बात बात पर हुलस के हँस देने वाली कोसी की लड़की – शारदा सिन्हा

Anulata Raj Nair | Nov 05, 2024, 10:35 IST
बिहार में छठ पूजा हो या फिर किसी शादी का उत्सव, पद्मश्री शारदा सिन्हा के गीतों के बिना पूरा नहीं हो सकता है, एक छोटे से गाँव से निकलकर दुनिया भर में पहचान बनाने वाली शारदा_सिन्हा ने अपनी ज़िन्दगी के कई किस्से इस बातचीत में साझा किए हैं।
Sharda Sinha
अनुलता राज नायर : मैं कोई इंटरव्यूवर तो हूँ नहीं शारदा जी। नहीं जानती सवाल कैसे और किस क्रम में किए जाएँ। मैं तो बस आपके प्रेम में चली आई हूँ। यानी इसे मेरा लोभ मान लीजिए, आप जैसी गुणी शख्सियत को जानने का और सुनने का लोभ … जानती हूँ आगे ये बातचीत तो भटकेगी ही, सवाल जवाब के दायरे में अटकने वाली नहीं और आपका पल्लू थामे आपके पीछे पीछे मैं बा-खुशी चलती जाऊँगी पर शुरुआत तो सही जगह से ही करती हूँ। यानी पहला सवाल कम से कम वही हो जो एक कलाकार से, एक गायक से पूछा जाता रहा है। छठ के गीतों ने आपको उस पर्व का पर्याय बना दिया, संसार भर का प्यार दुलार, मान-सम्मान और यश मिल पर इस सफ़र की शुरुआत कब हुई? आपने गाना कब सीखना या गाना शुरू किया?

शारदा सिन्हा जी: मैंने गाना एकदम बचपन से शुरू किया। आप वैसे ये सवाल किसी भी गायक से पूछेंगी तो वो अक्सर यही कहेंगे कि उन्होंने बचपन से गाना शुरू किया पर मैं वास्तव में बहुत ही छोटी उम्र से गाने लगी थी। मैं किताबों में जब कविताएँ पढ़ती थी तो उसको गा गा के पढ़ती थी, और याद करती थी। पिताजी टोकते भी थे कि तुम कविताओं को गा के पढ़ती हो। तब नहीं समझी थी पर अब समझी, और बड़े भाई भी बताते हैं कि बाबूजी इतने दूरदर्शी थे, ऐसी पारखी नज़र थी उनकी कि जब उन्होंने देखा कि मैं इतनी छोटी उम्र से कविता को गेय बना के याद कर रही हूँ तो वो समझ गए कि मेरे भीतर शायद कोई गायिका है तो उन्होंने मुझे ‘सिखलवाना’ शुरू किया। याने रुचि जिस तरफ़ है उस तरफ़ बढ़ने देने की सोच उस ज़माने भी उनमें रही इसलिए वो आज तक हमारी प्रेरणा हैं। बाबूजी ने उस वक़्त हमें संगीत सिखाने तय किया। तब लड़कियों को पढ़ाना ही बड़ी बात थी, गाना सिखाना तो कोई सोचता भी नहीं था। तब बाबूजी ने ऐसा प्रबंध किया कि गुरुजी घर पर आकर सिखा सकें क्यूंकि उस वक्त लड़कियाँ बाहर जाकर नहीं सीख सकती थीं। बाबूजी, श्री शुभदेव ठाकुर, सरकारी नौकरी में थे, एजुकेशन डिपार्ट्मन्ट में। तब बिहार और झारखंड एक था। ये 1960 के आस-पास की बात है और तब का गाँव समझिए। उस समय हम बाहर पढ़ रहे थे तब छुट्टियों में बाबूजी गाँव ले आया करते थे ताकि हम देखें सीखें कि गाँव कैसा है। इसलिए गाँव से मेरा हमेशा नाता जुड़ा रहा। गर्मियों की छुट्टियों में याने आम के महीने में आँधियाँ देखना, टिकोलों का गिरना, ये सब देख के, खुद महसूस करके समझा, याने पढ़ा नहीं बल्कि व्यावहारिक ज्ञान लिया। तो वहीं से मेरी शुरुआत हुई। घर में सब भाई और हम मिल के भजन वगैरह गाते थे, तुलसीदास कबीर को तबसे खूब गया। और फिर बाद में गुरुओं से बाक़ायदा शिक्षा शुरू हुई। तब आठवीं कक्षा में रहे होंगे।

