कर्ज और बदहाली की जिंदगी जी रहे विंध्य क्षेत्र के तिहैया किसान

मध्य प्रदेश के विंध्य क्षेत्र में कई आदिवासी भूमिहीन किसानों के पास एक जबानी (मौखिक) करार है, जिसे तिहैया के रूप में जाना जाता है। ‘तिहैया’ किसानों को फसल का कुछ हिस्सा उन जमींदारों को देने के लिए बाध्य करता है, जो उन्हें जमीन पट्टे पर देते हैं। इसके तहत किसानों द्वारा उगाई जाने वाली उपज का दो-तिहाई हिस्सा जमीदारों को देना पड़ता है। तिहैया किसान अक्सर कर्ज के जाल में फंसे रहते हैं।

Anil TiwariAnil Tiwari   21 Aug 2021 12:31 PM GMT

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कर्ज और बदहाली की जिंदगी जी रहे विंध्य क्षेत्र के तिहैया किसान

 तिहैया गरीब, भूमिहीन किसान हैं जो स्थानीय जमींदारों के साथ मौखिक अनुबंध करते हैं। सभी तस्वीरें: अनिल तिवारी

सीधी (मध्यप्रदेश)। मध्य प्रदेश के सीधी जिले के सदला गांव के रहने वाले दधिराज कोल आदिवासी तिहैया किसान हैं। उन्हें अपने दो एकड़ (0.8 हेक्टेयर) के खेत में दिन-रात मेहनत करके उगाई गई फसल का सिर्फ एक तिहाई हिस्सा ही मिल पाता है।

44 वर्षीय आदिवासी किसान दधिराज गांव कनेक्शन को बताते हैं, "नवंबर से मार्च तक मैंने तीस खांडी (एक खांडी 60 किलो के बराबर) गेहूं की खेती की थी। इसमें से मुझे महाराज (जमींदार) को बीस खांडियां देनी पड़ीं और अपने लिए सिर्फ दस खांडी ही रख पाया। क्या करें? यही हमारी जिंदगी है, एक तिहैया किसान की जिंदगी!"

तिहैया शब्द का हिंदी में अर्थ है, एक तिहाई। तिहैया किसान गरीब, भूमिहीन किसान हैं जो स्थानीय जमींदारों के साथ मौखिक अनुबंध करते हैं। वे जमींदार से जमीन का एक टुकड़ा लेते हैं और वहां फसल उगाते हैं। इसमें से उन्हें केवल एक-तिहाई फसल अपने पास रखने या बेचने की अनुमति होती है। बाकी की फसल तिहैया अनुबंध के तहत उन्हें जमींदार के पास जमा करना पड़ता है।

दधिराज को अपने पसीने, खून और आंसूओं से उगाई गई उपज का सिर्फ एक तिहाई मिलता है।

यह जबानी करार अक्सर तिहैया किसानों को कर्ज के जाल में फंसा देता है। पीढ़ियों से ये भूमिहीन किसान कर्ज के जाल से बच नहीं पा रहे हैं। उदाहरण के लिए, दधिराज के पिता भी एक तिहैया किसान थे, जिन्होंने अपने महाराज के खेतों में जीवन भर कड़ी मेहनत की। दधिराज ने अपने बेटों के लिए कुछ बेहतर करने की कामना की थी, लेकिन वे भी अपनी अगली पीढ़ी के लिए अभी तक कुछ नहीं कर सके हैं।

वह कहते हैं, "मैं अपने दो बेटों को पढ़ाना चाहता था लेकिन अपने इस सपने को पूरा नहीं कर सका। वे अब गुजरात के सूरत में एक साड़ी मिल में काम करते हैं। वह खेद व्यक्त कर कहते हैं, "बड़े बाबू बनाना चाहा था उनको, लेकिन पढ़ा नहीं पाया।"

तिहैया ठेके की आड़ में हो रहा शोषण

किसानों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले संगठन 'रोको टोको ठोको' के सीधी जिले के कार्यकर्ता उमेश तिवारी ने गांव कनेक्शन को बताया, "सीधी एक पिछड़ा क्षेत्र है, जहां जमींदारों द्वारा कई किसानों का लगातार शोषण किया जाता है।"

"दधिराज का ही मामला ले लिजिए, दधिराज ने पिछले सीजन में 1,800 किलोग्राम से अधिक गेहूं की खेती की थी। तिहैया अनुबंध के तहत उन्हें महाराज को 1,200 किलो गेहूं देना था और केवल 600 किलो ही अपने पास रखना था। उस 600 किलो में से उन्होंने अपने परिवार के उपयोग के लिए 100 किलो रखा और बाकी को 19 रुपये प्रति किलो के हिसाब से बेच दिया," तिवारी कहते हैं।

