कभी भीख मांगने के लिए उठते थे जो हाथ, अब वो कॉपी किताब पकड़े आते हैं नजर

उत्तर प्रदेश के अकबरपुर गांव में कंजर समुदाय के लोग पारंपरिक रूप से भीख मांगते हैं। इस समुदाय का कोई भी सदस्य कभी स्कूल नहीं गया। इस हाशिए के समुदाय की पहली पीढ़ी के बच्चों को पढ़ाकर गांव के एक युवा ने आशा की एक किरण जगाई है।

Ramji MishraRamji Mishra   17 Sep 2021 7:07 AM GMT

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अकबरपुर (लखीमपुर खीरी), उत्तर प्रदेश। एक छोटे से मैदान में खुले आकाश के नीचे, कुछ बांस के डंडों और कपड़ों की पट्टियों से बाड़ बनाकर घेरा गया है। लखीमपुर खीरी जिले में बसे अकबरपुर गांव के बच्चे इसे अपनी कक्षा कहते हैं। बच्चों ने खाली बाड़े का निर्माण किया और अब प्रतिदिन अपने शिक्षक अनिल कुमार गौतम के एक-एक शब्द को बड़े ध्यान से धूल भरी जमीन पर बैठकर सुनते हैं। अनिल जी को बच्चे प्यार से 'गुरुजी' या 'मास्टर जी' भी कहकर बुलाते हैं।

जमीन पर छात्रों के झुंड में बैठे अपने शिक्षक की बात सुनने वालों में से एक असीम है, जो अपने माता-पिता के साथ पास के शहर में भीख मांगकर अभी-अभी गांव लौटा है। अकबरपुर की इस अस्थायी कक्षा में यामिनी, श्यामल, बलदीप और कुछ अन्य छात्र भी असीम की तरह भीख मांगते थे।

ये बच्चे कंजर समुदाय से ताल्लुक रखते हैं, जो परंपरागत रूप से भीख मांगता रहा है और इनका कोई भी सदस्य कभी स्कूल नहीं गया। गौतम की कक्षा में 25 छात्रों का यह झुंड अकबरपुर के कंजर समुदाय की पहली पीढ़ी के छात्र हैं, जो कि स्कूल आए हैं।

इस नई शुरुआत का श्रेय गांव के 25 वर्षीय युवक गौतम को जाता है, जिन्होंने कंजर समुदाय के बच्चों को शिक्षित करने का जिम्मा अपने ऊपर लिया। यह समुदाय अनुसूचित जाति (एससी) में आता है। गौतम खुद गांव के एक अन्य अनुसूचित समुदाय से हैं।

गांव के युवा शिक्षक गौतम ने गांव कनेक्शन से कहा, "एक दिन यह विचार मेरे दिमाग में आया कि मैं जिन छोटे बच्चों को गांव में हंसते, खेलते देखता हूं, वे जल्द ही शहरों और कस्बों की गलियों में भीख मांगने निकल जाएंगे। इस बात ने मुझे परेशान कर दिया।"

उन्होंने आगे कहा, "मैं इन बच्चों के जीवन में एक नया अध्याय लिखना चाहता था, इसलिए मैंने उनके माता-पिता को से बात की और उन्हें पढ़ने के लिए राजी करवाया। अभी लगभग 25 छात्र अपनी दैनिक कक्षाओं के लिए मेरे पास आते हैं।"

गौतम अपने पिता की बीमारी के कारण अपनी बैचलर ऑफ एजुकेशन (बी.एड) की डिग्री पूरी नहीं कर सके। लेकिन उन्होंने अपने सपने को नहीं छोड़ा और आज वह सबसे हाशिए के ग्रामीण बच्चों को पढ़ा रहे हैं।

गौतम इन बच्चों को शिक्षा देने की राह पर आगे बढ़ने की उम्मीद करते हैं, सभी तस्वीरें: गांव कनेक्शन

आशा की एक किरण

अकबरपुर उत्तर प्रदेश के हजारों अन्य गांवों की तरह है, जहां आपको बदहाली और जर्जर बुनियादी ढांचे की तस्वीर ही दिखाई देगी। गांव की लगभग 800 की आबादी का 50 प्रतिशत हिस्सा कंजर समुदाय से है, जो जीविकोपार्जन के लिए भीख मांगता है। मुख्य रूप से इस समुदाय की महिलाएं और बच्चे भीख मांगते हैं। कभी-कभी पूरा परिवार अकबरपुर से बाहर निकलकर राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली तक पहुंच जाता है और भीख मांगता है। पीढ़ियों से इस समुदाय का कक्षाओं, स्कूलों या शिक्षा से कोई लेना-देना नहीं रहा है।