https://twitter.com/GaonConnection/status/1853634602314944705 रामचन्द्र झा जी थे, पञ्चगछिया घराना से, पंडित रघु झा जी थे, तो उन लोगों से घर पर ही संगीत की शिक्षा ली। दो-दो तीन तीन दिनों की सिटिंग लगती थी। उन दिनों ऐसा था कि गुरुओं की खूब सेवा खातिर होती थी। उनके खाने, पीने, सोने रहने सबका बहुत ही अच्छे से इंतेज़ाम किया जाता था। उस समय का जो गेस्ट रूम था वो बिल्कुल दरवाज़े पर होता था।

अनुलता: गुरुजी नियमित नहीं थे तो उनकी गैरहाजिरी असर नहीं करती थी?

शारदा जी: नहीं नहीं, गुरुजी होमवर्क या कहिए टास्क देकर जाते थे। तो उनके ना होने पर बाक़ायदा रोज़, नियम से रियाज़ करते थे। बाक़ी गाने, भजन, प्रार्थना तो चलती ही रहती थी। बाद में बड़े हुए तो और भी गुरुओं से सीखा जैसे- ग्वालियर घराने के सीताराम हरि डाँडेकर जी से, और श्रीमती पन्ना देवी जी से ठुमरी दादरा सीखा।

अनुलता: शारदा जी हमने इतनी देर बात की और माँ का ज़िक्र नहीं आया? कुछ बताइए ना उनके बारे में। और उनका नाम भी।

शारदा जी : (कुछ देर सोचते हुए) देखिए हमारा समाज पुरुष प्रधान तो रहा ही है और बाबूजी चूंकि इतना ज़्यादा खुले विचारों के थे। माँ को, जिनका नाम – सावित्री देवी है, उन्हें भीतर से लगता था कि लड़की को संगीत सिखा रहे तो लोग क्या कहेंगे। हलांकि ऐसा नहीं था कि वो रोक रहीं हों। मेरे मायके में ये रोकटोक बिल्कुल नहीं रही। शायद बाबूजी का इतना सपोर्ट था, घर में पढ़ाई लिखाई वाला माहौल रहा इसलिए कहीं कोई दिक्कत नहीं आई। माँ भी पढ़ी लिखी थीं, उस ज़माने में मिडल स्कूल की हेड मिस्ट्रेस रहीं, बाद में गृहस्थी सम्हालने को नौकरी छोड़ दी। ये 1938/39 की बात होगी। तो सारे भाइयों के साथ मिल कर हम गाते रहे जबकि गायकी की कोई प्रथा हमारे खानदान में नहीं रही। भाई कोई संगीत के क्षेत्र में आए नहीं जबकि उनकी आवाज़ बहुत अच्छी थी।

अनुलता : बचपन का कोई क़िस्सा बताइए, कोई खेत खलिहान, लोक से जुड़ा क़िस्सा।

शारदा जी : बचपन में बाबूजी हमको भाइयों के साथ खेत खलिहान भेज देते थे कि जाकर देखो कैसे जुताई, रोपाई हो रही, कटाई हो रही। बिना देखे कैसे जानोगे कि धान कैसे कटता है। वो कहते हैं ना कि कहानियाँ लिखना हो, किरदार समझने हों तो यात्राएं की जानी चाहिए, ये ठीक वैसा ही था। याने खुद अनुभव करना सिखाया बाबूजी ने। मेड़ों पर खड़े हम देखते रहते, मन ललकता कि हम भी काटें धान।

वैसे ही आँगन में चूड़ा कुटाता था तो ओखली होती है न? ओखल और समाठ, उसको हाथ में लेकर कूटने की कोशिश करते। माँ बहुत डांटती थीं कि हाथ में पड़ गया तो हाथ चला जाएगा। अनाज कूटने की ढेंकी चलते थे। ये सब समझिए लोक गीत का कंटेन्ट है।

अनुलता : सच है, धान काटने की मेहनत देखी तब ना ऐसे प्यारे श्रम गीत गाए- “दिन भर के थकन माँदल घर जब आइब, रूसल पिया के जियरवा रिझाईब”। आपने लोक देखा, या शायद ये कहना सही होगा कि आपने लोक जिया है। और बताइए ना कुछ, कोई और ऐसा मीठा क़िस्सा।

