हिम्मत की स्टिक, उम्मीदों का गोल: हॉकी वाली सरपंच की कहानी
Gaon Connection | Nov 22, 2025, 16:11 IST
राजस्थान–हरियाणा बॉर्डर के एक छोटे-से गाँव में एक सरपंच ने हॉकी स्टिक उठाई और पूरी पीढ़ी की ज़िंदगी बदल दी। नीरू यादव-हॉकी वाली सरपंच ने उन लड़कियों के सपनों को नई उड़ान दी, जो कभी घर की चारदीवारी में कैद थीं। बिना ग्राउंड, बिना किट और बिना सपोर्ट के शुरू हुआ यह सफ़र आज हज़ारों बेटियों को हिम्मत, उम्मीद और ड्रिबलिंग की असली शक्ति सिखा रहा है।
क्या आप जानते हैं ड्रिबलिंग क्या होती है? गेंद को अपने कंट्रोल में रखते हुए आगे बढ़ना… विरोधियों को चकमा देना… और आखिर में गोल पोस्ट तक पहुँच जाना।
खिलाड़ियों के लिए यह एक तकनीक है, पर असल में यही तो ज़िंदगी है। ज़िंदगी भी तो हमें एक गेंद देती है-उम्मीदों की गेंद। इसे दाएं-बाएं संभालकर ले जाना होता है, मुश्किलों से बचाना होता है, और उन सपनों के गोल तक पहुँचाना होता है जिनके लिए हम हर सुबह उठते हैं।
राजस्थान और हरियाणा की सीमा पर झुंझनू ज़िले में बसे एक साधारण से दिखने वाले गाँव लांबी अहीर में, यही सीख हर दिन दोहराई जा रही है- हॉकी के मैदान में भी और ज़िंदगी के मैदान में भी। और इसका श्रेय जाता है एक ऐसी महिला को, जो सिर्फ सरपंच नहीं, बल्कि गाँव की लाखों उम्मीदों की कप्तान है- नीरू यादव, जिन्हें लोग प्यार से कहते हैं हॉकी वाली सरपंच।
एक स्टिक जिसने पूरे गाँव की दिशा बदल दी
कहानी की शुरुआत उस दिन हुई जब नीरू यादव को पता चला कि गाँव की कुछ लड़कियाँ स्कूल में हॉकी खेलती थीं, लेकिन स्कूल खत्म होते ही खेल भी खत्म हो गया था।
न हॉकी, न किट, न ग्राउंड… और सबसे बड़ी बात, न परिवार का भरोसा।
नीरू यादव गाँव कनेक्शन से कहती हैं, “जब ये पता लगा कि मेरी पंचायत में कुछ लड़कियाँ जो स्कूल टाइम में, स्कूल के अंदर जो हॉकी खेली हुई हैं, लेकिन वो घर बैठ गईं क्योंकि उनके पास सुविधाएं नहीं हैं। तब मैंने उन लड़कियों से मिला तो मैंने उनसे पूछा ये कि भई आपके पास क्या… तो उन्होंने यही कहा कि ना तो हमारे पास कोई सुविधा है, ना ही फैमिली सपोर्ट करती है। सबसे बड़ी बात तो ये है कि गाँव के अंदर स्कूल में तो फिर भी आप जब तक स्कूल टाइम में, स्कूल में हो, आप खेल लेते हो, उसके बाद घर जाते ही फिर वो ग्राउंड पे खेलने के लिए आपको कोई नहीं भेजता है।”
यह सिर्फ एक खेल की बात नहीं थी। यह उन अनकहे सपनों की बात थी जो हर ग्रामीण लड़की अपने भीतर दबाकर रखती है।
घर-घर जाकर समझाया, आँसू भी देखे और विरोध भी
नीरू ने बिना समय गंवाए लड़कियों को बुलाया, उनकी बातें सुनीं, फिर सीधे उनके घरों पर पहुँचीं। शुरुआत में किसी ने दरवाज़ा तक नहीं खोला। किसी ने कहा- “लड़कियाँ बाहर खेलेंगी?”, “लोग क्या कहेंगे?”, “घर का काम कौन करेगा?”