देश कोरोना महामारी से जूझ रहा है। इस महामारी ने शिक्षा प्रणाली को भी तबाह कर रखा है, लेकिन अकबरपुर के बच्चों के लिए ये आशा की किरण साबित हुई और भीख मांगने वाले हाथ अब किताब पकड़े हुए हैं।

गौतम के छात्र अंकुल ने गांव कनेक्शन को बताया,"तीन साल पहले मैं हर दिन भीख मांगा करता था। लेकिन, मास्टर जी ने मेरे माता-पिता से बात की और उन्हें बताया कि यह मेरी पढ़ाई करने की उम्र है न कि भीख मांगने की। अब मैं हिंदी पढ़ता हूं, कहानियां सुनाता हूं और गणित के सवाल हल कर लेता हूं ... मैं बड़ा होकर एक पुलिसकर्मी बनना चाहता हूं।"

कक्षा दो के छात्र अंकेश गांव कनेक्शन से बताते हैं, "मैं घर आने और स्कूल में शामिल होने से पहले दिल्ली में भीख मांग रहा था। गुरुजी ने मुझसे कहा कि मुझे पढ़ना चाहिए। मुझे पढ़ना पसंद है और मैंने फैसला किया है कि मैं फिर कभी भीख नहीं मांगूंगा। "

बलदीप ने एक ऐसी ही कहानी साझा की, "मैं अभी कक्षा चार में हूं। जब मैं छोटा था तब मैंने अपने माता-पिता के साथ दिल्ली के पास के कुछ गांवों में भीख मांगता था। जब मैं गांव वापस आया तो मास्टरजी ने मुझसे कहा कि मुझे अपने जीवन में कुछ बेहतर करने के बारे में सोचना चाहिए।"

ऊर्जा से भरे हुए असीम ने कहा, "मास्टरजी ने मुझे प्राथमिक विद्यालय में पंजीकृत किया और मैंने निश्चय किया है कि मैं अब मन लगाकर पढ़ाई करूंगा और फिर शहर भीख मांगने नहीं जाऊंगा।"

गौतम बच्चों से कोई फीस नहीं लेते हैं

परिवर्तन की बयार

गौतम का इस मिशन में साथ देती हैं कमला और कुसुम, जो अकबरपुर के प्राइमरी स्कूल में खाना बनाती हैं। बच्चे उन्हें प्यार से 'अम्मा' बुलाते हैं। गौतम ने इन बच्चों को 2006 में स्थापित एक स्थानीय सरकारी स्कूल में पंजीकृत कराया था और अब इसमें 161 बच्चे पंजीकृत हैं।

कमला ने गांव कनेक्शन को बताया, "इन बच्चों के माता-पिता इनसे भीख मांगवाते थे। लेकिन अब, वे इन्हें पढ़ने के लिए स्कूल भेजते हैं।"

कमला ने बताया कि पहले बच्चे स्कूल नहीं आते थे इसलिए वह उनके घर गईं और उन्हें स्कूल आने के लिए मनाया। इसके लिए कई बार वे बच्चों को भोजन का भी लालच देती थी।

स्कूल के रसोइये ने कहा,"बच्चे स्कूल (मध्याह्न भोजन) में दिए जाने वाले ताजे पके भोजन का आनंद लेते हैं। ज्यादातर बच्चे अब पढ़ाई करने और सफल होने के लिए स्कूल आ रहे हैं।" वह गर्व से मुस्कुराते हुए कहती हैं, 'हमारा गांव बदल रहा है।'

गांव के एक प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक महेश कुमार ने गांव कनेक्शन को बताया,"पिछले कुछ वर्षों में बदलाव देखा गया है। जो बच्चे भिक्षा लेने के लिए अपने गले में कपड़े का थैला लेकर घूमते थे, वे अब किताबों और पेंसिल से भरा बैग लेकर स्कूल आ रहे हैं।"

गौतम ने बताया कि जिन बच्चों का दाखिला स्थानीय प्राथमिक विद्यालय में हुआ है उनमें से कुछ गौतम के पास भी पढ़ने के लिए आते हैं।

