क्या भारत जीत सकता है भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग?

भ्रष्टाचार भारत में हर स्तर पर फैला हुआ है—नेताओं से लेकर आम नागरिक तक। Gaon Postcard में पढ़िए कैसे यह समस्या हमारी अर्थव्यवस्था, न्याय प्रणाली और सामाजिक ढांचे को प्रभावित कर रही है।
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भ्रष्टाचार हमारे समाज की जड़ों तक पहुँच चुका है। हमारे देश में इसका स्वरूप और प्रभाव अत्यंत व्यापक है। अंग्रेजों के शासनकाल में उच्च अधिकारियों को ‘डाली’ देने की परंपरा थी, जिसमें फल, मिठाई और नकद राशि शामिल होती थी। उस समय निम्न स्तर के अधिकारी और बाबू रिश्वत लेने से डरते थे, और यह कुप्रथा केवल उच्च पदों तक सीमित थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात, यह रोग धीरे-धीरे पूरे प्रशासनिक तंत्र में फैल गया।

कुछ वर्ष पूर्व समाचारों में आया कि इटली की कंपनी अगस्ता ने हेलीकॉप्टर बेचने के लिए भारत सरकार के कुछ राजनेताओं को रिश्वत दी थी। इटली की अदालत ने अपने निर्णय में लाभार्थियों के बारे में कुछ संकेत दिए थे, परंतु नाम स्पष्ट नहीं किए। वैसे, रिश्वत और भ्रष्टाचार हमारे देश में कोई नई बात नहीं है। जवाहरलाल नेहरू के शासनकाल में उनके दामाद और रायबरेली के सांसद फिरोज जहांगीर गांधी ने डालमिया की कंपनी द्वारा जीवन बीमा क्षेत्र में किए गए भ्रष्टाचार के विषय में कुछ तथ्य उजागर किए थे। नेहरू सरकार में ही रक्षा मंत्री रहे कृष्णा मेनन का नाम ‘जीप स्कैंडल‘ से जुड़ा था। उसी सरकार में वित्त मंत्री टी. टी. कृष्णमाचारी का नाम भी अखबारों में भ्रष्टाचार से जोड़ा गया था।

बोफोर्स कांड तो अपेक्षाकृत हाल की बात है। उसके बाद भी अनेक प्रकरण हुए—कभी सांसदों की खरीद-फरोख्त, कभी कोयला घोटाला, कभी टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाला, और फिर अगस्ता वेस्टलैंड घोटाला। यह सिलसिला लगातार जारी रहा है। हमारे नेताओं के मन में तो भ्रष्टाचार व्याप्त है ही, आम आदमी भी इससे अछूता नहीं है। आखिर नेता तो आम जनता में से ही निकलते हैं। स्थिति यह है कि लोग भगवान को भी नहीं छोड़ते—पुत्र प्राप्ति, मुकदमा जीतने, बीमारी से उबरने के लिए भगवान को रिश्वत का वादा करते हैं, चाहे वह मंदिर में प्रसाद चढ़ाने, कथा सुनने, या मजार पर चादर चढ़ाने के रूप में हो। यह तो नहीं पता कि देवताओं के यहाँ रिश्वत का क्या परिणाम होता है, लेकिन यह सिलसिला लगातार जारी है।

अनेक बार कार्य करवाने के लिए भ्रष्टाचारियों ने ‘रेट’ निर्धारित कर दिए हैं। लोहिया आवास के लिए भी ₹20,000 की रिश्वत निर्धारित है, और भूमिहीनों को पट्टा देने के लिए प्रति एकड़ ₹1,00,000 की रिश्वत ली जाती है। अध्यापक या प्रधानाध्यापक के रूप में नियुक्ति के लिए ₹5 लाख से ₹10 लाख तक की रिश्वत ली जाती है, ऐसा सुनने में आता है। यदि आपको मुआवजा या एरियर प्राप्त करना है, तो 10% नगद राशि बाबू को पहले देनी होती है। इन बातों को प्रमाणित करना संभव नहीं है, लेकिन यदि आप एक स्कूल खोलते हैं, तो उसकी मान्यता लेने, अनुदान सूची में नाम डलवाने, परीक्षा केंद्र बनवाने से लेकर प्रत्येक कदम पर रिश्वत देनी पड़ती है। सरकारी स्कूलों के अध्यापकों की नियुक्ति, तबादला, प्रमोशन, एरियर प्राप्ति में रिश्वत के बिना काम नहीं चलता, लेकिन आप इसे प्रमाणित नहीं कर सकते।

