तालाब, ताल, तलैया, पोखर, तारा, झील और न जाने कितने नामों से इन्हें जानते हैं हम; लेकिन शायद इनकी क्या अहमियत होती है नहीं जानते होंगे। जब भी जलवायु परिवर्तन की बात होती है, नदी, समुन्द्र, जंगल की बात होती है और वेटलैंड यानि आर्द्रभूमि की बात ही नहीं होती। लेकिन कुछ ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने इन्हें बचाने का जिम्मा उठा रखा है।
उत्तर प्रदेश में वेटलैंड्स संरक्षण को बढ़ावा देने के लिए राजधानी लखनऊ में वेटलैंड्स क्षेत्रीय मीडिया परामर्श कार्यक्रम का आयोजन हुआ। इस कार्यक्रम में वेटलैंड विशेषज्ञों की विचार-विमर्श, मीडिया संवाद और जागरूकता बढ़ाने पर बात हुई।
कार्यक्रम की शुरुआत सीएमएस की महानिदेशक, डॉ. वसंती राव ने की। उन्होंने मीडिया की भूमिका पर जोर देते हुए कहा कि वेटलैंड्स हमारे पर्यावरण के लिए बेहद जरूरी हैं और मीडिया इसकी जानकारी लोगों तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभा सकता है। उन्होंने कहा, “वेटलैंड्स को प्रकृति की किडनी कहा जाता है, क्योंकि ये जैव विविधता को बचाने और पानी की सुरक्षा में मदद करते हैं।”
जंगल को धरती का फेफड़ा कहा जाता है क्योंकि ये जंगल वातावरण में फैले कार्बन डाइऑक्साइड को ऑक्सीजन में बदलते हैं। इस आधार पर कहें तो वेटलैंड्स धरती के लिए गुर्दे का काम करते हैं। इनका एक काम होता है गंदे पानी को स्वच्छ पानी में तब्दील करना।
भारत में 15.98 मिलियन हेक्टेयर वेटलैंड्स, जो देश के कुल भूमि क्षेत्र का लगभग 4.8% हैं, पारिस्थितिक और आर्थिक सुरक्षा के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। यह वेटलैंड्स जैव विविधता, पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं और मूल्यों की दृष्टि से समृद्ध होने के बावजूद, सबसे तेजी से क्षय होने वाले पारिस्थितिकी तंत्रों में से एक हैं। वेटलैंड के बारे में जागरूक करने के लिए पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने Wetlands of India Portal की शुरुआत की है। इसमें कुल 7,57,040 वेटलैंड्स को शामिल किया गया है।
मीडिया परामर्श कार्यक्रम में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन विभाग, उत्तर प्रदेश सरकार के सचिव, आशीष तिवारी ने कहा, “उत्तर प्रदेश के पर्यावरण का भविष्य विकास और संरक्षण के बीच संतुलित दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। वेटलैंड्स जलवायु सहनशीलता की कुंजी हैं और मीडिया के साथ मिलकर हम नीति और जन जागरूकता के बीच की खाई को पाट सकते हैं।”
आगे बढ़ने से पहले हम थोड़ा वेटलैंड्स, यानी नमभूमि या आद्रभूमि को समझ लेते हैं। आसान भाषा में कहें तो जमीन का वह हिस्सा जहाँ पानी और भूमि का मिलन हो उसे वेटलैंड कहते हैं। सालभर या साल के कुछ महीने यहाँ पानी भरा रहता है।
