डायबिटीज़ का बढ़ता ख़र्च: उत्तर भारत में परिवारों की जेब पर भारी बीमारी
Gaon Connection | Jul 23, 2025, 14:43 IST
उत्तर भारत में मधुमेह के मरीजों पर हर साल हज़ारों खर्च हो रहे हैं, जो गरीब और मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए आर्थिक संकट बनता जा रहा है। एक हालिया अध्ययन ने चेताया है कि इलाज के बोझ से कई लोग कर्ज और आर्थिक अस्थिरता की चपेट में आ रहे हैं।
उत्तर भारत में रहने वाले लाखों लोग टाइप-2 डायबिटीज़ यानी मधुमेह से जूझ रहे हैं। लेकिन बीमारी से ज़्यादा चिंता की बात यह है कि इलाज का खर्च कई परिवारों के बजट को तोड़ रहा है। हाल ही में प्रकाशित एक अध्ययन से पता चलता है कि मधुमेह केवल स्वास्थ्य की नहीं, बल्कि आर्थिक आपदा की स्थिति बनता जा रहा है- खासकर गरीब और मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए।
क्या कहता है यह अध्ययन?
BMC Health Services Research में प्रकाशित Cost of type 2 diabetes mellitus management for households in Northern India – an econometric analysis शीर्षक वाला यह अध्ययन हरियाणा, उत्तर प्रदेश और पंजाब के चयनित ज़िलों में मधुमेह रोगियों और उनके परिवारों से किए गए सैकड़ों इंटरव्यू पर आधारित है। शोध में घरेलू स्तर पर डायबिटीज़ के इलाज, दवाइयों, जांच, डॉक्टर की फीस, अस्पतालों में भर्ती, और यात्रा व भोजन से जुड़े खर्च का विश्लेषण किया गया।
मुख्य निष्कर्ष:
एक औसत मधुमेह रोगी के इलाज पर प्रति वर्ष ₹15,000 से ₹25,000 तक खर्च होता है।
इन खर्चों का 70–80% हिस्सा जेब से भुगतान (Out-of-pocket expenditure) के रूप में आता है।
परिवार की सालाना आय का 8–12% हिस्सा केवल मधुमेह पर खर्च होता है - जो स्वास्थ्य नीति विशेषज्ञों के अनुसार "आर्थिक रूप से विनाशकारी व्यय" (Catastrophic Health Expenditure) माना जाता है।
दवा सबसे बड़ी चुनौती
शोध में यह पाया गया कि मधुमेह रोगियों को हर महीने दवाइयों पर ₹600–₹1,200 तक खर्च करना पड़ता है। इनमें से अधिकतर दवाएँ सरकारी अस्पतालों में उपलब्ध नहीं हैं, जिससे लोग निजी मेडिकल स्टोर पर निर्भर हो जाते हैं।
इसके अलावा, ब्लड शुगर जांच (HbA1c), यूरिन टेस्ट, लिपिड प्रोफाइल और अन्य नियमित जांचों का खर्च भी सालाना ₹3,000–₹6,000 तक पहुँच जाता है।
गरीब परिवार सबसे अधिक प्रभावित
अध्ययन से यह भी पता चला कि:
यह चौंकाने वाला तथ्य सामने आया कि अध्ययन में शामिल अधिकतर मधुमेह रोगियों के पास कोई भी स्वास्थ्य बीमा योजना नहीं थी। जिनके पास बीमा था, उन्हें भी मधुमेह से जुड़े आउटडोर खर्चों (जैसे दवा, टेस्ट, डॉक्टर विज़िट) के लिए बीमा से कोई लाभ नहीं मिल रहा था।
सरकारी योजनाएं कहाँ चूक रहीं?
भारत सरकार की आयुष्मान भारत योजना और कई राज्य स्तरीय योजनाएं गंभीर बीमारियों के लिए बीमा कवरेज देती हैं। लेकिन डायबिटीज़ जैसी Non-communicable Diseases (NCDs) के लिए इन योजनाओं की पहुँच और प्रभाव दोनों बेहद सीमित हैं।
शोध में यह सिफ़ारिश की गई है कि:
इस अध्ययन ने स्पष्ट कर दिया है कि टाइप-2 डायबिटीज़ का प्रभाव केवल शरीर पर नहीं, जेब पर भी भारी पड़ता है। और जब बीमारी लगातार चलती रहती है - जैसे डायबिटीज़ में होता है - तो यह प्रभाव वर्षों तक चलता है, जिससे परिवार की आर्थिक स्थिरता खतरे में पड़ जाती है।
भारत में गैर-संचारी रोगों (NCDs) के इलाज की लागत को कम करना अब एक राष्ट्रीय प्राथमिकता बननी चाहिए। स्वास्थ्य बीमा, मुफ्त दवा वितरण, जागरूकता और प्राइवेट क्लिनिक पर निर्भरता को कम करना - यही दीर्घकालीन समाधान हैं।
क्या कहता है यह अध्ययन?