शारदा जी : श्याम के दिनों में हम वहां गए तो हमारी एक चचेरी बहन थी बड़ी, हम तो खैर परिवार में अकेली बेटी थे, इतने सालों बाद पैदा हुई। बड़े मांग चांग के पैदा हुए। माँ कहती हैं कि तुमको हमने कोसी से मांगा है, कोसी नदी है, तो उनसे मांगा गया कि बेटी हो। आप सोचिए बड़ी दिलचस्प बात है इतने सालों पहले भी मेरी मां ने बेटी मांगी थी। उन्हें बड़ा शौक था कि उन्हें बेटी हो वह उसकी चोटी-पाटी करें, उसे सजाएं। (ज़ोर से हंसते हुए)

मां कहती थी कि आंगन बेटी के बिना अच्छा नहीं लगता तो नदी से मांगने का तो रिवाज है ही ना तो गंगा नहीं कोसी नदी से मांगा। मानता की,कि बेटी हुई तो कोठी पाठी, और न जाने क्या क्या देंगे। गाँव में लोग ‘कोसी की बेटी’ कहते हैं।

कहते हैं कि माँ ने पूजा की और सबके कहने से अड़हुल का फूल आँचल में छान लिया, फिर कहा गया कि इसको रात में खा लेना, तो माँ ने खा लिया, तो देखा गया कि शी वाज़ प्रेग्नेंट! ये प्राकृतिक भी हो सकता है पर कहते हैं ना कुछ न कुछ तो बात होगी ही … और संजोग से बेटी हो गई। माँ बहुत खुश।
जानती हो अनुलता कि ये बात मैंने कहीं कही नहीं।

अनुलता : आपसे मिल के बात करके मुझे ऐसा अनुभव हो रहा है जैसे बरसों से जानती हूँ, जैसे माँ की गोद में सर रखे गाँव दुआरे की, ननिहाल की, खेल खलिहान की, गीत गानों की कहानी सुन रही हूँ। जैसे कोई माँ अपनी विरासत सौंप रही हो मुझे। आपके बेटे अंशुमान और बिटिया वंदना भी उतने ही प्यारे।
अच्छा अब आपने छुट्टियों में गाँव आने की बात की याने आप शहर रहती थीं?

शारदा जी : हाँ मैं पटना में रही, पहले क्लास छः में वनस्थली में दाखिला लिया पर वहाँ रह नहीं पाई, बहुत दूर था। फिर पटना में बाँकीपुर हाई स्कूल में पढ़ी, जो सरकारी स्कूल था पर बहुत अच्छा और सबसे खास बात कि वहाँ म्यूज़िक था। और इसी कारण कॉनवेंट या और किसी अँग्रेज़ीदाँ स्कूल कॉलेज मैंने नहीं चुने।

अनुलता : शारदा जी, आपकी बिंदास हँसी और आँखों की चमक देख के मुझे लग रहा है कि आप बचपन में शरारती रही होंगी? अपने गाँव हुलास की कुछ चटपटी बातों हमें भी सुना दीजिए।

शारदा जी (ज़ोर से हँसते हुए): बचपन में बाबूजी धान कटाई के समय खेत भेजते कि चोरी चारी ना हो, ज़रा नज़र रखना। तो हम और भाई वहाँ ऐसे बात करते कि किसी को समझ ना आए क्यूंकि मैथिली बोली तो सब जान जाएंगे। यहाँ बता दूँ कि हम बातचीत मैथिली में ही करते थे हालांकि गया मैंने सभी भाषाओं में है- मगही, बज्जिका, भोजपुरी
तो हमने अपनी भाषा ईजाद की और उल्टा करके बोलना गाना भी सीख लिया।
हम खेत की मेड़ों पर गाते – झेमु यानिदू लोंवा बिरास न झोंमस – अब ‘मुझे दुनिया वालों, शराबी न समझो’ गाते तो लोग नाम न धरते कि ठाकुर साब अपनी बेटी को कैसा संगीत सिखा रहे (हँसती हैं ज़ोर से)
ऐसे ही ग्वाली, याने जहां बैल गाय बांधते थे वहाँ हम बैलों के साथ जुगलबंदी करते थे। भूसाई नाम का बैल था, काली आँखों वाला, और एक था झनक सिंह, और ये नाम इसलिए कि उसको कहीं ले जाना हो तो पहले दौड़ाना पड़ता था, याने वॉमअप करना होता वरना उसको “झनक” लगती थी। तो ये दोनों बैल मेरा गाना सुनते और अपना गला खखार के अआssss करने लगते (ठहाका लगाते हुए गाने लगीं)
गाँव से, जानवरों से बड़ा लगाव रहा मेरा शुरू से। कितना बढ़िया था ना उस समय कि बाहर नौकरी करने को निकले अधिकतर लोग रिटायरमेन्ट के बाद गाँव चले जाते थे। घर तो वहीं होता था ना।