नीरू आगे बताती हैं, "तब मैं वो चीज़ को लेकर के चली और उन लड़कियों को मैंने इकट्ठा किया, उनकी फैमिली से बातें की। शुरुआत में तो फैमिली ने मना कर दिया था। फैमिलीज को मैंने मनाया और फिर लड़कियाँ ग्राउंड में आने लगीं। जब शुरू में आईं तब तो पांच-सात लड़कियाँ ही आती थीं। उसको फिर वो देख-देख के, देख-देख के धीरे-धीरे और भी लड़कियाँ आने लगीं, खेलने लगीं।"
कितनी बार नीरू को यह सुनकर घुटन हुई होगी, पर उन्होंने हार नहीं मानी। वो हर घर के बाहर खड़ी रहीं-कभी समझाया, कभी थोड़ी गुज़ारिश की, कभी उम्मीद का सहारा दिया।
धीरे-धीरे कुछ माता-पिता पिघले। कुछ को भरोसा हुआ कि ये खेल उनका भविष्य बिगाड़ेगा नहीं-बनाएगा।
पहले पाँच–सात लड़कियाँ आईं। बिना किट, बिना जूते, बिना स्टिक… सिर्फ दिल में लगी एक चिंगारी के साथ और वही चिंगारी धीरे-धीरे पूरे गाँव में रोशनी बन गई। जब सपने जागे, तो मुश्किलें भी छोटी लगने लगीं
गाँव की अनमिका बताती हैं, “हमारे पास कुछ नहीं था। न ग्राउंड, न हॉकी, न ड्रेस।”
यह सुनकर नीरू रुकतीं क्या? उन्होंने कोच बुलवाया, हॉकी किट खरीदीं, जर्जर मैदान को ग्राउंड बनाया, और लड़कियों को ड्रेस दिलवाई।
इन छोटी-छोटी चीज़ों से लड़कियाँ पहली बार महसूस करने लगीं-‘हम भी कर सकते हैं।’ एक-एक करके टीम बढ़ने लगी, हँसी बढ़ने लगी और आत्मविश्वास बढ़ने लगा। सबसे ज़्यादा—लड़कियों का अपने आप पर भरोसा बढ़ने लगा। गाँव की सोच बदली, तो लड़कियों की दुनिया भी बदल गई
जब गाँव ने बदलाव को स्वीकार किया, तब असल चमत्कार हुआ। लड़कियाँ गाँव से बाहर पढ़ने जाने लगीं। कुछ शहर जाकर नौकरी करने लगीं। कुछ परिवारों में पहली बार बेटियों ने घर से बाहर कदम रखाऔर परिवार गर्व से भर गया।
नीरू उन्हें मुंबई ले गईं, ताकि वे समझें कि दुनिया कितनी बड़ी है। उन लड़कियों के लिए यह सिर्फ भ्रमण नहीं था—यह था दुनिया से पहली बार परिचय। उनकी आँखों में चमक, सपनों में उड़ान और चेहरे पर मुस्कान थी।
नीरू बताती हैं, "उनको जब मैं बम्बई अपने साथ ले के गई, तो वहाँ ले जाने का उद्देश्य यही था कि बच्चियाँ गाँव की बच्चियाँ हैं, तो ये बाहर जाकर के ये देखें कि लाइफ में कितनी सारी अपॉर्चुनिटीज हैं।"
जहाँ मैदान नहीं, वहाँ खलिहान स्टेडियम बन गया कई लोगों को लगता है कि खेल बड़े स्टेडियमों में शुरू होते हैं। पर इस गाँव ने साबित कर दिखाया कि एक खलिहान भी अंतरराष्ट्रीय सपनों की पहली सीढ़ी बन सकता है।
गाँव की धूल भरी ज़मीन, टूटी सी ईंटों वाली दीवारें और शाम की हल्की रोशनी- यही खेल का मैदान था और इसी पर खड़ी हुईं वे बेटियाँ, जो अब हर मुश्किल की ड्रिबलिंग करना जानती हैं।
नीरू और उनकी टीम जो सिर्फ हॉकी नहीं, ज़िंदगी खेल रहीं हैं
