परंपराएँ जीती रहें, ये साक्ष्य हैं भारत के नक़्शे पर बने एक बेहद छोटे से क़स्बे जसवंतनगर में लगभग 160 वर्षों से निभायी जाने वाली उस परम्परा का जिसे यहाँ की कई पीढ़ियाँ देख चुकी हैं।
नरसिंह मंदिर का ये प्रांगण, प्रभु राम और उनके भाइयों का यही पीताम्बर स्वरूप, चटख लाल मखमली कपड़े में लिपटे विमान को कंधे पर उठाते लोग और उसके पीछे भागते मोहल्ले के बच्चे।
हम क़स्बे वालों के लिए ये सिर्फ रामलीला ही नहीं बल्कि एक ऐसा त्यौहार है, जिस पर बेटियाँ ससुराल से पीहर लौट आना चाहती हैं। बड़े शहरों में नौकरी को गए लोग घर आना चाहते हैं। घर की महिलाएं मेले में सजी दुकानों का इंतज़ार करती हैं ताकि पुराने चाय के पियाले बदले जा सकें और हर माल 10 रुपए में खूब ख़रीददारी की जा सके।
विमान का इंतज़ार करते बच्चे, शाम होते ही चबूतरों को गुलज़ार करने लगते हैं। धर्म भले ही कोई भी हो इन दिनों क़स्बे में हर कोई राम जी का विमान देखने के लिए लालायित रहता है जैसे कभी बचपन में मैं रहती थी।
तब दोपहर के 2 बजते ही स्कूल का बस्ता फेंक मैं और मोहल्ले के बाकी बच्चे उस मंदिर की ओर दौड़ लगा देते जहाँ राम, सीता और लक्ष्मण का श्रृंगार किया जाता। मेरा घर नरसिंह मंदिर के बिल्कुल पास था तो हम सब टोलियाँ बनाकर भगवान के दर्शन को जाते। इधर पंडित जी उन बालकों का श्रृंगार करते और उधर हम दूर खड़े हाथ जोड़कर मन में प्रार्थना कर रहे होते। ये वो वक़्त था जिसने मुझे इंसानों में भगवान का स्वरूप दिखाया और अटूट विश्वास दिलाया कि वो हमारी सारी प्रार्थनाएँ सुनते हैं।
बचपन में जब हर बात पर बड़ी आसानी से विश्वास हो जाता था, इस बात पर भी हुआ कि ये जो रामरज लगे चेहरे विमान पर बैठकर हमारे मोहल्ले से निकलते हैं ये भगवान हैं, और वो हमें सब कुछ दिला सकते हैं, हर मुश्किल से बचा सकते हैं इसलिए हम बच्चे हाथ जोड़कर, सर झुकाये उन दिनों ना सब कुछ इन्हीं से माँगते।
मेले का वो खिलौना जो पसंद आया हो पर हमारी नन्हीं मुट्ठी में उसे खरीदने के पैसे ना हो, वो दोस्ती जो पिछली शाम सहेली से लड़ाई करके टूट गयी हो, केला मैया के मेले से खरीदी वो गुल्लक जो कई दिनों से सिक्के डालने के बाद भी भरी ना हो, वो गृह कार्य (होम वर्क ) जो पूरा करना भूल गए हैं और ना जाने क्या-क्या। तब सारी शिकायतें और फरमाइशें 10-12 दिन इन्हीं राम, लक्ष्मण, सीता के स्वरूपों से होतीं थी और विश्वास तब और बढ़ जाता जब पापा रात को घर आते हुए वो खिलौना हाथ में ले आते, या दूसरे दिन वो रूठी हुई सहेली मुस्कुरा देती, ग्रह कार्य पूरा ना होने पर स्कूल में आचार्य जी चिल्लाते नहीं और बाबा गुल्लक में डालने के लिए एक अठन्नी ज्यादा दे देते।
यही वक़्त था जब मैंने भगवान पर अटूट विश्वास करना सीखा। विमान के हर बार गली से गुजरते ही हम सब बच्चे उसके पीछे दौड़ते हुए मिलकर “राम जी-राम जी” चिल्लाते। हमारा मन होता कि हम भी उस विमान के पीछे चलते ही जाएं पर मोहल्ले की सुरक्षा से बंधे हम बच्चे ऐसा कभी नहीं कर पाते और इस बात का इंतज़ार करते कि कब हमें मेला जाने को मिले।