अनुलता : अब एक इंटरव्यू जैसा सवाल पूछती हूँ। ये बताइए कि वो पहला मौका, पहला अवसर कौन सा था जब आपने पब्लिक्ली गाना गाया। वो कहते हैं ना ब्रेक का मिलना? वैसा कुछ?

शारदा जी : उसके दो स्तर मानते हैं हम। एक तो प्रोफेशनल स्तर और एक स्कूली। जब हम स्कूल में थे तो हर 15 अगस्त को, 26 जनवरी को राजभवन में जाने की बात होती थी तब हम हमेशा जाते थे और सबसे आगे रहते थे। उसी क्रम में हमारे दूसरे राष्ट्रपति डॉ। राधाकृष्णन आए थे पटना, तो हमने उस समारोह में भी हिस्सा लिया था। मणिपुर नृत्य किया था हमने। बाक़ायदा सीखा था हमने और शौक भी बहुत था।
फिर गाँव का अनुभव है- जहां नाटकों के बीच में गाने के अवसर मिले। लेकिन एकदम प्रोफेशनली स्टेज पर गाने का अवसर 1974 में मिला। दरभंगा में दुर्गा पूजा के अवसर पर कार्यक्रम था। वो पहला लाइव शो था। उस समय मेरी शादी को चार साल ही हुए थे। पति का बहुत सहयोग रहा। तो उस वक्त हम हारमोनियम ट्रंक में लेकर जाते थे। लोगों की बातों, प्रतिक्रियाओं से थोड़ा डरते भी थे। उस समय हमने शर्त रखी थी कि हमारे गाने के बीच अगर कोई सीटी बजा देगा या कोई शोर करेगा तो हम उठ के चले जाएंगे। तब संचालक ने ऐसा न होने का वादा किया था। हालांकि अब ऐसा नहीं लगता। सीटी से भी अब भय नहीं लगता (मुसकुराते हुए)
तब हमने भजन और गीत गाए क्यूंकि हमने रेडियो से लाइट म्यूज़िक (सुगम संगीत) से ऑडिशन पास किया हुआ था जिसके तहत गीत, ग़ज़ल और भजन आते थे। आज तीनों विधाएं अलग कर दीं गईं हैं।
बहुत ही सच्चा जैसा था। हालांकि अब भी अच्छा है बहुत कुछ, काफ़ी बदल गया है …

अनुलता : आपको लोक गायिका के रूप में पहचान कब और कैसे मिली?

शारदा जी : सबसे पहले एच एम वी जो रेकॉर्डिग हुई वो संस्कार गीत था। 1971 में, तभी हमने फोक गाया। सच बोलें तो इतना कुछ समझता भी नहीं था तब। हमने तो वही गया जो रोजमर्रा में शामिल था। जैसे भैया की शादी में नेग मांगने जो गाया था, जब द्वार छेंकती हैं ना बहनें? कि शादी करके बहु को लेकर आया है तो गृहप्रवेश से पहले भैया नेग दे दो तब अंदर जाने देंगे – तो चाची मामी बोलीं, इकलौती बहन होने से क्या बिना मेहनत नेग पा जाओगी? गाओ तो मिलेगा। तो हमने उसी समय उन सबसे पूछ के जो गाया था वही पहली रिकॉर्डिंग हुई।
[फिर मेरे आग्रह पर शारदा जी ने गा के सुनाया]
द्वार के छेकाई नेगs पहिले चुक्कइयों दुलरवा भैया, तब जाइह कोहबर अपन, हो दुलरवा भैया

