जम्मू-कश्मीर में घुमंतू जनजाति बकरवाल के युवा क्यों छोड़ रहे हैं पूर्वजों का काम
Aditi Kashyap and Nameera Anjum | May 05, 2023, 13:31 IST
जम्मू के पास एक गाँव में, खानाबदोश बकरवाल जनजाति के लोग अपने पशुओं के साथ कश्मीर के ऊपरी इलाकों की यात्रा करने की तैयारी करते हैं। लेकिन उनमें से सभी ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि बहुत से युवा अपने खानाबदोश अतीत से अलग होकर कहीं और बेहतर आजीविका की तलाश करने लगे हैं।
पट्टियां (जम्मू), जम्मू-कश्मीर। शरीफा जम्मू शहर की सीमा से सटे पट्टियां गाँव में अपने घर के बाहर अपने पोते-पोतियों को शोर-शराबे से खेलते हुए देखकर प्यार से मुस्कुरा दी। वह बकरवाल समुदाय से ताल्लुक रखती हैं और एक बोली बोलती हैं जो उर्दू और गोजरी का मिला जुला रूप है।
“हम एक सच्चे खानाबदोश समुदाय हैं और साल भर एक जगह से दूसरी जगह घूमते रहते हैं। हमारी जिंदगी हमारे पशुओं के आसपास ही घूमती है, "उन्होंने गाँव कनेक्शन को बताया। वह और उनका परिवार सर्दियों का मौसम जम्मू के पास पट्टियां में बिताते हैं और गर्मियों के महीनों में श्रीनगर-पहलगाम चले जाते हैं।
“जब हमें पैसों की ज़रूरत होती है तो हम जानवरों (बकरी और भेड़) को कभी-कभी बेच देते हैं, ”उन्होंने आगे कहा।
जम्मू और कश्मीर की अनुसूचित जनजाति बकरवाल समुदाय के लिए मुश्किल भरा समय है। शरीफा जैसे जनजाति के कई सदस्य उनके लिए चलाई जा रही किसी भी सरकारी योजना के बारे में नहीं जानते हैं। शरीफा के चार बेटे ज्यादा कमाने के लिए नौकरियों की तलाश में केंद्र शासित प्रदेश के अन्य हिस्सों में चले गए थे।
बकरवाल समुदाय के लिए पशुपालन आजीविका का मुख्य स्रोत है।
“मेरा एक बेटा माली है और दूसरा ड्राइवर है। वे जो पैसा कमाते हैं, वह सब मेरे पोते-पोतियों की पढ़ाई में खर्च हो जाता है।” वह अपने पति और बहू और पोते-पोतियों के साथ रहती थी। उनके पति मवेशियों की देखभाल करते थे।
बकरवाल गुर्जरों के एक बड़े जातीय समूह का एक उपसमूह हैं, जो उत्तरी भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के कुछ हिस्सों में रहते हैं। 2011 की जनगणना के मुताबिक , करीब 1.5 मिलियन गुर्जर और बकरवाल जम्मू, कश्मीर और लद्दाख में रहते हैं, जो इस क्षेत्र की कुल आबादी का लगभग 11.9 फीसदी है।
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आठ लाख से अधिक गुर्जर और बकरवाल, जम्मू की जनजातीय आबादी में 54 प्रतिशत से अधिक हैं। जम्मू और कश्मीर में, वे इस्लाम धर्म को मानते हैं और उन्हें 1991 में अनुसूचित जनजाति के रूप में शामिल किया गया था।
बकरवाल समुदाय के लिए पशुपालन आजीविका का मुख्य स्रोत है। खानाबदोश समुदाय के सदस्य कड़ाके की ठंड के महीनों में जम्मू चले जाते हैं और गर्मी के महीनों में अपनी बकरी और भेड़ों के साथ चरागाह की तलाश में वापस कश्मीर के पहाड़ों के ऊपरी इलाकों में चले जाते हैं।