तमाम अधिकारी और कर्मचारी भ्रष्ट तरीकों से धन एकत्र करते हैं। बड़ी मात्रा में यह काला धन कई बार विदेशी बैंकों में जमा किया जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने यूपीए सरकार को आदेश दिया था कि ऐसे लोगों की सूची पेश करे जिनका पैसा अवैध तरीके से विदेशों में जमा है। उन्होंने तो सूची जमा नहीं की, परंतु मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन करते हुए एसआईटी का गठन किया और 600 से अधिक ऐसे विदेशी खाता धारकों के नाम अदालत में पेश किए। इसके अलावा, बहुत से लोगों ने देश के बैंकों आदि में धोखाधड़ी करके विदेश में भागने और वहाँ बसने का प्रयास किया है। ऐसे लोगों में शामिल हैं नीरव मोदी, विजय माल्या और मेहुल चोकसी, जिनका प्रत्यर्पण करके देश में लाने का प्रयास जारी है।

मोदी सरकार ने विदेशों में जमा काले धन के साथ ही स्वदेशी काले धन पर भी प्रहार करने का निर्णय लिया था। स्वदेशी हो अथवा विदेशी, उसे सामने तो आना ही चाहिए। वास्तव में, काला धन देश में भरा पड़ा है, जिसे कई बार समानांतर अर्थव्यवस्था कहा जाता है। विदेशी काला धन वहाँ की बैंकों में जमा कर दिया गया है, लेकिन स्वदेशी काला धन अलग-अलग रूपों में, अलग-अलग जगहों पर छिपा हुआ है। पुराने ज़माने में सोना-चाँदी के रूप में जमीन के अंदर छिपा दिया जाता था। आजकल अधिकांश काला धन जमीन-जायदाद के रूप में रहता है, कई बार बेनामी संपत्ति के रूप में। यही कारण है कि पिछले 40 वर्षों में गाँवों की जमीन के दाम 400 गुना बढ़ गए हैं, जबकि सोने के दाम इससे कम बढ़े हैं। जहाँ काले धन का प्रवेश नहीं, वहाँ महँगाई भी नहीं है। जैसे मजदूरी इसी अवधि में करीब 70 गुना और गेहूँ करीब 30 गुना बढ़ा है। स्पष्ट है कि जहाँ काले धन की पैठ थी, वहाँ महँगाई अधिक बढ़ी। हमने अखबारों में हर्षद मेहता और तेलगी के नाम सुने हैं। आंध्र प्रदेश के एक प्रशासनिक अधिकारी के पास भी अकूत संपत्ति निकली है। एक केंद्रीय मंत्री थे, हिमाचल प्रदेश के रहने वाले सुखराम, जिन्होंने अपने रजाई, गद्दों और तकियों में करेंसी भर रखी थी। किस काम आया वह काला धन? काला धन रोकने के लिए पहले भ्रष्टाचार को रोकना होगा। इसका उपाय है शासन-प्रशासन द्वारा आदर्श स्थापित करना, जिससे नीचे के लोग प्रेरित हों। नरेंद्र मोदी ने कहा था, “ना खाएँगे और ना खाने देंगे।” पता नहीं, यह संकल्प कितना सार्थक सिद्ध हुआ।

काले धन का एक ठिकाना पनामा बैंक के रूप में सामने आया था। पनामा पेपर लीक के बाद कुछ ने अपना नाम गलत ढंग से लिए जाने की बात कही है और कुछ का तर्क है कि वे एनआरआई हैं, जिन पर भारतीय टैक्स के नियम लागू नहीं होते। बोफोर्स प्रकरण के जमाने का एक नारा याद आता है, “राजीव गाँधी होश में आओ, देश का पैसा देश में लाओ।” मोदी भाग्यशाली रहे हैं और शायद अब वह जुमला सच्चाई में बदल जाए। अब भारत के 500 लोगों को देश का पैसा देश में लाने के लिए बाध्य करना है और मोदी सरकार के लिए यह सुनहरा मौका है।

