ग्रामीण भारत में कोविड-19 के बारे में जानकारी की कमी के चलते दूसरी लहर में चली गई लोगों की जान

जब भारत में कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर आई, तो रोजाना होने वाली मौतों की संख्या हजारों तक पहुंच गई थी। इसका खामियाजा ग्रामीण भारत को भी भुगतना पड़ा। ग्रामीणों और स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं दोनों के पास ही इस बीमारी के बारे में विश्वसनीय जानकारी नहीं थी। जिसने स्थिति को और भी बदतर बना दिया। उत्तर प्रदेश के ग्रामीण उन्नाव से गांव कनेक्शन की रिपोर्ट।

Aishwarya TripathiAishwarya Tripathi   28 Aug 2021 1:48 PM GMT

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ग्रामीण भारत में कोविड-19 के बारे में जानकारी की कमी के चलते दूसरी लहर में चली गई लोगों की जान

अर्चना मिश्रा अपने मृत पति गोपाल कृष्ण और अपनी बेटी की तस्वीर के साथ है। सभी फोटो: ऐश्वर्या त्रिपाठी

हाफिजाबाद (उन्नाव), उत्तर प्रदेश। गांव में दूसरे घरों की तरह उनके लकड़ी के दरवाजें भी खुले हुए थे। सामने के बरामदे में एक तरफ लाल रंग की प्लास्टिक की कुर्सियां रखीं थीं। बराबर में ही एक के ऊपर एक टेबल लगाकर रखी गई थी। धूल से भरा कपड़े का शामियाना लटका रहा था। यह उन्नाव के हाफिजाबाद में गोपाल कृष्ण मिश्रा का घर है।

मिश्रा की पत्नी अर्चना ने अपना सिर साड़ी के पल्लू से ढका हुआ था और लाल चूड़ियां पहनी रखी थीं। 40 वर्षीय विधवा गांव कनेक्शन से कहती हैं, "मैं अभी भी समझ नहीं पा रही हूं कि 22 से 26 अप्रैल के बीच चार दिनों में आखिर ऐसा क्या हुआ।" उसके चेहरे पर दुख साफ नजर आ रहा था।

अर्चना ने बताया, "उन्हें दो दिनों से खांसी और बुखार था। दस्त भी आ रही थी और सांस लेने में भी तकलीफ थी।" कहते हुए उनकी आंखें भर आईं, "उनका ऑक्सीजन का स्तर कम था, लेकिन उन्नाव जिला अस्पताल में उन्हें ऑक्सीजन नहीं मिल पा रही थी।" मिश्रा की 26 अप्रैल को घर पर ही मौत हो गई।

अर्चना मिश्रा ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उनके पति इतने गंभीर रूप से बीमार हैं।

अर्चना के अनुसार, उनके परिवार में किसी को नहीं पता था कि कोविड-19 फेफड़ों पर असर डालता है। वह कहती हैं, अगर पता होता तो अपने पति को बहुत पहले अस्पताल ले जाती। उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि उनके पति की तबीयत इतनी ज्यादा खराब है। वह आगे कहती हैं, वह 42 साल के थे और बस खांसी ही तो थी उन्हें।

मरने वालों के परिवार को इस बात का अंदाजा ही नहीं था कि कोविड-19 इतना भयानक भी हो सकता है। यह कोई एक मामला नहीं हैं। यह कहानी तो पूरे उन्नाव की है। महामारी की दूसरी लहर में अपने एक सदस्य को खोने वाले कई परिवारों ने बताया कि उन्हें वायरस के बारे में कोई जानकारी ही नहीं थी। वायरस के साथ-साथ , बीमारी के बारे में जानकारी की कमी के कारण भी ग्रामीण भारत में काफी लोगों की जान चली गई।

राजधानी दिल्ली में 'ऑक्सीजन आपातकाल' घोषित कर दिया गया था और शहरी आबादी देश भर में अस्पतालों में ऑक्सीजन और बिस्तरों की कमी को लेकर सोशल मीडिया पर मदद की अपील कर रही थी। ऐसे में भी देश का एक ग्रामीण हिस्सा जानकारी से अछूता था। महामारी के पूरे एक साल बाद भी उन्हें इस बीमारी के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी। गांवों के लोगों को यह समझ में नहीं आ रहा था कि खांसी, जुकाम और बुखार जैसी आम बीमारी किसी की जान कैसे ले सकती है।

यहां तक ​​​​कि मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (आशा) जैसे फ्रंटलाईन स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को भी कोविड-19 से होने वाली आपात स्थितियों के बारे में ठीक से जानकारी नहीं थी औऱ न ही इसके लिए उन्हें ढंग से ट्रेनिंग दी गई थी।