रामसर कन्वेंशन के अनुसार, वेटलैंड्स को इस प्रकार परिभाषित किया गया है: ‘दलदली, फेन (शुष्क या दलदली भूमि), पीटलैंड या जलयुक्त क्षेत्र, चाहे वह प्राकृतिक हो या कृत्रिम, स्थायी हो या अस्थायी, जिसमें स्थिर या बहता हुआ पानी हो, चाहे वह मीठा, खारा या नमकीन हो। इसमें समुद्री जल वाले वे क्षेत्र भी शामिल हैं, जिनकी गहराई कम ज्वार के समय छह मीटर से अधिक नहीं होती।’ इसके अलावा, कन्वेंशन के अनुच्छेद 2.1 के तहत समेकित स्थलों की रक्षा के लिए यह भी प्रावधान है कि ‘वेटलैंड्स में उन तटीय और नदी के किनारे वाले क्षेत्रों को भी शामिल किया जा सकता है, जो वेटलैंड्स के निकट होते हैं, और ऐसे समुद्री जल क्षेत्र भी जो कम ज्वार के समय छह मीटर से अधिक गहरे होते हैं लेकिन वेटलैंड्स के अंदर होते हैं।’
वेटलैंड्स के समुद्री और तटीय प्रकार भी होते हैं, जैसे कि खुले तट, कोरल रीफ, मुहाने, ज्वारीय फ्लैट्स, मैन्ग्रोव और तटीय झीलें। इसी तरह, अंतर्देशीय वेटलैंड्स में स्थायी और मौसमी नदियाँ, अंतर्देशीय डेल्टा और बाढ़ वाले मैदान, स्थायी और मौसमी झीलें और तालाब, दलदल, मीठे पानी के दलदली क्षेत्र और पीटलैंड शामिल होते हैं। मानव निर्मित वेटलैंड्स जैसे कि जलाशय, बैराज और बाँध, मछली पालन के तालाब, खुदाई स्थल, सीवेज उपचार तालाब, सिंचाई नहरें, नाले, सिंचाई तालाब और धान के खेत भी इसका हिस्सा हैं। अक्सर ये विभिन्न वेटलैंड्स आपस में हाइड्रोलॉजिकल और पारिस्थितिक रूप से जुड़े होते हैं, और एक-दूसरे में मिलकर बड़े परिदृश्य का हिस्सा बनाते हैं। इसलिए, वेटलैंड्स को नदी घाटी या तटीय क्षेत्र का हिस्सा मानकर देखा जाना चाहिए।
भारत में इस समय 85 वेटलैंड्स को रामसर कंन्वेशन के द्वारा रामसर साइट के तौर पर मान्यता मिली हुई है। जोकि विश्व में सबसे अधिक है।
कार्यक्रम आगे बढ़ा जहाँ सीएमएस के तकनीकी विशेषज्ञ, डॉ. प्रणब जे. पातर ने वेटलैंड्स के महत्व पर अपनी बात रखी। इसके बाद, वेटलैंड्स इंटरनेशनल साउथ एशिया के निदेशक, डॉ. रितेश कुमार ने रामसर साइट्स और वेटलैंड्स से संबंधित नीतियों पर महत्वपूर्ण जानकारी साझा की। डॉ. कुमार ने वेटलैंड्स के पुनर्स्थापन में उत्तर प्रदेश के उत्कृष्ट प्रयासों की सराहना की, विशेष रूप से राज्य के राजस्व विभाग द्वारा वेटलैंड्स को भूमि रिकॉर्ड में शामिल करने में वन विभाग के सहयोग की प्रशंसा की।
एक प्रमुख आकर्षण मीडिया राउंड टेबल था, जिसका संचालन डॉ. वसंती राव ने किया। इसमें पत्रकारों, पर्यावरणविदों और शिक्षाविदों ने वेटलैंड्स से संबंधित मुद्दों पर मीडिया और नागरिक समाज के बीच की खाई को पाटने के लिए विचार साझा किए। नवभारत टाइम्स के रेजिडेंट एडिटर, सुधीर मिश्रा, बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर वेंकटेश दत्ता और गोरखपुर एनवायरनमेंटल एक्शन ग्रुप की डॉ. निवेदिता मणि जैसे प्रमुख वक्ताओं ने वेटलैंड्स संरक्षण पर मीडिया कवरेज को सुदृढ़ बनाने के लिए महत्वपूर्ण दृष्टिकोण प्रस्तुत किए।
प्रोफेसर वेंकटेश दत्ता ने लखनऊ की नदियों का ज़िक्र किया जो या तो नक्शे से गायब हो गईं हैं या नाले में बदल गईं हैं, गाँव कनेक्शन ने उन नदियों पर ग्राउन्ड रिपोर्ट भी की है।
यह कार्यक्रम सेंटर फॉर मीडिया द्वारा आयोजित किया गया है, जो ‘बायोडायवर्सिटी और जलवायु संरक्षण के लिए वेटलैंड्स प्रबंधन’ परियोजना का हिस्सा है। इस परियोजना को जर्मन सरकार और भारत के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की साझेदारी में जीआईजेड द्वारा लागू किया जा रहा है।