लेह लद्दाख में बांस के जरिए हरियाली और स्थानीय रोजगार लाने की कोशिश

गाँव कनेक्शन | Aug 19, 2021, 14:27 IST
प्रोजेक्ट बोल्ड (bamboo Oasis on Lands in Drought) के तहत लेह में बांस के पौधे लगाए जा रहे हैं। लेह-लद्दाख के मठों में बड़े पैमाने पर अगरबत्तियों का इस्तेमाल होता है, जो अभी तक दूसरे राज्यों से आती हैं। बांस के पौधों के प्रयोग के सफल होने पर इनका निर्माण स्थानीय स्तर पर किया जाएगा।
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नई दिल्ली। लेह लद्दाख की बंजर जमीन पर बांस के जरिए हरियाली लाने, स्थानीय स्तर पर अगरबत्ती और फर्नीचर निर्माण को बढ़ावा देने के लिए बांस के पौधे लागने का काम शुरु किया गया है। लेह-लद्दाख के हिमालयी बंजर इलाकों को हरित क्षेत्र में विकसित करने के लिए खादी और ग्रामोद्योग आयोग ने प्रोजेक्ट बोल्ट के तहत बांस के पौधे लगाने शुरु किए हैं।

केवीआईसी और लेह-लद्दाख के वन विभाग ने आईटीबीपी (भारत-तिब्बत सीमा पुलिस) के सहयोग से लेह के चुचोट गांव में 2.50 लाख वर्ग फुट से अधिक बंजर वन भूमि में बांस के 1,000 पौधे लगाए गए। यह भूमि अब तक बेकार पड़ी थी।

केवीआईसी के अध्यक्ष विनय कुमार सक्सेना ने कहा, "लेह में भूमि का एक विशाल क्षेत्र सैकड़ों वर्षों से अनुपयोगी पड़ा है। नतीजतन, इस क्षेत्र की काली मिट्टी भी इनमें से अधिकांश स्थानों पर चट्टानों में बदल गई। इसकी वजह से बांस के रोपण के लिए गड्ढों की खुदाई अत्यंत चुनौतीपूर्ण कार्य थी। गड्ढों को खोदते समय, इन कठोर गांठों को तोड़ा गया और गड्ढों में भर दिया गया ताकि बांस की जड़ों को बढ़ने के लिए एक नरम भूमि मिल सके।"

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लेह में बांस के पौधे रोपित करते आईटीबीपी के जवान। फोटो साभार खादी बांस से अगरबत्ती और फर्नीचर निर्माण का तैयार किया जाएगा स्थानीय मॉडल

सूक्ष्‍म, लघु एवं मध्‍यम उद्यम मंत्रालय के अधीन खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग के बयान के मुताबिक लेह में बांस के पौधों का यह खंड स्थानीय ग्रामीण और बांस आधारित उद्योगों की मदद करके विकास का एक स्थायी मॉडल तैयार करेगा। यहां मठों में बड़ी मात्रा में अगरबत्ती का इस्तेमाल किया जाता है जो बड़े पैमाने पर अन्य राज्यों से लाए जाते हैं। इन बांस के पेड़ों का उपयोग लेह में स्थानीय अगरबत्ती उद्योग के विकास के लिए किया जा सकता है।

इसके साथ ही अन्य बांस आधारित उद्योगों जैसे फर्नीचर, हस्तशिल्प, संगीत वाद्ययंत्र और पेपर पल्प की मदद करेगा और इससे स्थानीय लोगों के लिए स्थायी रोजगार पैदा होगा। बांस के अपशिष्ट का उपयोग चारकोल और ईंधन ब्रिकेट बनाने में किया जा सकता है जिससे लेह में कठोर सर्दियों के दौरान ईंधन की उपलब्धता सुनिश्चित होगी। इसके अलावा, बांस अन्य पौधों की तुलना में 30% अधिक ऑक्सीजन का उत्सर्जन करता है जो ऊंचाई वाले क्षेत्रों में एक अतिरिक्त लाभ है जहां हमेशा ऑक्सीजन की कमी होती है।

केवीआईसी अध्यक्ष के मुताबिक लेह में बांस के रोपण के लिए मानसून का मौसम इसलिए चुना ताकि बांस के पौधों की जड़े समय रहते विकसित हो जाएं और आने वाले महीनों में बर्फबारी तथा सर्द हवा से बच सकें। उन्होंने कहा, "इनमें से अगर 50 से 60 प्रतिशत बांस के पौधे भी बच गए तो केवीआईसी अगले साल लेह-लद्दाख क्षेत्र में बड़े पैमाने पर बांस का रोपण करेगा।"

बढ़ते जलवायु संकट, कम होते पेड़-पौधों, फर्नीचर के लिए लकड़ी आदि की जरुरत, बांस के रेसेदार तने के गुणों को देखते हुए देश में पिछले कुछ वर्षों में बांस की खेती को प्रोत्साहित किया जा रहा है। जनवरी 2018 में केंद्र सरकार ने बांस को पेड़ की कैटेगरी से हटा दिया। (ऐसा सिर्फ निजी जमीन के लिए किया गया है। जो फारेस्ट की जमीन पर बांस हैं उन पर यह छूट नहीं है। वहां पर वन कानून लागू होगा।) केंद्र सरकार राष्ट्रीय बांस मिशन के तहत बांस को खेती को बढ़ावा दे रही है, किसानों को प्रोत्साहित करने के लिए 50 फीसदी तक सब्सिडी भी मिलती है। नार्थ-ईस्ट के राज्यों में यह सब्सिडी और अधिक है।

बांस की खूबियां गिनते रह जाएंगे

भारत में बांस को हरा सोना भी कहा जाता है क्योंकि यह एक टिकाऊ और बहुउपयोगी प्राकृतिक संसाधन और भारतीय संस्कृति का एक अहम हिस्सा है। लेकिन ज्यादातर लोगों को यह पता ही नहीं होगा कि बांस सिर्फ इमारती लकड़ी नहीं, बल्कि बल्कि एक औषधि और खाद्य भी है। बांस विश्व का सबसे जल्दी बढ़ने वाला घास-कुल का सबसे लंबा पौधा है जो कि ग्रामिनीई (पोएसी) परिवार का सदस्य है। बांस बम्बूसी परिवार से संबंधित है, जिसमें 115 से अधिक वंश और 1,400 प्रजातियां शामिल हैं। भारत में पाया जाने वाला बांस लगभग 12 मीटर की ऊंचाई तक बढ़ता है। इसकी लंबाई विभिन्न परिस्थितियों में अलग-अलग हो सकती है; कुछ की लंबाई सिर्फ 30 सेमी होती है तो कुछ की 40 मीटर तक भी हो सकती है।

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