते हैं।

COP30 से भारत को क्या उम्मीदें हैं?

भारत ने COP30 में दो बड़ी मांगें रखी हैं।पहली- क्लाइमेट फाइनेंस को न्यायसंगत और सुलभ बनाया जाए, ताकि विकासशील देशों को समय पर और पर्याप्त पैसा मिले। दूसरी- अनुकूलन (Adaptation) को प्राथमिकता दी जाए, ताकि गाँवों में सूखा, बाढ़ और गर्मी से निपटने के लिए स्थानीय स्तर पर समाधान विकसित किए जा सकें।ब्राज़ील, जो इस बार COP30 की अध्यक्षता कर रहा है, उसने भी कहा है कि अब समय “Implementation” का है यानी अब फैसले ज़मीन पर उतरने चाहिए, केवल घोषणा नहीं होनी चाहिए।

क्यों COP30 हम सबके लिए मायने रखता है

जलवायु परिवर्तन का सबसे पहला और गहरा असर भारत के गाँवों पर पड़ता है। जहां खेती, पशुपालन और प्राकृतिक संसाधन ही आजीविका का आधार हैं, वहीं अब मौसम के बदलते रुझान ने इस जीवनशैली को अस्थिर कर दिया है।अगर COP30 के फैसले ईमानदारी से लागू हुए, तो इससे गाँवों में सस्ती सौर ऊर्जा, जल संचयन, और सूखा-प्रबंधन जैसी योजनाएँ तेज़ी से बढ़ेंगी। साथ ही, क्लाइमेट-रेज़िलिएंट खेती (climate-resilient farming) को भी बढ़ावा मिलेगा, जिससे किसान मौसम के उतार-चढ़ाव के बावजूद खेती जारी रख सकेंगे।लेकिन अगर ये फैसले सिर्फ कागज़ों तक सीमित रहे, तो “क्लाइमेट संकट” का सबसे बड़ा भार वही ग्रामीण जनता उठाएगी जो इस संकट की सबसे कम जिम्मेदार है।
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