हफीजाबाद गांव के नवनिर्वाचित ग्राम प्रधान आशुतोष बाजपेयी ने बताया, "आशा बहू को न तो ऑक्सीमीटर (खून में ऑक्सीजन के स्तर को नापने के लिए पल्स ऑक्सीमीटर का इस्तेमाल किया जाता है) के बारे में पता था और न ही वह इसका इस्तेमाल करना जानती थी। जब प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के डॉक्टर ऑक्सीजन के स्तर को नहीं नाप रहे थे, तो भला वो कैसे कर सकती थी। " 30 वर्षीय ग्राम प्रधान गांव कनेक्शन को बताते हैं, " दूसरी लहर के दौरान गांव के तकरीबन अस्सी फीसदी घर बुखार की चपेट में थे।"

तेजी से आई दूसरी लहर

लगभग 1500 की आबादी वाले गांव हाफिजाबाद गांव में एकमात्र आशा बहू हैं। 2006 से आशा शर्मा एक कार्यकर्ता के रुप में काम कर रही हैं। उन्होंने गांव कनेक्शन को बताया कि उस पर काम का बोझ काफी बढ़ गया था। महामारी की दूसरी लहर से निपटने के लिए उसके पास न तो पर्याप्त मास्क थे और न ही उन्हें इसके लिए कोई विशेष प्रशिक्षण दिया गया।

अपने घर के बाहर बैठी हाफिजाबाद की आशा बहू, आशा शर्मा।

उनकी तरह, एक लाख से अधिक आशा कार्यकर्ता हैं जो गांवों में पैदल घूम कर काम कर रही हैं। ये देश की ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा प्रणाली की रीढ़ हैं। लेकिन जिस तेजी से कोरोनोवायरस फैला और उसने गांवों में लोगों की जान ली, उसके लिए ये कार्यकर्ता पूरी तरह से तैयार नहीं थीं। उन्होंने अपनी जान जोखिम में डालकर गांवों में सरकारी कार्यक्रमों का निरीक्षण किया और कोरोनावायरस के बारे में जागरूकता फैलाई। गांव वालों को टीकाकरण के लिए आगे आने के लिए भी प्रोत्साहित किया।

एक ऑक्सीमीटर और एक कॉन्टैक्टलेस थर्मामीटर वाले बॉक्स की ओर इशारा करते हुए, आशा शर्मा ने कहा, " दूसरी लहर की पीक के बाद जून के पहले सप्ताह में हमें ये मिला था।" उसने कहा कि ऑक्सीमीटर और थर्मामीटर कैसे काम करता है इसके लिए हमें कोई ट्रेनिंग नहीं दी गई। उनकी नजर में ये काफी मुश्किल है।

उन्नाव के सिकंदरपुर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) के स्वास्थ्य शिक्षा अधिकारी उपेंद्र सिंह चौहान ने गांव कनेक्शन को बताया, "जब उन्होंने पहले कभी इसका इस्तेमाल किया ही नहीं है तो उन्हें कैसे पता चलेगा कि ऑक्सीमीटर कैसे काम करता है या इसे कैसे इसे इस्तेमाल करते हैं? उनके पास बुनियादी प्रशिक्षण तो है, लेकिन नए गैजेट्स को जानने समझने और इस्तेमाल करने में समय लगता है।"

स्वास्थ्य शिक्षा अधिकारी उपेंद्र सिंह चौहान, सिकंदरपुर सरोसी पीएचसी।

चौहान 193 आशा कार्यकर्ताओं के हैड हैं। उन्होंने माना कि कोविड-19 संक्रमण के इलाज के लिए ऑक्सीजन की जरुरत के बारे में आशा कार्यकर्ताओं को सीमित जानकारी थी। उन्होंने यह भी कहा कि पूरे एक ब्लाक के लिए एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र है। और हर पीएचसी में कुल छह ऑक्सीमीटर थे और ये स्पेशल फील्ड विजिट के लिए रिजर्व रखे गए थे।

हालांकि, उन्नाव के जिला टीकाकरण अधिकारी नरेंद्र सिंह ने उन दावों को खारिज कर दिया कि प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में पर्याप्त पल्स ऑक्सीमीटर नहीं थे। सिंह ने गांव कनेक्शन को बताया, "हर गांव को ऑक्सीमीटर मुहैया कराया गया था और आशा कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण और उपकरणों की कमी को दोष नहीं देना चाहिए।"

झोला छाप डाक्टरों पर निर्भर

दूसरी लहर के दौरान इस बीमारी के बारे में जानकारी की कमी तो थी ही साथ ही सरकारी अस्पतालों पर लोगों का अविश्वास और डर भी था। ग्रामीण निवासियों ने इसकी बजाय स्थानीय झोला छाप (ग्रामीण चिकित्सक) 'डॉक्टरों' पर विश्वास किया। शिक्षित दुनिया इन्हें झोलाछाप मानती है लेकिन ये 'डॉक्टर' फिर भी सालों से ग्रामीण जीवन का हिस्सा बने हुए हैं।

ग्राम प्रधान बाजपेयी गांव कनेक्शन से कहते हैं " गांव के वो डॉक्टर जिन्हें हम बड़े ही अपमानजनक लहजें में झोला छाप कहते है, 80 प्रतिशत संक्रमित गांववालों को उन्होंने ही ठीक किया है। लोग इनके क्लिनिक पर घंटों लाइन में खड़े रहे क्योंकि कोई भी सरकारी अस्पताल जाने को जोखिम नहीं उठाना चाहता था।"