बचपन में रामलीला हम बच्चों के लिए मेले वाले वो दिन थे। जिसके शुरू होने से पहले ही पैसे जोड़ने की जुगाड़ की जाती। ज़्यादा नहीं, बस 10-20 रुपए मिलते होंगे शायद उस समय जो हम बच्चों के झूला झूलने, सॉफ्टी खाने, गोलगप्पे खाने के लिए काफ़ी थे।
मेरे मोहल्ले के सब बच्चे एक साथ मेला जाते इस सीख के साथ कि हम सब एक दूसरे का हाथ पकड़े रहेंगे। मेले में बड़ी दुकानों पर सजी महँगी चीज़ों से हमारा कोई वास्ता नहीं था, मन लेना भी चाहे तो मन को समझा लेते कि पापा के साथ आकर लेंगे।
हजारों की भीड़ में जाने पहचाने चेहरे, लाउड स्पीकर पर बजते पुराने गाने और कभी-कभी बच्चे खोने की सूचना, कानों में पड़ती रामलीला वाली प्रचलित ध्वनि जो कस्बे का हर व्यक्ति पहचानता है। आज भी नवमी और दशमी को जब विमान के साथ ये धुन कस्बें की सड़कों से होकर घरों तक पहुँचती है तो चबूतरे, छते और छज्जे लोगों से भर जाते हैं।
ख़ास बात ये है कि भगवान राम का ये विमान कोई पहियों पर चलने वाला वाहन नहीं बल्कि लकड़ी का एक डोला होता है जिसे हमेशा कंधों पर उठाकर क़स्बे की सड़को से निकाला है, ये बात कितनी ख़ूबसूरत है कि आधुनिकता के इस युग में अगर कमेटी वाले चाहते तो किसी सुसज्जित वाहन पर राम और उनके परिवार को आसानी से लाया – ले जाया जा सकता था, परंतु सालों से चली आ रही परंपराओं को किस तरह रामलीला से जुड़े हुए लोगों ने बचाया है क़स्बे की सड़कों से निकलने वाला ये विमान उसी का एक सुंदर उदाहरण है।
ऐसे ही यदि लिखने बैठूँ तो ना जाने कितनी ही ख़ूबसूरत परंपराओं से सजी है ये रामलीला जिसमें सबसे अद्भुत परंपरा है नगर वासियों द्वारा रावण की आरती उतारना।
वैसे तो देश में दशहरा भगवान राम के हाथों रावण के वध और उसके बड़े-बड़े पुतले फूँककर मनाया जाता है पर मेरे छोटे से क़स्बे में रावण फूँका नहीं जाता बल्कि इस दिन दोपहर के तकरीबन तीन बजे जब रावण स्वरूप व्यक्ति अपने विमान पर सवार होकर क़स्बे की सड़कों से गुजरता है तो उसकी प्रतीक्षा में खड़े लोग ना सिर्फ़ उसकी पूजा करते हैं, बल्कि भव्य आरती भी उतारते हैं।
पापा ने बताया कि ऐसी मान्यता है कि यहाँ रावण पूजे जाने की प्रथा 1980 -81 की रामलीला में शुरू हुई थी। उन दिनों नगर के जैन मोहल्ले में स्व. महेश जैन, सुरेश जैन, स्व राकेश कांत जैन, राजीव जैन, रम्मू वर्मा, जितेंद्र जैन, डॉ पंकज सिंह वर्मा आदि युवाओं ने “केंणा क्लब” नाम का एक क्लब बनाया। महेश जैन (क्लर्क) सूपर्णखा बनकर आते थे और इसी मोहल्ले के स्व पंडित विपिन बिहारी पाठक रावण का किरदार निभाते हुए रामदल से युद्ध करने को निकलते थे।
उस दिन कहते हैं कि तब आरती के लिए एक बड़ी परात मोहल्ले से मंगाई गई, शक्कर के बड़े-बड़े बताशे (खरपूड़ी) बनवाए गए, प्लास्टिक की गेंदों पर नरकंकाल के चेहरे बनाये गए और इन्ही से बड़ी माला रावण के गले में डालने के लिए बनाई गई।
सूपर्णखा और अन्य लोगों ने इस परात से रावण और सूपर्णखा की आरती ‘जय लंकेश’ की जयकार के साथ ‘साधू दूध वाले’ चौराहे पर पहली बार उतारी। एक लकड़ी की नशेनी पर चढ़कर सूपर्णखा ने युद्ध को जाते रावण की आरती भी की। इसके बाद पूर्व चेयरमैन स्व. राधामोहन जैन की कोठी में पूरे रावण दल के साथ लोगों को ‘इमरती’ का नाश्ता कराया और उस दिन से आज का दिन है कि क़स्बे की रामलीला सुप्रसिद्ध होने के पीछे के कारणों में सबसे प्रमुख कारण यहाँ के आम जनमानस द्वारा रावण की आरती उतारना है।