ग्रैमोफोन कंपनी एचएमवी ने टैलेंट हन्ट किया था। वो शहर शहर घूम रहे थे। पहले राउन्ड में डिसक्वालीफाय हुए तो बहुत दुख हुआ, सोचा अब क्या करना, बिगाड़ लेते हैं आवाज़, गला ही खराब कर लेते हैं। तब हमारे पति ने कहा दोबारा ट्राइ करेंगे, दोबारा मौका मांगा, और मौका मिला। हमने अबकी खूब अच्छे से गाना गया। फिर वहाँ मौजूद लोगों ने हमसे कहा, वहाँ भीतर जाकर मिल लीजिए। हम जानते नहीं थे किसी को। वहाँ चमचम बनारसी साड़ी पहने, पान खाते हुए, कोई बैठी थीं, हमें दिग्गज सी कोई लगीं। किसी ने पूछा पहचानती हैं? ये बेगम अख़्तर जी हैं। हम तो बस उनके रौब को देख पाये, पैर छू के प्रणाम किया तो वो बोलीं, ‘बेटे आवाज़ तो तुम्हारी अच्छी है, रियाज़ करोगी तो आगे जाओगी।‘ और हम ऑडिशन पास हुए और दो गाने एचएमवी में रिकार्ड हुए। जानती हो, वहाँ बेगम अख़्तर कोई ऑडिशन उनने नहीं आई थीं। वो तो संयोग था कि जब वो वहाँ थीं तो मेरा गाना हुआ, उन्होंने सुना और आशीर्वाद दिया। फिर हमने उनकी बहुत सी गज़लों को सीखा और गाया। एक एलबम भी निकला है – ‘किसी की याद’ जिसकी पहली ग़ज़ल है – मौसम है प्यारा प्यारा, कितना रंगीन नज़ारा।

[इंटरव्यू के बीच में ही हमने शारदा की गजलें सुनीं जो मुझे किसी और दुनिया में ले गईं।]

अनुलता : मुझे लगता है कि शारदा जी की ग़ज़लों को लोकगीतों ने ढाँक दिया। फ़िराक़ गोरखपुरी और गोपाल सिंह नेपाली को गाने के बाद भी शायद बहुत कम लोगों तक आपकी ग़ज़लें पहुंची। और शायद इस वजह से ये मलाल रहा क्या कि आपके चाहने वाले बिहार, यूपी तक सिमटे?

शारदा जी : मलाल तो नहीं पर ये सच ज़रूर है। अब कहीं ग़ज़ल गाना भी चाहूँ तो लोग लोकगीतों की फ़रमाइश करने लगते हैं। फोक के कई अल्बम आए और सभी खूब हिट हुए। खूब प्यार मिला लोगों का।
एक बड़ी दिलचस्प बात बताती हूँ, कि एक अल्बम आया, दुलरवा भैया, तब विनायल रिकार्ड हुए करते थे। अब समस्या थी कि सुनूँ कैसे? प्लेयर था नहीं। तो हम अपने पति को कहते कि जाकर चौक पर बजवाइए। और फिर लाउड स्पीकर पर बजते उस गीत को हम अपने घर की बैल्कनी में सुनते थे। फिर बाद में एचएमवी की रॉयल्टी आई तब जाकर प्लेयर खरीदा। इसी से याद आया कि पहली रिकॉर्डिंग की रॉयल्टी 73 या 74 रुपए आई थी। बाँछे खिल गईं थीं… रे बाबा! हम इतने खुश, और 26 रुपए की लखनवी चिकन की साड़ी खरीद लिए थे। साड़ी का अब भी बहुत शौक़ है। बड़ी सी लाल बिंदी और बढ़िया साड़ी …

अनुलता : शारदा जी आपने कितने ही गीत गाए, न जाने कितने अल्बम निकले, कुछ नाम लीजिए ना जो आपको खास लगते हों।

शारदा: मैथिली कोकिल विद्यापति जी को समर्पित अल्बम का ज़िक्र करना चाहूँगी – श्रद्धांजलि ‘अ ट्रिब्यूट टू मैथिल कोकिल विद्यापति’। ये अल्बम उस समय मैथिली के पहले पहले अल्बमों में था और विदेशों तक प्रसिद्ध हुआ – कनक भूधर शिखर वासिनी
ये एल्बम एचएमवी से आया था, इसके उद्घाटन में गवर्नर हाउस से आर्मी का बैंड आया था। इसमें पंडित नरेंद्र शर्मा जी की कॉमेंटरी थी, सूत्रधार विजय चौधरी और उस्ताद निजामुद्दीन खां साब का तबला। हिन्दी कॉमेंटरी की वजह से ये ज़्यादा लोगों तक पहुंचा, शायद अँग्रेज़ी में भी होती तो और अच्छा रहता। भिखारी ठाकुर जी के बिदेसिया का भी नाम लूँगी।

