ऐसी प्रथा जिसमें रोपनी, कटनी से लेकर शादी-ब्याह में करते हैं मदद
गाँव कनेक्शन | May 24, 2019, 07:35 IST
मो. असग़र खान
कम्युनिटी जर्नलिस्ट
रांची (झारखंड)। पिछले दिनों सोशल मीडिया पर एक फोटो वायरल हो रही थी, राजस्थान के जोधपुर में एक परिवार में बेटे की मौत के दु:ख में शामिल होने आए रिश्तेदारों गेहूं की फसल काटने में मदद की। ये तो एक उदाहरण है जिसमें लोग एक दूसरे की मदद के लिए तैयार रहते हैं। लेकिन झारखंड में एकदूसरे की मदद की एक ऐसी ही प्रथा 'मदईत' बरसों से चली आ रही है।
रोपनी कटनी, घर मरम्मत, छप्पर छावनी, शादी ब्याह में, मुसीबत परेशानी में, संगठन के हर एक सदस्य को हर एक के लिए हर वक्त खड़ा रहना अनिवार्य है।
रांची से करीब 40 किलोमीटर दूर बेड़ो प्रखंड के अंतर्गत आना वाला हरिहरपुर जामटोली पंचायत के खक्सी टोला में ये सब अनिवार्य है। यहां पूर्वजों से चली आ रही एक प्रथा है, जिसका नाम 'मदईत' है यानी एक दूसरे की मदद करना। इसी समूहिकता के इर्दगिर्द गांव के मसले मसाइल का हल होता है और यही परंपरा इस गांव को झारखंड के और गांवों से अलग कहने की वजह है।
सुधीर मिंज मदईत के बारे और कुछ बताने से पहले वो अपने घर से कुछ ही दूरी पर बनाए जा रहे घर के पास लेकर पहुंचते हैं और कहते हैं, "आप खुद से ही देख लीजिए, संयोग से आप जिस बारे में पता करने आएं वो आपको मिल भी गया।"
यहां गांव के ही जीवन खलकों मकान बन रहा है। बांस-बल्ली को टांगी से काटा-छांटा जा रहा है, और मिट्टी के गिलावे से दीवार खड़ी की जा रही। इसमें सुका उरांव, गणेश उरांव, पीटर उरांव, फूलचंद उरांव, भंगरा उरांव और सुधीर मिंज पिछले कई दिनों से लगें। और बिना मजदूरी के लगे इन लोगों के लिए जीवन खलको की पत्नी दयामनी खलको दो वक्त का खाना बनाने में लगी हैं।
सुधीर मिंज आगे अपनी बात पूरी करते हुए कहते हैं, "यह घर मदईत प्रथा के तहत बन रहा है। बिना मजदूरी लिए ये सभी लोग पूरे घर को बनाएंगे। इसके बदले जिसका घर बन रहा उसे सिर्फ दो वक्त खाना खिलाना पड़ता है। इसी तरह कहीं शादी है तो उसे पैसे से मदद की जाती है। किसी के खेत में कटनी या रोपनी लगी है तो वहां गांव के हर घर से लोग जाकर रोपनी-कटनी करते हैं। मदईत प्रथा के बिना हमारी जिंदगी अधूरी है। यह हमारे पूर्वजों की वो देन है जो जीवन का सहारा है।"
गांव घूमने पर प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत बने कुछ पक्के के मकान भी दिखते हैं। खास बात यह है कि इसे बनाने में जो सामग्री लगी है उसे भले ही खरीदा गया, मगर मजदूर कोई बाहर नहीं आया बल्कि इसी मदईत के तहत गांव के लोगों ने इसका निर्माण किया है।
हरिहरपुर जामटोली पंचायत के मुखिया सुनील कच्छप बताते हैं, "हर सप्ताह ग्राम सभा में विधि व्यवस्था को लेकर बैठक होती है। समस्या के निपटारे के लिए विचार-विर्मश होता है। मदईत प्रथा के चलते गांव में किसी घर में मुसीबत परेशानी नहीं के बराबर है। आर्थिक परेशानी का लोगों को एहसास तक नहीं होता क्योंकि मदईत हमारे लिए बैंक की तरह भी काम करता है। गांव में हमने बिना सरकारी सहायता के तालाब, डोभा भी बनाए हैं। आप इसे गांव की सरकार कह सकते हैं, जिसका मुखिया हर कोई होता है, लेकिन हेड कोई नहीं।"
हालांकि इस पंचायत में जमनी, पंडरा, बोंदा, भसनंदा, जहनाबाज, महरू समेत कई और टोला मोहल्ला भी है जहां मदईत के तहत एक दूसरे की मदद की जाती है।
गांव में कई टाना भगत भीं रहते हैं, जो अपने पूर्वजों से मदईत को मानते आ रहे हैं। इन्हीं में से एक सत्तर साल के भंगरा टाना भगत हैं, जो कहते हैं कि खक्सी टोला में मदईत बहुत विशेष है और यहां जैसा और जगह नहीं है।