ये कहानी सिर्फ एक सरपंच और कुछ लड़कियों की नहीं है। ये कहानी है उस पल की, जब किसी ने पहली बार उन पर भरोसा किया। उस आँसू की, जो मैदान में गिरा और ताकत बन गया। उस मुस्कान की, जो पहली जीत के बाद चेहरे पर खिली। उस बदलाव की, जो चुपचाप गाँव के दिल में उतर गया।
नीरू यादव और उनकी खिलाड़ी बेटियाँ आज भी रोज़ उसी मिट्टी पर दौड़ती हैं, उसी मैदान में खेलती हैं लेकिन अब सपनों की उड़ान आसमान तक जाती है।
बड़े सपनों के लिए बड़े शहर नहीं चाहिए। हिम्मत एक लड़की की हो तो पूरा गाँव बदल सकता है और ज़िंदगी की ड्रिबलिंग में, गिरना हार नहीं-सीख है।
खिलाड़ियों के लिए यह एक तकनीक है, पर असल में यही तो ज़िंदगी है। ज़िंदगी भी तो हमें एक गेंद देती है-उम्मीदों की गेंद। इसे दाएं-बाएं संभालकर ले जाना होता है, मुश्किलों से बचाना होता है, और उन सपनों के गोल तक पहुँचाना होता है जिनके लिए हम हर सुबह उठते हैं।
राजस्थान और हरियाणा की सीमा पर झुंझनू ज़िले में बसे एक साधारण से दिखने वाले गाँव लांबी अहीर में, यही सीख हर दिन दोहराई जा रही है- हॉकी के मैदान में भी और ज़िंदगी के मैदान में भी। और इसका श्रेय जाता है एक ऐसी महिला को, जो सिर्फ सरपंच नहीं, बल्कि गाँव की लाखों उम्मीदों की कप्तान है- नीरू यादव, जिन्हें लोग प्यार से कहते हैं हॉकी वाली सरपंच।
एक स्टिक जिसने पूरे गाँव की दिशा बदल दी
कहानी की शुरुआत उस दिन हुई जब नीरू यादव को पता चला कि गाँव की कुछ लड़कियाँ स्कूल में हॉकी खेलती थीं, लेकिन स्कूल खत्म होते ही खेल भी खत्म हो गया था।
न हॉकी, न किट, न ग्राउंड… और सबसे बड़ी बात, न परिवार का भरोसा।
neeru yadav hocky wali sarpanch (1)
नीरू यादव गाँव कनेक्शन से कहती हैं, “जब ये पता लगा कि मेरी पंचायत में कुछ लड़कियाँ जो स्कूल टाइम में, स्कूल के अंदर जो हॉकी खेली हुई हैं, लेकिन वो घर बैठ गईं क्योंकि उनके पास सुविधाएं नहीं हैं। तब मैंने उन लड़कियों से मिला तो मैंने उनसे पूछा ये कि भई आपके पास क्या… तो उन्होंने यही कहा कि ना तो हमारे पास कोई सुविधा है, ना ही फैमिली सपोर्ट करती है। सबसे बड़ी बात तो ये है कि गाँव के अंदर स्कूल में तो फिर भी आप जब तक स्कूल टाइम में, स्कूल में हो, आप खेल लेते हो, उसके बाद घर जाते ही फिर वो ग्राउंड पे खेलने के लिए आपको कोई नहीं भेजता है।”
यह सिर्फ एक खेल की बात नहीं थी। यह उन अनकहे सपनों की बात थी जो हर ग्रामीण लड़की अपने भीतर दबाकर रखती है।
घर-घर जाकर समझाया, आँसू भी देखे और विरोध भी
नीरू ने बिना समय गंवाए लड़कियों को बुलाया, उनकी बातें सुनीं, फिर सीधे उनके घरों पर पहुँचीं। शुरुआत में किसी ने दरवाज़ा तक नहीं खोला। किसी ने कहा- “लड़कियाँ बाहर खेलेंगी?”, “लोग क्या कहेंगे?”, “घर का काम कौन करेगा?”