BMC Health Services Research में प्रकाशित Cost of type 2 diabetes mellitus management for households in Northern India – an econometric analysis शीर्षक वाला यह अध्ययन हरियाणा, उत्तर प्रदेश और पंजाब के चयनित ज़िलों में मधुमेह रोगियों और उनके परिवारों से किए गए सैकड़ों इंटरव्यू पर आधारित है। शोध में घरेलू स्तर पर डायबिटीज़ के इलाज, दवाइयों, जांच, डॉक्टर की फीस, अस्पतालों में भर्ती, और यात्रा व भोजन से जुड़े खर्च का विश्लेषण किया गया।
मुख्य निष्कर्ष:
एक औसत मधुमेह रोगी के इलाज पर प्रति वर्ष ₹15,000 से ₹25,000 तक खर्च होता है।
इन खर्चों का 70–80% हिस्सा जेब से भुगतान (Out-of-pocket expenditure) के रूप में आता है।
परिवार की सालाना आय का 8–12% हिस्सा केवल मधुमेह पर खर्च होता है - जो स्वास्थ्य नीति विशेषज्ञों के अनुसार "आर्थिक रूप से विनाशकारी व्यय" (Catastrophic Health Expenditure) माना जाता है।
Doctor check diabetes from finger blood sugar level with finger
शोध में यह पाया गया कि मधुमेह रोगियों को हर महीने दवाइयों पर ₹600–₹1,200 तक खर्च करना पड़ता है। इनमें से अधिकतर दवाएँ सरकारी अस्पतालों में उपलब्ध नहीं हैं, जिससे लोग निजी मेडिकल स्टोर पर निर्भर हो जाते हैं।
इसके अलावा, ब्लड शुगर जांच (HbA1c), यूरिन टेस्ट, लिपिड प्रोफाइल और अन्य नियमित जांचों का खर्च भी सालाना ₹3,000–₹6,000 तक पहुँच जाता है।
गरीब परिवार सबसे अधिक प्रभावित
अध्ययन से यह भी पता चला कि:
- निचली आर्थिक श्रेणी के परिवारों में डायबिटीज़ का इलाज अक्सर अधूरा रह जाता है, क्योंकि वे हर महीने इतनी राशि खर्च नहीं कर सकते।
- कुछ मामलों में लोग कर्ज लेकर इलाज करवा रहे हैं।
- गाँवों और छोटे कस्बों में सरकारी सुविधाओं की कमी के कारण लोग प्राइवेट क्लिनिक की ओर झुकते हैं, जो खर्च को और बढ़ा देता है।
यह चौंकाने वाला तथ्य सामने आया कि अध्ययन में शामिल अधिकतर मधुमेह रोगियों के पास कोई भी स्वास्थ्य बीमा योजना नहीं थी। जिनके पास बीमा था, उन्हें भी मधुमेह से जुड़े आउटडोर खर्चों (जैसे दवा, टेस्ट, डॉक्टर विज़िट) के लिए बीमा से कोई लाभ नहीं मिल रहा था।
सरकारी योजनाएं कहाँ चूक रहीं?
भारत सरकार की आयुष्मान भारत योजना और कई राज्य स्तरीय योजनाएं गंभीर बीमारियों के लिए बीमा कवरेज देती हैं। लेकिन डायबिटीज़ जैसी Non-communicable Diseases (NCDs) के लिए इन योजनाओं की पहुँच और प्रभाव दोनों बेहद सीमित हैं।
शोध में यह सिफ़ारिश की गई है कि:
- मधुमेह के इलाज को राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के अंतर्गत लाया जाए
- सरकारी अस्पतालों में मुफ्त और नियमित दवा आपूर्ति सुनिश्चित की जाए
- ग्रामीण क्षेत्रों में नियमित जागरूकता और स्क्रीनिंग कैंप आयोजित हों
- डायबिटीज़ मैनेजमेंट के लिए इकोनॉमिक सपोर्ट पैकेज तैयार किया जाए
इस अध्ययन ने स्पष्ट कर दिया है कि टाइप-2 डायबिटीज़ का प्रभाव केवल शरीर पर नहीं, जेब पर भी भारी पड़ता है। और जब बीमारी लगातार चलती रहती है - जैसे डायबिटीज़ में होता है - तो यह प्रभाव वर्षों तक चलता है, जिससे परिवार की आर्थिक स्थिरता खतरे में पड़ जाती है।
भारत में गैर-संचारी रोगों (NCDs) के इलाज की लागत को कम करना अब एक राष्ट्रीय प्राथमिकता बननी चाहिए। स्वास्थ्य बीमा, मुफ्त दवा वितरण, जागरूकता और प्राइवेट क्लिनिक पर निर्भरता को कम करना - यही दीर्घकालीन समाधान हैं।