वो बताते हैं, "हमारे गांव में हर गुरूवार को मीटिंग होती है। मीटिंग में पूरा बस्ती बैठता है। जिसकी जो परेशानी है रहती है उसे हल किया जाता है। जैसे आपको घर बनना है, किसी के यहां शादी है या और कुछ। उसी रोज तय पाता है कि उसकी मदद की जाएगी। और तुरंत किया जाता है, शादी ब्याह में तो हर घर पर पांच पांच हजार रुपया बांध दिया जाता है। आपको यहां जैसा मदद करने की प्रथा कहीं नहीं मिलेगी।"
यही कहना गांव के मुखिया सुनिल कच्छप का भी है। इनके मुताबिक गांव में जो सरकार के द्वारा व्यवस्था नहीं हो पाती है, उसे गांव में बैठक कर इसी मदईत से हल कर लिया जाता है।
सुनील कच्छप कहते हैं कि ग्रामीणों की निर्भरता सरकार की योजनाओं से कहीं अधिक मदईत पर है। गांव में चाहे लड़की की शादी हो या लड़के की। उसे गांव के हर घर से गल्ला, सब्जी, पैसा देकर उसकी मदद की जाती है।
अश्विनी पंकज यह भी मानते हैं कि यह परंपरा पहले की तरह आदिवासियों के बीच अब देखने को नहीं मिलती है और वो सामूहिकता भी नहीं।
अस्सी साल के सिमोन उरांव का पचास साल जल-जंगल को बचाने में बीत गया, संघर्ष के अनुसार उन्हें सफलता तो हासिल नहीं हुई, लेकिन इन्होंने एक ऐसी पीढ़ी तैयार कर दी है जो अब उनके कामों आगे बढ़ा रही है, फिलहाल वो पिछले पांच साल से अपने पुश्तैनी घर यानी खक्सी टोला से छह किलोमीटर दूर अपनी पत्नी और एक नथनी के साथ बेड़ो बजार के पास बने मकान में रह रहे हैं, 2016 में उन्हें जल और जंगल को सरंक्षणित करने के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया गया था।
खक्सी टोला से लौटते समय जब सिमोन उरांव से मिलने उनके खपरैल मकान में पहुंचा तो वो आंगन में खाकी रंग के पेवन लगे हुए कपड़े पहने कुर्सी पर बैठे थें और झोल से भरी दीवारों पर पद्मश्री समेत कई प्रश्स्ति पत्र और दर्जनों अखबारों की कटिंग के फ्रेम टंगे दिखें।
सिमोन उरांव मदईत के बारे में बताते हैं, "पहले पूर्खा लोग पच्चा (मदईत को किसी किसी गांव पच्चा भी कहते हैं) किया करता था। गांव में सामूहिक पच्चा कर बड़े बड़े जमीन बन गया, खांड़ों, बांध, पोहरा ( बड़ा बड़ा तालाब, बांध, पोखर) सब बन गया उसी से। हमरा से बहुत पहले चला आ रहा है। सुरूए से दादू लोग करता आ रहा है। लड़का लड़की का झमेला है, जमीन जायदाद का झमेला है, परिवार का झमेला है। सब इसी से निपटता हैं।"
सिमोन उरांव पर डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाने वाले व नेशनल आवार्ड से सम्मानित बीजू टोप्पो कहते हैं, "हमारे समाज में एक चीज सबसे खास नजर आती है वो है मदईत प्रथा। जब मैं सिमोन उरांव पर फिल्म बना रहा था तो मुझे मदईत प्रथा का अच्छा उदाहरण मिला जो सिर्फ उनके गांव में है। इसको मैंने अपनी फिल्म में भी दिखाया है। ऐसी प्रथा पहले तो पूरे झारखंड में देखने को मिलती थी, लेकिन समय के साथ धीरे धीरे ये खत्म हो गया।"
सिमोन ने उरांव हर मिलने-जुलने वालों से कहते हैं, "हमारा सिंद्धात है कि जिसको कमाना है तो जमीन से लड़ो और बिजनेस करो. और जिसको बर्रबाद होना तो आदमी से लड़ो. जिसको प्रेम नहीं है तो दुनिया का कोई धर्म नहीं है। जो आदमी सहता है वो आदमी लहता है। जैसे आपको हम गरिया दिएं आप झगड़ने के बजाय चुप रहें।"
कम्युनिटी जर्नलिस्ट