नीरू आगे बताती हैं, "तब मैं वो चीज़ को लेकर के चली और उन लड़कियों को मैंने इकट्ठा किया, उनकी फैमिली से बातें की। शुरुआत में तो फैमिली ने मना कर दिया था। फैमिलीज को मैंने मनाया और फिर लड़कियाँ ग्राउंड में आने लगीं। जब शुरू में आईं तब तो पांच-सात लड़कियाँ ही आती थीं। उसको फिर वो देख-देख के, देख-देख के धीरे-धीरे और भी लड़कियाँ आने लगीं, खेलने लगीं।"
neeru yadav hocky wali sarpanch (2)
कितनी बार नीरू को यह सुनकर घुटन हुई होगी, पर उन्होंने हार नहीं मानी। वो हर घर के बाहर खड़ी रहीं-कभी समझाया, कभी थोड़ी गुज़ारिश की, कभी उम्मीद का सहारा दिया।
धीरे-धीरे कुछ माता-पिता पिघले। कुछ को भरोसा हुआ कि ये खेल उनका भविष्य बिगाड़ेगा नहीं-बनाएगा।
पहले पाँच–सात लड़कियाँ आईं। बिना किट, बिना जूते, बिना स्टिक… सिर्फ दिल में लगी एक चिंगारी के साथ और वही चिंगारी धीरे-धीरे पूरे गाँव में रोशनी बन गई। जब सपने जागे, तो मुश्किलें भी छोटी लगने लगीं
गाँव की अनमिका बताती हैं, “हमारे पास कुछ नहीं था। न ग्राउंड, न हॉकी, न ड्रेस।”
यह सुनकर नीरू रुकतीं क्या? उन्होंने कोच बुलवाया, हॉकी किट खरीदीं, जर्जर मैदान को ग्राउंड बनाया, और लड़कियों को ड्रेस दिलवाई।
neeru yadav hocky wali sarpanch (3)
इन छोटी-छोटी चीज़ों से लड़कियाँ पहली बार महसूस करने लगीं-‘हम भी कर सकते हैं।’ एक-एक करके टीम बढ़ने लगी, हँसी बढ़ने लगी और आत्मविश्वास बढ़ने लगा। सबसे ज़्यादा—लड़कियों का अपने आप पर भरोसा बढ़ने लगा। गाँव की सोच बदली, तो लड़कियों की दुनिया भी बदल गई
जब गाँव ने बदलाव को स्वीकार किया, तब असल चमत्कार हुआ। लड़कियाँ गाँव से बाहर पढ़ने जाने लगीं। कुछ शहर जाकर नौकरी करने लगीं। कुछ परिवारों में पहली बार बेटियों ने घर से बाहर कदम रखाऔर परिवार गर्व से भर गया।
नीरू उन्हें मुंबई ले गईं, ताकि वे समझें कि दुनिया कितनी बड़ी है। उन लड़कियों के लिए यह सिर्फ भ्रमण नहीं था—यह था दुनिया से पहली बार परिचय। उनकी आँखों में चमक, सपनों में उड़ान और चेहरे पर मुस्कान थी।
नीरू बताती हैं, "उनको जब मैं बम्बई अपने साथ ले के गई, तो वहाँ ले जाने का उद्देश्य यही था कि बच्चियाँ गाँव की बच्चियाँ हैं, तो ये बाहर जाकर के ये देखें कि लाइफ में कितनी सारी अपॉर्चुनिटीज हैं।"
neeru yadav hocky wali sarpanch (5)
जहाँ मैदान नहीं, वहाँ खलिहान स्टेडियम बन गया कई लोगों को लगता है कि खेल बड़े स्टेडियमों में शुरू होते हैं। पर इस गाँव ने साबित कर दिखाया कि एक खलिहान भी अंतरराष्ट्रीय सपनों की पहली सीढ़ी बन सकता है।
गाँव की धूल भरी ज़मीन, टूटी सी ईंटों वाली दीवारें और शाम की हल्की रोशनी- यही खेल का मैदान था और इसी पर खड़ी हुईं वे बेटियाँ, जो अब हर मुश्किल की ड्रिबलिंग करना जानती हैं।
नीरू और उनकी टीम जो सिर्फ हॉकी नहीं, ज़िंदगी खेल रहीं हैं
ये कहानी सिर्फ एक सरपंच और कुछ लड़कियों की नहीं है। ये कहानी है उस पल की, जब किसी ने पहली बार उन पर भरोसा किया। उस आँसू की, जो मैदान में गिरा और ताकत बन गया। उस मुस्कान की, जो पहली जीत के बाद चेहरे पर खिली। उस बदलाव की, जो चुपचाप गाँव के दिल में उतर गया।
नीरू यादव और उनकी खिलाड़ी बेटियाँ आज भी रोज़ उसी मिट्टी पर दौड़ती हैं, उसी मैदान में खेलती हैं लेकिन अब सपनों की उड़ान आसमान तक जाती है।
बड़े सपनों के लिए बड़े शहर नहीं चाहिए। हिम्मत एक लड़की की हो तो पूरा गाँव बदल सकता है और ज़िंदगी की ड्रिबलिंग में, गिरना हार नहीं-सीख है।