अनुलता : कितनी सुखद बात है ना कि आपने अपना संगीत बच्चों को भी दिया। वंदना भारद्वाज आपकी बिटिया ने आपके साथ भारत भवन भोपाल में गाया। पुत्र अंशुमान भी लगातार संगीत से जुड़े हैं। मैं यहाँ पाठकों को बताना चाहूँगी कि शारदा जी की बेटी वंदना ने उनकी गोद में, उनके सीने से लग कर सोते हुए, माँ का दूध पीते हुए संगीत अपने भीतर उतारा। माँ के लंबे लंबे रियाज़ शायद गर्भ से ही उनके भीतर भी उतर गए, तभी इतनी शुद्धता है उनकी आवाज़ में।
अब आखिरी सवाल, जो भीगे हुए, तीज त्योहारों वाले मौसम से जुड़ा है। कुछ कजरी, झूला की बात हो जाए।

शारदा जी : कजरी देखा जाये तो लोक गीतों का एक आधार कहा जा सकता है। एक बड़ा सेक्शन है कजरी। कजरी, चौमासा, बारामासा, झूला इन चीज़ों का लोक गीतों में बहुत महत्त्व है।
“सावन के आई महीनवा हो सखी गावा कजरिया।“ ये सुंदर छोटी सी कजरी है।
वैसे ही जब जब मेघ, बिजली चमकती है, कड़कती है, जब मेघ बरसना शुरू होता है तब नायिका को बहुत ज़्यादा अपने प्रीतम की याद आती है। वो विलाप करती है, खोजती है, याद करती है, मेरा पति, परदेस है वो आया नहीं। इससे जुड़ा गीत है -
सखी रे, शाम नहीं घर आए, बदरा घिर घिर आए न।
ऐसे ही इस तरह से महाकवि विद्यापति की लिखी जो रचना है, उसमें मैंने गाया।
आली रे प्रीतम बड़ निर्मोहिया।“ पावस की जहाँ तक बात है वो, पावस जिसको मल्हार कहते हैं
मुझे याद है कि काशी विद्यापीठ में जब कार्यक्रम हो रहा था। मैंने गाना शुरू किया और अचानक से, वो बारिश का ही दिन था, अगस्त का महिना था।
भादों रहन अंधियारी बदरिया छाई रे रामा। “ ये कजरी मैं गा रही थी।

जैस ही “मोरे राजा केवड़िया खोल रस की बूंदें पड़ी।“ ये गाया, बारिश की बूंदें पड़ना शुरू हो गई। तो एकदम से आडियन्स सब इधर उधर हटे, और कुर्सियों को सर पर लेकर सब खड़े हो गए। वो गए नहीं, इतनी बारिश में भी सुनते रहे, और उसका लुत्फ़ उठाते रहे। मैं वो ज़िंदगी भर भूल नहीं सकती ।

अनुलता: बारिश, बूंदें, खेत खलिहान उत्सव … कितना रंग और सुर से भर देते हैं ना जीवन को। सुख दुख, मिलन-विछोह, प्रेम- तकरार, हर अवसर, हर रिश्ते, हर भाव के तो हैं लोक गीत। हम आपसे विदा लें उसके पहले कुछ और गीत बताइए ना।
शारदा जी : (गाते हुए) कैसे खेले जाइबु सावन में कजरिया। बदरिया घिर आई ननदी
देखिये यहाँ पे नोक-झोक प्रीतम वाला न रहकर ननद के साथ हो रहा है।
तू तौ जात हओ अकेली
कोई संग न सहेली
गुंडे रोकीली है तोहरी डगरिया
अब सावन में कजरी तो सब गाते हैं लेकिन भादो के भी खास गाने हैं,… (गुनगुनाते हुए) “अरे रामा भादो रैन अंधियारी बदरिया छाई छाई रे रामा।“
ऐसे ही झूला गीत हैं - जन्माष्टमी में खूब गाया जाता है …
झूला लागे कदंब की डारी
झूले कृष्ण मुरारी न
झूला लागे कदंब की डारी

अनुलता : अहा! आनंदित हूँ … कानों में भौरें गुंजन कर रहे, मन ऊंची पींगें भरने लगा है …

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