रांची (झारखंड)। पिछले दिनों सोशल मीडिया पर एक फोटो वायरल हो रही थी, राजस्थान के जोधपुर में एक परिवार में बेटे की मौत के दु:ख में शामिल होने आए रिश्तेदारों गेहूं की फसल काटने में मदद की। ये तो एक उदाहरण है जिसमें लोग एक दूसरे की मदद के लिए तैयार रहते हैं। लेकिन झारखंड में एकदूसरे की मदद की एक ऐसी ही प्रथा 'मदईत' बरसों से चली आ रही है।
रोपनी कटनी, घर मरम्मत, छप्पर छावनी, शादी ब्याह में, मुसीबत परेशानी में, संगठन के हर एक सदस्य को हर एक के लिए हर वक्त खड़ा रहना अनिवार्य है।
रांची से करीब 40 किलोमीटर दूर बेड़ो प्रखंड के अंतर्गत आना वाला हरिहरपुर जामटोली पंचायत के खक्सी टोला में ये सब अनिवार्य है। यहां पूर्वजों से चली आ रही एक प्रथा है, जिसका नाम 'मदईत' है यानी एक दूसरे की मदद करना। इसी समूहिकता के इर्दगिर्द गांव के मसले मसाइल का हल होता है और यही परंपरा इस गांव को झारखंड के और गांवों से अलग कहने की वजह है।
खक्सी टोला पद्मश्री सिमोन उरांव का पुश्तैनी गांव है। यहां करीब 70 घरों की आबादी है। पर यहां यह अनोखी रिवायत (प्रथा) और गाँवों पर भारी है। मदईत झारखंड के आदिवासियों की पारंपरिक प्रथा बताई जाती है, मगर खक्सी टोला में इसकी मान-मान्यता के महत्व अलग हैं। इसी के तहत गांव में रहने वाले हर परिवार के आर्थिक समस्याओं से लेकर उनके परिवारिक अंतर्कलह तक का निपटारा किया जाता है।
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यहां गांव के ही जीवन खलकों मकान बन रहा है। बांस-बल्ली को टांगी से काटा-छांटा जा रहा है, और मिट्टी के गिलावे से दीवार खड़ी की जा रही। इसमें सुका उरांव, गणेश उरांव, पीटर उरांव, फूलचंद उरांव, भंगरा उरांव और सुधीर मिंज पिछले कई दिनों से लगें। और बिना मजदूरी के लगे इन लोगों के लिए जीवन खलको की पत्नी दयामनी खलको दो वक्त का खाना बनाने में लगी हैं।
सुधीर मिंज आगे अपनी बात पूरी करते हुए कहते हैं, "यह घर मदईत प्रथा के तहत बन रहा है। बिना मजदूरी लिए ये सभी लोग पूरे घर को बनाएंगे। इसके बदले जिसका घर बन रहा उसे सिर्फ दो वक्त खाना खिलाना पड़ता है। इसी तरह कहीं शादी है तो उसे पैसे से मदद की जाती है। किसी के खेत में कटनी या रोपनी लगी है तो वहां गांव के हर घर से लोग जाकर रोपनी-कटनी करते हैं। मदईत प्रथा के बिना हमारी जिंदगी अधूरी है। यह हमारे पूर्वजों की वो देन है जो जीवन का सहारा है।"
गांव में एक संगठन है जो मदईत के नियमावाली के अनुसार गांव का संचालन करता है। हर घर से इसमें एक सदस्य है, जिनपर मदईत के नियमों का अनुपालन अनिवार्य है। नियमों का नहीं मानने पर जुर्माना या सामाजिक दंड दिया जाता है।
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हरिहरपुर जामटोली पंचायत के मुखिया सुनील कच्छप बताते हैं, "हर सप्ताह ग्राम सभा में विधि व्यवस्था को लेकर बैठक होती है। समस्या के निपटारे के लिए विचार-विर्मश होता है। मदईत प्रथा के चलते गांव में किसी घर में मुसीबत परेशानी नहीं के बराबर है। आर्थिक परेशानी का लोगों को एहसास तक नहीं होता क्योंकि मदईत हमारे लिए बैंक की तरह भी काम करता है। गांव में हमने बिना सरकारी सहायता के तालाब, डोभा भी बनाए हैं। आप इसे गांव की सरकार कह सकते हैं, जिसका मुखिया हर कोई होता है, लेकिन हेड कोई नहीं।"
हालांकि इस पंचायत में जमनी, पंडरा, बोंदा, भसनंदा, जहनाबाज, महरू समेत कई और टोला मोहल्ला भी है जहां मदईत के तहत एक दूसरे की मदद की जाती है।
गांव में कई टाना भगत भीं रहते हैं, जो अपने पूर्वजों से मदईत को मानते आ रहे हैं। इन्हीं में से एक सत्तर साल के भंगरा टाना भगत हैं, जो कहते हैं कि खक्सी टोला में मदईत बहुत विशेष है और यहां जैसा और जगह नहीं है।