दधिराज ने अपने घरेलू उपभोग के लिए अरहर की दाल की खेती भी की थी, जिसमें से कुछ उन्होंने अपने लिए रखा और बाकी को बेच दिया।

दधिराज अफसोस जताते हुए कहते हैं, "मैं और मेरी पत्नी दोनों ही खेतों में मेहनत करते हैं। दूसरे ख़र्चों को पूरा करने के बाद हम एक दिन में तीस रुपये से भी कम कमा पाते हैं। यहां तक कि निर्माण श्रमिक भी हमसे अधिक कमाते हैं।"

मौखिक अनुबंध अक्सर तिहैया किसानों को कर्ज के जाल में फंसा देता है, पीढ़ियों से ये भूमिहीन किसान कर्ज के जाल से नहीं बच पाते हैं।

दधिराज की पत्नी रामवती ने गांव कनेक्शन को बताया कि वह अपने पति की खेतों में मदद करने के अलावा मकान मालिक के घर में उनका घरेलू काम भी करती हैं।

सीधी जिले के कुबरी गांव के तैंतीस वर्षीय भैयालाल कोल एक अन्य आदिवासी तिहैया किसान हैं। उन्होंने गांव कनेक्शन को बताया, "मुझे आजीविका के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती है, तभी मैं खा सकता हूं। मेरे पास कोई पट्टा भूमि नहीं है और न ही मैं सरकार से किसी भी सहायता का हकदार हूं।"

सरकार से कोई समर्थन नहीं मिलने के कारण तिहैया किसानों को खेती में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इस वजह से वो डीएपी उर्वरक का उपयोग करने में सक्षम नहीं हो पाते हैं। ईंधन की बढ़ती कीमतों के कारण उच्च परिवहन लागत और खड़ी फसलों को नष्ट करने वाले आवारा मवेशी भी उन्हें नुकसान पहुंचाते हैं।

भैयालाल ने कहा, "मैं अपनी उपज कुबरी बाजार में एक स्थानीय बनिया को बेचता हूं। उपज को बाजार तक ले जाने में हमें बहुत खर्च आता है क्योंकि हमें ट्रैक्टर किराए पर लेना पड़ता है।"

दधिराज ने बताया कि उन्हें आवारा मवेशियों से फसल की रखवाली करने के लिए कई रात जागते हुए ही गुजारनी पड़ती हैं। उन्होंने कहा, "तिहैयाओं के लिए समय पर मंडी से डीएपी प्राप्त करना भी बहुत मुश्किल है। कालाबाजारी के कारण हमें इसके लिए अतिरिक्त पैसे देने पड़ते हैं।"

कर्ज का जाल

अधिकांश तिहैया किसान अपने दो वक्त के खाने के लिए संघर्ष करते हैं। उनके जमींदार ही उनके लिए आर्थिक मदद का एकमात्र सहारा होते हैं और अक्सर उन्हें उनसे पैसे उधार लेने के लिए मजबूर किया जाता है। जब वे इसे चुकाने में असमर्थ होते हैं, तो वे जमीदार के 'बंधुआ' मजदूर बन जाते हैं। ऋण के नियम और शर्तें जमींदारों द्वारा निर्धारित की जाती हैं और भूमिहीन किसानों और उनके परिवारों का शोषण किया जाता है।

दधिराज ने कहा, "जब मेरी पत्नी पिछले साल गंभीर रूप से बीमार पड़ी थी, तो मुझे उसे एक निजी अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा था। मैंने महाराज से 15000 रुपये उधार लिए थे, जो मुझे अभी चुकाने बाकी हैं। उस पर अभी भी मकान मालिक का 8,000 रुपये बकाया है। एकमात्र तसल्ली यही है कि मुझे उस उधार के पैसे पर कोई ब्याज नहीं देना है।"

हालांकि 63 साल के भैयालाल उतने भाग्यशाली नहीं हैं। इस साल की शुरुआत में उन्होंने अपनी बेटी की शादी के लिए अपने जमींदार से 50,000 रुपये उधार लिए थे। कुबरी गांव के भैयालाल ने गांव कनेक्शन को बताया, "मैंने शादी में करीब एक लाख रुपये खर्च किए थे। मेरा बेटा एक ड्राइवर है उसने मुझे पचास हजार रुपये का योगदान दिया था और बाकी मैंने अपने मालिक से आठ प्रतिशत ब्याज पर उधार लिया।"

भैयालाल 3.70 एकड़ (करीब 1.5 हेक्टेयर) जमीन पर तिहैया के तौर पर काम करते हैं, जहां वह जमींदार द्वारा पट्टे पर दी गई जमीन पर गेहूं, उड़द की दाल (काली मसूर) और अरहर की दाल उगाते हैं। वह बहुत चिंतित हैं क्योंकि अभी भी उन पर उधार राशि बाकी है।

