बचपन का दशहरा: गुड़ वाली जलेबी और साल भर का इंतज़ार, सब कहीं पीछे छूट गए

Divendra Singh | Oct 12, 2024, 14:09 IST
अब मेले की बात हो और फिल्मी पोस्टर्स और किताबों की दुकानों को कहाँ भूल सकते हैं, तरह-तरह के फिल्मी पोस्टर्स, एक्टर्स और एक्ट्रेस के पोस्टर, शायद ही कोई होता वापसी में जिसके हाथ में गुब्बारे और पोस्टर्स न हों।
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गाँव में दशहरे का मेला एक ऐसा अनमोल समय था, जिसे याद करके आज भी दिल में एक अलग सी खुशी और सादगी का एहसास होता है। यह केवल धार्मिक त्योहार नहीं था, बल्कि गाँव के सामाजिक जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था। गाँव की गलियों में रौनक होती थी, हर तरफ़ खुशी का माहौल और चहल-पहल रहती थी।

दशहरे का मेला गाँव के लिए एक पुराने दोस्तों से मिलने का मौका होता था। परदेश में रहने वाले लोग इसी मेले में गाँव लौटते थे। उस समय न मोबाइल थे, न इंटरनेट, और न ही सोशल मीडिया। यही मेले एक-दूसरे से मिलने और जुड़ने का ज़रिया होते थे। खासकर गाँव की बेटियाँ, जो अपनी गृहस्थी और ससुराल की जिम्मेदारियों से थोड़ा फुरसत पाकर, दशहरे के बहाने मायके आने का बहाना ढूंढ ही लेती थीं। यह उनके लिए एक छुट्टी और सुकून का समय होता था।

हर किसी के अपने ठिकाने होते की कौन कहाँ मिलेगा, कोई जलेबी की दुकान पर तो कोई रावण के पुतले के पास, सालों तक यही सिलसिला चलता रहा। लेकिन शायद ही अब कोई मिल पाता है।

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मेले में तरह-तरह की दुकानों और खेलों की भी भरमार होती थी। हलवाई की दुकानों से उठती गुड़ वाली ताज़ा जलेबी की मिठास दूर से ही महसूस होने लगती। गाँव के बच्चे और बड़े सभी जलेबी खाने के लिए कतार में खड़े रहते थे। गुड़ से बनी मिठाईयाँ और गर्म चाट मेले की जान होते थे।

बच्चों के साथ गाँव की कोई एक बुजुर्ग दादी रहती, जिनका काम था, सारे बच्चों को इकट्ठा करना, मेले तक ले जाना और फिर वापस घर लेकर आना।

दशहरे के समय खेतों में भी विशेष हलचल होती थी। अगेती धान काटकर खलिहान में लाया जाता था, क्योंकि दशहरे के बाद चिवड़ा बनाने की परंपरा थी। गाँव के लोग मिलकर धान की फसल की तैयारी में जुटते थे। ये भी तो कि उनके बच्चे परदेश से लौटे हैं तो वापसी में बांध देंगे नए चावल की एक गठरी। और इसी के साथ ही तो सर्दियों में मिलने वाली हरी सब्जियों का आगमन हो जाता, तब आज की तरह गोभी, पालक और हरी धनिया जैसी सब्जियां साल भर नहीं मिलती थीं।

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अब मेले की बात हो और फिल्मी पोस्टर्स और किताबों की दुकानों को कहाँ भूल सकते हैं, तरह-तरह के फिल्मी पोस्टर्स, एक्टर्स और एक्ट्रेस के पोस्टर, शायद ही कोई होता वापसी में जिसके हाथ में गुब्बारे और पोस्टर्स न हों। यही नहीं चित्रहार और लोकगीतों की किताबें तो याद ही होंगी, अब इसके बाद ही तो शादियों का भी तो मौसम आएगा तो इन्हीं किताबों से पढ़ें जाएंगे लोकगीत। दशहरे के मेले में भगवान और देवी-देवताओं के पोस्टर्स की भी भरमार होती थी। लोग अपनी श्रद्धा के अनुसार पोस्टर्स खरीदते थे, और अपने घरों में सजाने के लिए उन्हें लेकर जाते थे। यह न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक था, बल्कि गाँव की सांस्कृतिक पहचान का भी हिस्सा था।

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दशहरे के साथ रामलीला का आयोजन गाँव की खास पहचान थी। गाँव के युवा और बच्चे रामलीला में हिस्सा लेते थे, और पूरे गाँव के लोग इसे देखने आते थे। राम, सीता, हनुमान और रावण के किरदार निभाते गाँव के लड़कों को देखकर एक अलग ही जोश और उल्लास महसूस होता था। रामलीला की धूम के बाद रावण का दहन होता था, और जब रावण जलता, तो गाँव के बच्चे उत्साहित होकर तालियाँ बजाते थे। यह नाटक गाँव के बच्चों को सद्गुण और बुराई पर अच्छाई की जीत का महत्व सिखाता था।

दशहरे के मेले में मूंगफली भी एक खास पकवान होती थी। लोग मूंगफली भुजवाकर खा रहे होते थे, और ठंडी शाम में मूंगफली का मज़ा लेना एक अनिवार्य हिस्सा बन गया था। गाँव के बच्चे एक-दूसरे के साथ बैठकर मूंगफली खाने में जुट जाते थे, और इस दौरान उनकी खिलखिलाहट से पूरा माहौल गुलजार हो जाता था।

आज के समय में तकनीक और बाजार ने हर चीज़ को बदल दिया है। अब साल भर हरी सब्जियाँ और आधुनिक सुविधाएँ उपलब्ध हैं, लेकिन वो उत्साह और मिलन की भावना कहीं खो गई है। न अब वो मेले की चहल-पहल रही, न रामलीला का वही आनंद, और न ही दोस्तों और रिश्तेदारों के साथ मिलने का वही समय। जो अपनापन और सादगी दशहरे के मेले में हुआ करता था, वो आज की तेज़ रफ्तार ज़िंदगी में कहीं पीछे छूट गया है।

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