पटियन गाँव में करीब पांच से छह बकरवाल परिवार हैं, सभी एक-दूसरे के करीब रहते हैं। उनमें से कई बुजुर्ग हैं और कुछ युवा और कुछ बच्चे भी हैं।
2011 की जनगणना के मुताबिक , करीब 1.5 मिलियन गुर्जर और बकरवाल जम्मू, कश्मीर और लद्दाख में रहते हैं, जो इस क्षेत्र की कुल आबादी का लगभग 11.9 फीसदी है।
रेशमा बीबी शरीफा के पड़ोस में रहती हैं। वह अपने सबसे छोटे बेटे और पोते बेबी असीम के साथ पट्टियां में रहती हैं। उनका बेटा, पशुओं की देखभाल के साथ ड्राइवर के रूप में काम करता है।
“मैं अपनी पूरी जिंदगी जम्मू और कश्मीर में घूमती रही हूं। अब और नहीं, क्योंकि अब मेरी उम्र हो गई और मेरा शरीर इतना तनाव नहीं सह सकता है, "उन्होंने गाँव कनेक्शन को बताया।
दिन में, रेशमा बीबी ऊपरी की तरफ पैदल या कभी-कभी घोड़े पर बैठकर यात्रा करती हैं।
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लेकिन, समुदाय की जीवनशैली धीरे-धीरे लेकिन निश्चित रूप से बदल रही है। राजनीतिक अशांति, सीमा पर आक्रामकता और उग्रवाद, इन सभी ने घुमंतू समुदाय के करीबी लोगों पर अपना प्रभाव डाला है। और कई युवा सदस्य परंपरा से टूट रहे हैं और आजीविका के अन्य स्रोतों की तलाश में दूर जा रहे हैं।
“मैं गर्मियों में वापस श्रीनगर की यात्रा नहीं करूँगा। मेरी सास यात्रा करेंगी लेकिन मैं अपने बेटे के साथ रह रही हूं जो एनईईटी की तैयारी कर रहा है। मेरी बेटी नौवीं में है" , परवीना, जो 30 साल की हैं और पट्टियां में रहती हैं, ने गाँव कनेक्शन को बताया।
इस घुमंतू जनजाति की पारंपरिक जिंदगी में बदलाव आ रहा हैं। जबकि कुछ पुराने समुदाय के सदस्य अभी भी अपनी पुरानी घुमंतू प्रथा को नहीं छोड़ पाए हैं। युवा धीरे-धीरे अपने समुदाय की जड़ों से अलग हो रहे हैं और कहीं और रोजगार की तलाश कर रहे हैं।
Also Read: कश्मीर के पारंपरिक लोक रंगमंच की लुप्त होती एक लोक कला: भांड पाथेर
“हम एक सच्चे खानाबदोश समुदाय हैं और साल भर एक जगह से दूसरी जगह घूमते रहते हैं। हमारी जिंदगी हमारे पशुओं के आसपास ही घूमती है, "उन्होंने गाँव कनेक्शन को बताया। वह और उनका परिवार सर्दियों का मौसम जम्मू के पास पट्टियां में बिताते हैं और गर्मियों के महीनों में श्रीनगर-पहलगाम चले जाते हैं।
“जब हमें पैसों की ज़रूरत होती है तो हम जानवरों (बकरी और भेड़) को कभी-कभी बेच देते हैं, ”उन्होंने आगे कहा।
जम्मू और कश्मीर की अनुसूचित जनजाति बकरवाल समुदाय के लिए मुश्किल भरा समय है। शरीफा जैसे जनजाति के कई सदस्य उनके लिए चलाई जा रही किसी भी सरकारी योजना के बारे में नहीं जानते हैं। शरीफा के चार बेटे ज्यादा कमाने के लिए नौकरियों की तलाश में केंद्र शासित प्रदेश के अन्य हिस्सों में चले गए थे।