हालाँकि रामलीला में रावण का किरदार निभाने वाले धीरज पाठक बताते हैं कि रावण आरती का प्रारंभ कैंणा क्लब द्वारा जैन मंदिर वाली सड़क पर कुछ देर लीला करवाने के उद्देश्य से किया गया क्योंकि रास्ते की लड़ाई की सारी लीलाएं चौक के बाद दूसरी सड़क और गोदाम पर ही होती थी।
ऐसी तमाम कहानियाँ है और तमाम तथ्य जो साल दर साल इस रामलीला में जुड़ते रहे और इसकी ख्याति को दूर – दूर तक पहुँचाते रहे । वैसे इसे सुप्रसिद्ध बनाने के लिए एक और कारण हो सकता है और वो ये कि यहाँ रावण के सिर्फ़ 9 चेहरे होते हैं और एक चेहरा गधे का होता है … रामलीला से जुड़े प्रमुख सदस्य अजेन्द्र सिंह गौर बताते हैं कि रावण विद्वान था किंतु उसने जो सीता हरण किया और अंत में यही उसकी मृत्यु का कारण बना, इसलिए यहाँ रामलीला में उसे गधे की उपाधि से भी नवाज़ा गया है।
ख़ैर इस नौ सर वाले रावण की ये आरती हमारे यहाँ जैन मोहल्ले में एक बड़े से थाल में, किलो भर कपूर और खरपुरी (बड़ा बताशा) सार्वजनिक रूप से होती हैं, यहाँ रावण को माला पहनाई जाती है, ये माला प्लास्टिक की कई बॉल मिलाकर बनाई जाती है। इस दौरान नगरवासी अपने माथे पर पीला टीका भी लगाते हैं। मान्यता है कि रावण भी अपने माथे पर त्रिपुंड लगाता था। इस बीच राम और रावण की सेनाओं के बीच नगर की सड़कों पर तीरों, तलवारों, ढालों, बरछी, भालों से युद्ध का प्रदर्शन होता है।
बचपन में जब इस युद्ध को देखते हुए उनके धनुष से निकला तीर हमारे हाथ लगता तो हमारे गुरुर का ठिकाना ही नहीं रहता। जैसे तीर मारना बड़ी बात है उस वक़्त हम बच्चों के लिए वो उनका तीर मिलना बहुत बड़ी बात थी।
ऐसी ही एक और बड़ी बात जो इस रामलीला को ख़ास बनाती है वो ये कि जब दशहरे के दिन पंचक मुहुर्त में रात तकरीबन 10 बजे, यहाँ के रामलीला मैदान में रावण के पुतले का प्रतीकात्मक बध किया जाता है तो पुतले के गिरते ही वहाँ खड़ी भीड़ इस पर टूट पड़ती है और इसके छोटे-छोटे टुकड़ों को अपने घर ले जाकर सहेजती है। लोग मानते हैं कि इन टुकड़ों को रखने से बच्चों को बुरी नज़र नहीं लगती, घर के सदस्यों को बाधाएं नहीं सताती, रोग और अकाल मौत नहीं होती और व्यापार में फायदा होता है।
बचपन में पापा भी रामलीला मैदान से लौटते हुए इन टुकड़ो के साथ एक और चीज़ जरूर साथ लाते और वो थीं, गरम – गरम इमरतियां। क़स्बे में दशहरे के दिन रावण बध के बाद हर हलवाई अपनी भट्टी पर बैठा इमरतिया निकाल रहा होता है। दुकानों के आसपास के गाँव वालों की भारी भीड़ होती है और गली मोहल्ले लोगों से रात भर गुलज़ार रहते हैं।
इसलिए ये सिर्फ़ रामलीला नहीं हमारे यहाँ का ऐसा त्योहार है जिसे क़स्बे से दूर रहने वाले हम जैसे लोग भले ही ना मना पाएँ पर शारदीय नवरात्रि से लेकर दशहरे तक हमारा मन इसकी यादों में भीगा रहता है और दिल से बस यही दुआ निकलती है कि ये परम्पराएं सदियों तक जीती रहें।
(पूजा व्रत गुप्ता लेखिका हैं और अभी ऑस्ट्रेलिया में रहती हैं)