यही कह सकता हूँ। अभी तक सुनते थे कि स्विट्ज़रलैंड में काला धन जमा होता है। जर्मनी और दूसरे यूरोपीय देशों में भी जमा होता है क्योंकि वहाँ धन सुरक्षित रहता है, किसी को पता नहीं चलता। कहते हैं, बोफोर्स में खरीद में दलाली का पैसा विदेशों में जमा हुआ था और उस बार भी ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के एन. राम ने छानबीन की थी। ‘लोटस’ कंपनी के नाम से पैसा विदेश में जमा हुआ था। उन दिनों यह बड़ी बात थी क्योंकि तब विदेशी बैंकों में खाता खोलना ही वर्जित था। अब तो कहते हैं, पनामा की कंपनियों में भारत के ही 500 लोगों ने धन लगाया है और वह काला धन है। पनामा पेपर लीक अब तक का शायद सबसे बड़ा खुलासा है, जिससे सारी दुनिया में उथल-पुथल मच गई है। आइसलैंड के राष्ट्रपति ने त्यागपत्र दे दिया था और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ ने जाँच समिति बैठा दी थी।

भारत के अब तक आरोपित 500 लोगों में अमिताभ बच्चन और ऐश्वर्या राय के नाम भी बताए गए थे, लेकिन उन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि पनामा में उनका कोई धन नहीं लगा है। इस खुलासे में चीन, रूस, इंग्लैंड के नेताओं के भी नाम हैं। भारत के प्रधानमंत्री ने कड़ा रुख अपनाया है और वित्त मंत्री ने जाँच समिति बैठा दी है। बोफोर्स दलाली के पैसे की खोज में पत्रकारों ने विदेशी बैंकों के दरवाजे खटखटाए थे। वहाँ पर एक ही लक्ष्य था—दलाली में क्वात्रोची और राजीव गाँधी की लिप्तता की जाँच करना। जब ‘लोटस’ कंपनी का नाम आया और ‘लोटस’ के माने ‘कमल’ यानी राजीव बताया गया, तो लगा खोज पूरी हो गई है। बाद में किसी नतीजे पर नहीं पहुँची जाँच। अब तो भानुमति का पिटारा ही खुल गया है, पता नहीं हमारे मीडिया के मौन का क्या राज है।

हमारा मीडिया, विशेषकर टीवी, जो बात-बात में ट्रायल आरंभ कर देता है, अब तक एक्शन मोड में नहीं आया है। जर्मनी के जिस खोजी पत्रकार ने खुलासा किया है, उसकी सराहना होनी चाहिए और ‘इंडियन एक्सप्रेस’ की भी प्रशंसा होनी चाहिए। भारत के जिन 500 लोगों के नामों की बात कही गई है, उनका खुलासा जल्द से जल्द होना चाहिए। देश के प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री ने गंभीरता से लिया है, यह काफी नहीं है। यही मौका है चुनावी वादा पूरा करने का कि विदेशों में जमा धन को वापस लाना है—कम से कम प्रयास करते हुए दिखना चाहिए।

रिश्वत और भ्रष्टाचार के कारण फाइलें आगे नहीं बढ़तीं और इसे ‘रेड टेपिज़्म’ की संज्ञा दी जाती है। पंडित नेहरू ने कहा था, “मैं पहला काम करूँगा रेड टेपिज़्म काटने का,” लेकिन अफसोस की बात है कि आखिर तक वह रेड टेपिज़्म को समाप्त नहीं कर पाए। इसी प्रकार मोदी ने कहा था, “न खाएँगे, न खाने देंगे।” देखना यह है कि रिश्वत और भ्रष्टाचार समाप्त होते हैं या घटते हैं। अथवा नहीं, देश की जनता उम्मीदों पर जी रही है।

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