कुबरी गांव के भैयालाल, वह 3.70 एकड़ जमीन पर तिहैया किसान के तौर पर काम करते हैं।

पट्टे की जमीन पर फसल उगाने के अलावा इन तिहैया किसानों और उनके परिवारों को बाड़ बनाने और मरम्मत करने, मवेशियों की देखभाल करने और जमींदार का ऋण चुकाने के लिए बहुत सारे अजीब काम करने के लिए मजबूर किया जाता है। भैयालाल ने कहा, "जब भी मैं अपना कर्ज चुका दूंगा, मैं ये छोड़ दूंगा। तब मैं एक निर्माण मजदूर के रूप में काम करूंगा।"

हालांकि, जमींदारों का दावा है कि यह भूमिहीन किसानों और जमींदारों के बीच एक सहजीवी संबंध है। कुबरी, सीधी के एक जमींदार ने नाम नहीं लिखने के शर्त पर गांव कनेक्शन को बताया, "हम इन किसानों को वित्तीय सहायता देते हैं, जब उन्हें इसकी सबसे अधिक आवश्यकता होती है। वे बैंक नहीं जा सकते हैं और आपात स्थितियों में हमसे उधार मांगते हैं।"

हालांकि उन्होंने स्वीकार किया कि कभी-कभी नकद भुगतान करने के एवज में ये किसान उनके घर के कई काम कर देते हैं। यह जमीदार 10 एकड़ जमीन का मालिक है।

अपंजीकृत और अस्वीकृत

सिधी जिले में तिहैया किसानों की कोई निश्चित संख्या नहीं है क्योंकि वे आमतौर पर कहीं भी पंजीकृत नहीं होते हैं। पट्टा किसानों के विपरीत तिहैया किसान जुबान और भरोसे पर काम करते हैं। यह उन्हें शोषण के प्रति और भी अधिक संवेदनशील बनाता है।

चूंकि इन किसानों के पास उनके नाम पर कोई जमीन नहीं है, इसलिए वे केंद्र सरकार की पीएम-किसान सम्मान निधि योजना का लाभ भी नहीं पा सकते हैं। इस निधि से सभी भूमिधारक किसानों को प्रति वर्ष 6,000 रुपये का भुगतान किया जाता है।

जब गांव कनेक्शन ने गोपद बनस, सिधी के तहसीलदार सौरभ मिश्रा से संपर्क किया तो उन्होंने कहा, "अधिकांश मामलों में तिहैया किसान पंजीकरण के लिए आवेदन नहीं करते हैं और परिणामस्वरूप, प्रशासन के लिए उनका शोषण रोकना मुश्किल हो जाता है।"

आगे स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा, "मैं सभी पटवारियों (ग्राम रजिस्ट्रार) को उप-मंडल मजिस्ट्रेट कार्यालयों में तिहैया किसानों को पंजीकृत करने के बारे में प्रचार करने की भी सलाह देता हूं।"

फसल खराब होने पर मुआवजा नहीं

तिहैयाओं का शोषण यहीं खत्म नहीं होता। अक्सर खराब मौसम जैसे भारी वर्षा या सूखे के कारण इनके फसलों का नुकसान होता है और वे अपने भूस्वामियों के पास उपज की आवश्यक मात्रा जमा करने में असमर्थ होते हैं। एक तरफ जहां जमींदारों को सरकारी निकायों या फसल बीमा एजेंसियों से अपनी खराब फसल का मुआवजा मिल जाता है, वहीं तिहैया किसानों को केवल नुकसान और कर्ज के साथ छोड़ दिया जाता है।

इस बात को तहसीलदार मिश्रा ने भी स्वीकार किया। उन्होंने कहा, "ऐसे बहुत से जमींदार हैं, जो फसल के नुकसान के मामले में मुआवजे को तिहैया किसानों के साथ साझा नहीं करते हैं। किसानों और जमींदारों को तिहैया अनुबंध करने के बाद सब डिविजनल मजिस्ट्रेट से एक हस्ताक्षरित सरकारी कागजात (अनुबंध) प्राप्त करना चाहिए, लेकिन ऐसा शायद ही कभी होता है।"

'रोको टोको ठोको' के कार्यकर्ता उमेश तिवारी ने कहा, "हमने भारी बारिश, सूखे या आवारा मवेशियों द्वारा फसलों को नुकसान होने पर जमींदारों से फसल मुआवजे की मांग के लिए कई बार विरोध प्रदर्शन आयोजित किए हैं।" हालांकि उन्होंने शिकायत की कि स्थानीय प्रशासन ने कभी कोई कार्रवाई नहीं की और भूमिहीन किसान अभी भी गरीब और दयनीय जीवन जी रहे हैं।

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