जब 60 वर्षीय शशि राम तिवारी के भतीजे शिव शुक्ला ने " सांस फूलने" की शिकायत की, तो उन्हें झोला छाप 'डॉक्टर' रज्जाक के पास ले जाया गया। तिवारी कहते हैं , जहां तक ​​​​उन्हें याद है काफी लंबे समय से वह ही परिवार का इलाज करते आ रहे हैं।

शशि राम तिवारी ने अपने गांव के झोलाछाप डॉक्टरों पर भरोसा जताया है।

स्वास्थ्य शिक्षा अधिकारी चौहान ने गांव कनेक्शन को बताया, "गांव वालों के लिए दिन के किसी भी समय झोला छाप उपलब्ध हैं। अगर रविवार को कोई बीमार पड़ जाए तो वह कहां जाएगा? पीएचसी तो बंद रहता है। " चौहान ने जोर देते हुए कहा, " आज भी हम (सरकार) एक ऐसा हेल्थकेयर सिस्टम नहीं बना पाए हैं जो लोगों को आसानी से उपलब्ध हो। अगर इन झोला छाप डाक्टरों से निजात पानी है तो हमें पहले जमीनी स्तर पर स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत करना होगा।" उन्होंने बताया कि हर गांव में जहां दो से तीन झोला छाप मिल जाएंगे, वहां केवल एक सरकारी अस्पताल है। वो भी गांव से 20 किलोमीटर दूर है।

डर और अफवाहों का कारण

सरकारी अस्पतालों और डिसपेंसरी में इलाज न कराने का एक मुख्य कारण लोगों के मन में बसा डर था। उन्हें लगता था कि अगर वो सरकारी अस्पताल गए तो उन्हें क्वारंटाइन किया जा सकता है और फिर उन्हें परिवार से मिलने नहीं दिया जाएगा। वे ऐसे कई मामलों के बारे में जानते थे जहां परिवार को दाह संस्कार के लिए शव भी नहीं दिया गया था। पहली लहर के दौरान कैसे गांव लौट रहे प्रवासियों को जबरदस्ती अपरिचित जगहों पर क्वारंटाइन किया गया था, उसे वे भूले नहीं थे।

61 वर्षीय मोहम्मद एहसान ने कांपती हुई आवाज में बताया, "उन्हें मोमिया (पीपीई सूट) में लपेटा गया था, और हमारी मर्जी के खिलाफ उन्हें ले जाया गया था।" परिवार से अलग होने के इस डर के कारण बहुत से लोगों ने अपने कोविड-19 के लक्षणों को प्रशासन और आशा बहुओं से छिपा लिया था।

एक बीमार व्यक्ति से खुद को दूर करने का विचार गाँव के अधिकांश निवासियों को असंवेदनशील लग रहा था।

हाफिजाबाद में सोनकर परिवार के जब दस लोगों को जूड़ी-बुखार (कंपकंपी के साथ बुखार) चढ़ा, तब भी वे अस्पताल नहीं गए। इसके बजाय, उन्होंने दो स्थानीय डॉक्टरों से अपना इलाज कराया "जिनकी दवाएं काम करती थीं"।

गांव भर में अफवाहे फैली हुई थीं। लोगों का मानना ​​​​था कि कोविड के टीके लगने से वे मर भी सकते हैं। दरअसल, गोपाल कृष्ण मिश्रा और उनकी मां शशि मिश्रा दोनों को टीका लगाया हुआ था। अपने बेटे की मौत के दो दिन बाद, 70 वर्षीय शशि का भी निधन हो गया। इससे गांव वालों में टीके को लेकर डर और बढ़ गया।

महामारी की दूसरी लहर में गांवों में काफी लोग इस बीमारी से मारे गए। लेकिन गांवों में मृत्यु अभी भी एक सामाजिक घटना बनी हुई है। किसी की मौत के बाद आत्मा को अंतिम सम्मान देने के लिए वे सभी एक जगह इक्ट्ठा हो जाते हैं। एक बीमार व्यक्ति से खुद को दूर करने का विचार गांव के अधिकांश लोगों को असंवेदनशील लग रहा था। ग्रामीण समुदाय आपस में मजबूती से जुड़ा हुआ है जो अच्छे-बुरे वक्त का साथ (अच्छे या बुरे समय में एक-दूसरे के लिए होना) में विश्वास करता है।

ऐश्वर्या त्रिपाठी, उत्तर प्रदेश के उन्नाव में एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह स्टोरी नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया फेलोशिप फॉर इंडिपेंडेंट जर्नलिस्ट्स के तहत रिपोर्ट की गई थी।

इस सीरीज का दूसरा हिस्सा नये पन से भरे संचार माध्यमों के इर्द-गिर्द घूमता है जिसका मकसद ग्रामीण समुदाय के बीच विश्वास को बढ़ाना है जो अपने समकक्ष शहरियों से काफी अलग सोचते हैं।

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नुवाद : संघप्रिया मौर्या


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