वो बताते हैं, "हमारे गांव में हर गुरूवार को मीटिंग होती है। मीटिंग में पूरा बस्ती बैठता है। जिसकी जो परेशानी है रहती है उसे हल किया जाता है। जैसे आपको घर बनना है, किसी के यहां शादी है या और कुछ। उसी रोज तय पाता है कि उसकी मदद की जाएगी। और तुरंत किया जाता है, शादी ब्याह में तो हर घर पर पांच पांच हजार रुपया बांध दिया जाता है। आपको यहां जैसा मदद करने की प्रथा कहीं नहीं मिलेगी।"
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यही कहना गांव के मुखिया सुनिल कच्छप का भी है। इनके मुताबिक गांव में जो सरकार के द्वारा व्यवस्था नहीं हो पाती है, उसे गांव में बैठक कर इसी मदईत से हल कर लिया जाता है।
सुनील कच्छप कहते हैं कि ग्रामीणों की निर्भरता सरकार की योजनाओं से कहीं अधिक मदईत पर है। गांव में चाहे लड़की की शादी हो या लड़के की। उसे गांव के हर घर से गल्ला, सब्जी, पैसा देकर उसकी मदद की जाती है।
आदिवासी संस्कृति के जानकार और लेखक अश्विनी पंकज कहते हैं, "मदईत आदिवासियों की एक पारंपारिक प्रथा है। यह आदिवासी समूहिकता की पहचान है। मदईत के तहत एक दूसरे की मदद के लिए एकजुट होना आदिवासियों की बेसकि ऑडियोंलोजी का एक बड़ा उदाहरण है.
अस्सी साल के सिमोन उरांव का पचास साल जल-जंगल को बचाने में बीत गया, संघर्ष के अनुसार उन्हें सफलता तो हासिल नहीं हुई, लेकिन इन्होंने एक ऐसी पीढ़ी तैयार कर दी है जो अब उनके कामों आगे बढ़ा रही है, फिलहाल वो पिछले पांच साल से अपने पुश्तैनी घर यानी खक्सी टोला से छह किलोमीटर दूर अपनी पत्नी और एक नथनी के साथ बेड़ो बजार के पास बने मकान में रह रहे हैं, 2016 में उन्हें जल और जंगल को सरंक्षणित करने के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया गया था।
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खक्सी टोला से लौटते समय जब सिमोन उरांव से मिलने उनके खपरैल मकान में पहुंचा तो वो आंगन में खाकी रंग के पेवन लगे हुए कपड़े पहने कुर्सी पर बैठे थें और झोल से भरी दीवारों पर पद्मश्री समेत कई प्रश्स्ति पत्र और दर्जनों अखबारों की कटिंग के फ्रेम टंगे दिखें।
सिमोन उरांव मदईत के बारे में बताते हैं, "पहले पूर्खा लोग पच्चा (मदईत को किसी किसी गांव पच्चा भी कहते हैं) किया करता था। गांव में सामूहिक पच्चा कर बड़े बड़े जमीन बन गया, खांड़ों, बांध, पोहरा ( बड़ा बड़ा तालाब, बांध, पोखर) सब बन गया उसी से। हमरा से बहुत पहले चला आ रहा है। सुरूए से दादू लोग करता आ रहा है। लड़का लड़की का झमेला है, जमीन जायदाद का झमेला है, परिवार का झमेला है। सब इसी से निपटता हैं।"
सिमोन उरांव पर डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाने वाले व नेशनल आवार्ड से सम्मानित बीजू टोप्पो कहते हैं, "हमारे समाज में एक चीज सबसे खास नजर आती है वो है मदईत प्रथा। जब मैं सिमोन उरांव पर फिल्म बना रहा था तो मुझे मदईत प्रथा का अच्छा उदाहरण मिला जो सिर्फ उनके गांव में है। इसको मैंने अपनी फिल्म में भी दिखाया है। ऐसी प्रथा पहले तो पूरे झारखंड में देखने को मिलती थी, लेकिन समय के साथ धीरे धीरे ये खत्म हो गया।"
सिमोन ने उरांव हर मिलने-जुलने वालों से कहते हैं, "हमारा सिंद्धात है कि जिसको कमाना है तो जमीन से लड़ो और बिजनेस करो. और जिसको बर्रबाद होना तो आदमी से लड़ो. जिसको प्रेम नहीं है तो दुनिया का कोई धर्म नहीं है। जो आदमी सहता है वो आदमी लहता है। जैसे आपको हम गरिया दिएं आप झगड़ने के बजाय चुप रहें।"