गौतम कहते हैं, "मैं लगभग पच्चीस बच्चों को पढ़ाता हूं। लेकिन कई उनके माता-पिता उन्हें दूसरे शहरों और गांवों में भीख मांगने के लिए ले जाते हैं और वे बच्चे फिर इन कक्षाओं से वंचित रह जाते हैं। "

मास्टरजी ने कहा, "काश मेरे पास और साधन होते। बच्चों ने इस कक्षा में साफ-सफाई की है और बाड़ लगाया है। इसके लिए उन्होंने अपने पुराने कपड़ों का इस्तेमाल किया है। उनकी मदद से मैंने एक बोर्ड तैयार किया है जिसे मैं ब्लैकबोर्ड के रूप में उपयोग करता हूं।"

उन्होंने आगे कहा, "बच्चे सीखने के लिए इतने उत्साहित हैं कि वे हमारी कक्षा को आरामदायक बनाने के लिए हर संभव कोशिश करते हैं।"

गौतम छात्रों से कोई शुल्क नहीं लेते हैं और पिछले कुछ वर्षों से उन्हें मुफ्त में पढ़ा रहे हैं। हालांकि, पिछले कुछ महीनों में अपने बच्चों में सकारात्मक बदलावों को देखते हुए कुछ माता-पिता ने अपने मन से उन्हें कुछ न्यूनतम शुल्क देना शुरू कर दिया है।

गौतम ने कहा, "मुझे लगभग पंद्रह सौ रुपये से दो हजार रुपये महीने मिल जाते हैं, लेकिन वे मुझे भुगतान करे या न करें, ये कक्षाएं नहीं रुकेंगी।" जब महामारी के दौरान स्कूल बंद हो गए, तब भी कुछ बच्चों के साथ गौतम की बाहरी सामुदायिक कक्षाएं जारी रहीं।

गौतम कुछ सालों से उन्हें मुफ्त में शिक्षा दे रहे हैं

अवसर की एक खिड़की

गांव के कई युवाओं को इस बात का मलाल है कि उन्हें शिक्षित होने का मौका नहीं मिला। एक 28 वर्षीय दिहाड़ी मजदूर, अन्नू ने गांव कनेक्शन को बताया,"मेरे पूर्वजों ने गुजारा करने के लिए भीख मांगा, मेरे माता-पिता को भी यही करना पड़ा, लेकिन मुझे इससे नफरत थी। मैं किसी तरह राजमिस्त्री बनने में कामयाब रहा और इस तरह मैं अपना जीवन यापन करता हूं। "

उन्होंने आगे कहा, "मैं अपना काम अच्छी तरह से जानता हूं, लेकिन अगर मुझे माप आदि लिखना है, तो मुझे ऐसा करने के लिए किसी और पर निर्भर रहना पड़ता है क्योंकि मैं पढ़ा- लिखा नहीं हूं। इससे मुझे दुख होता है। लेकिन अपने गांव के छोटे बच्चों को पढ़ते हुए देखकर खुशी भी मिलती है।"

अकबरपुर के निवासियों के अनुसार, बच्चों का स्कूल जाना और मास्टरजी की कक्षाओं में शामिल होना उनके गांव में एक सामाजिक परिवर्तन की शुरुआत है। यह एक धीमा लेकिन निश्चित बदलाव है।

32 वर्षीय सतीश ने गांव कनेक्शन को बताया, "हम में से बहुत से लोग अब दिहाड़ी मजदूर हैं। लेकिन यह हमारे पेट भरने के लिए पर्याप्त नहीं है इसलिए हम भीख भी मांगते हैं। लेकिन हमारी संख्या अब बहुत कम है। "

बच्चों को शिक्षित करने के बारे में उन्होंने कहा, "जिनके पास ऐसा करने का साधन है, वे उन्हें स्कूल भेजते हैं। बाकि जो नहीं कर पाते वे उन्हें भीख मांगने के लिए भेज देते हैं।"

इस बीच गौतम ने बच्चों को शिक्षित करने की अपनी लड़ाई जारी रखी है। उन्होंने अंत में कहा,"मुझे आशा है कि हम शिक्षा प्रदान करने की राह पर आगे बढ़ेंगे और हमारी यात्रा में कोई बाधा नहीं आएगी।"

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