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“मेरा एक बेटा माली है और दूसरा ड्राइवर है। वे जो पैसा कमाते हैं, वह सब मेरे पोते-पोतियों की पढ़ाई में खर्च हो जाता है।” वह अपने पति और बहू और पोते-पोतियों के साथ रहती थी। उनके पति मवेशियों की देखभाल करते थे।
बकरवाल गुर्जरों के एक बड़े जातीय समूह का एक उपसमूह हैं, जो उत्तरी भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के कुछ हिस्सों में रहते हैं। 2011 की जनगणना के मुताबिक , करीब 1.5 मिलियन गुर्जर और बकरवाल जम्मू, कश्मीर और लद्दाख में रहते हैं, जो इस क्षेत्र की कुल आबादी का लगभग 11.9 फीसदी है।
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आठ लाख से अधिक गुर्जर और बकरवाल, जम्मू की जनजातीय आबादी में 54 प्रतिशत से अधिक हैं। जम्मू और कश्मीर में, वे इस्लाम धर्म को मानते हैं और उन्हें 1991 में अनुसूचित जनजाति के रूप में शामिल किया गया था।
बकरवाल समुदाय के लिए पशुपालन आजीविका का मुख्य स्रोत है। खानाबदोश समुदाय के सदस्य कड़ाके की ठंड के महीनों में जम्मू चले जाते हैं और गर्मी के महीनों में अपनी बकरी और भेड़ों के साथ चरागाह की तलाश में वापस कश्मीर के पहाड़ों के ऊपरी इलाकों में चले जाते हैं।
पटियन गाँव में करीब पांच से छह बकरवाल परिवार हैं, सभी एक-दूसरे के करीब रहते हैं। उनमें से कई बुजुर्ग हैं और कुछ युवा और कुछ बच्चे भी हैं।
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रेशमा बीबी शरीफा के पड़ोस में रहती हैं। वह अपने सबसे छोटे बेटे और पोते बेबी असीम के साथ पट्टियां में रहती हैं। उनका बेटा, पशुओं की देखभाल के साथ ड्राइवर के रूप में काम करता है।
“मैं अपनी पूरी जिंदगी जम्मू और कश्मीर में घूमती रही हूं। अब और नहीं, क्योंकि अब मेरी उम्र हो गई और मेरा शरीर इतना तनाव नहीं सह सकता है, "उन्होंने गाँव कनेक्शन को बताया।
दिन में, रेशमा बीबी ऊपरी की तरफ पैदल या कभी-कभी घोड़े पर बैठकर यात्रा करती हैं।
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लेकिन, समुदाय की जीवनशैली धीरे-धीरे लेकिन निश्चित रूप से बदल रही है। राजनीतिक अशांति, सीमा पर आक्रामकता और उग्रवाद, इन सभी ने घुमंतू समुदाय के करीबी लोगों पर अपना प्रभाव डाला है। और कई युवा सदस्य परंपरा से टूट रहे हैं और आजीविका के अन्य स्रोतों की तलाश में दूर जा रहे हैं।
“मैं गर्मियों में वापस श्रीनगर की यात्रा नहीं करूँगा। मेरी सास यात्रा करेंगी लेकिन मैं अपने बेटे के साथ रह रही हूं जो एनईईटी की तैयारी कर रहा है। मेरी बेटी नौवीं में है" , परवीना, जो 30 साल की हैं और पट्टियां में रहती हैं, ने गाँव कनेक्शन को बताया।
इस घुमंतू जनजाति की पारंपरिक जिंदगी में बदलाव आ रहा हैं। जबकि कुछ पुराने समुदाय के सदस्य अभी भी अपनी पुरानी घुमंतू प्रथा को नहीं छोड़ पाए हैं। युवा धीरे-धीरे अपने समुदाय की जड़ों से अलग हो रहे हैं और कहीं और रोजगार की तलाश कर रहे हैं।
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