इस नई पद्धति से किसानों को मिलेगी ज्यादा पैदावार
Divendra Singh | Sep 18, 2018, 11:47 IST
इस अध्ययन के दौरान उच्च उत्पादकता क्षेत्रों में तिल व सूरजमुखी की खेती परीक्षण के तौर पर की गई है। सामान्य कृषि पद्धतियों से तिल और सूरजमुखी की 10-15 प्रतिशत अधिक पैदावार मिली है।
लखनऊ। अक्सर किसान सही जानकारी न होने पर ऐसे क्षेत्रों में उन फसलों की खेती करते हैं, जहां पर उन फसलों की पैदावार न के बराबर होती है। ऐसे में वैज्ञानिकों ने एक ऐसी तकनीक विकसित की है, जिसकी मदद से विभिन्न फसलों के उत्पादन के लिए अधिक उत्पादकता वाले क्षेत्रों की पहचान की जा सकती है।
ऐसे क्षेत्रों में मिट्टी और जलवायु के अनुकूल फसलों की खेती की जा सकेगी, जिससे अधिक पैदावार और बेहतर मुनाफा मिल सकता है। भूमि उपयोग संबंधी नीतियों के निर्माण में भी यह पद्धति मददगार हो सकती है। वैज्ञानिकों ने मिट्टी की गहराई, बनावट, गुरुत्वाकर्षण, मिट्टी की प्रतिक्रिया, अंतर्निहित मिट्टी की उर्वरता, ढलान, क्षरण और जलवायु को केंद्र में रखकर राष्ट्रीय स्तर पर 668 भूमि प्रबंधन इकाइयों की पहचान की है और फिर उनका कृषि प्राथमिकता वाले क्षेत्रों के रूप में मूल्यांकन किया है।
ये भी पढ़ें : तालाब नहीं खेत में सिंघाड़ा उगाता है ये किसान, कृषि मंत्री राधामोहन सिंह ने भी किया है सम्मानित
इस अध्ययन के दौरान उच्च उत्पादकता क्षेत्रों में तिल व सूरजमुखी की खेती परीक्षण के तौर पर की गई है। सामान्य कृषि पद्धतियों से तिल और सूरजमुखी की 10-15 प्रतिशत अधिक पैदावार मिली है। वहीं, बेहतर फसल प्रबंधन प्रक्रियाओं से मध्यम उत्पादकता वाले क्षेत्रों में इन दोनों फसलों की खेती से 20-26 प्रतिशत और सीमांत उत्पादकता वाले क्षेत्रों में 23-32 प्रतिशत अधिक उत्पादन मिला है।
इस अध्ययन से जुड़े राष्ट्रीय मृदा सर्वेक्षण एवं भूमि उपयोग नियोजन ब्यूरो के बंगलुरु स्थित क्षेत्रीय केंद्र के शोधकर्ता डॉ. वी. राममूर्ति ने बताया, "विभिन्न फसलों के लिए अधिक उत्पादकता वाले क्षेत्रों की पहचान के लिए विकसित यह द्विस्तरीय पद्धति है। इसके पहले चरण के अंतर्गत उत्पादन क्षेत्र, विशिष्ट फसल, उत्पादकता, जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर कुल कृषि योग्य भूमि संबंधी पिछले पांच वर्षों के आंकड़ों का उपयोग किया गया है। मिट्टी संबंधी मापदंडों और फसल की आवश्यकतों के आधार पर संबंधित भूमि प्रबंधन इकाई का मूल्यांकन किया गया है।"
विभिन्न क्षेत्रों में भूमि की बढ़ती मांग के कारण प्रमुख कृषि भूमियों का उपयोग गैर-कृषि कार्यों के लिए बढ़ रहा है और प्रति व्यक्ति कृषि भूमि कम हो रही है। ऐसे में बढ़ती आबादी की खाद्य जरूरतों को पूरा करने के लिए वर्ष 2030 तक प्राथमिक कृषि भूमि बेहद कम हो सकती है।
सूरजमुखी की खेती के लिए प्रभावी क्षेत्र
वैज्ञानिकों के अनुसार, चावल, गेहूं, कपास, मक्का जैसी विभिन्न फसलों के मुताबिक प्रभावी उत्पादन क्षेत्रों और विशेष कृषि क्षेत्रों की पहचान करना जरूरी है। ऐसा करने से कृषि इनपुट्स का कुशलता से उपयोग किया जा सकेगा और संसाधनों की बचत के साथ-साथ बेहतर उत्पादन प्राप्त किया जा सकेगा।
डॉ. राममूर्ति ने बताया, "भूमि संसाधन मानचित्र पहले से ही उपलब्ध हैं। इन मानचित्रों से मिलने वाली जानकारी मैपिंग इकाई पर आधारित होती है जो जिला या ब्लॉक जैसी प्रशासनिक सीमाओं का प्रतिनिधित्व नहीं करती। जबकि, फसल मानचित्र सिर्फ फसलों के वितरण और उत्पादकता की जानकारी प्रदान करते हैं। फसलों के रकबे या उत्पादकता के आंकड़े गतिशील होते हैं और वे जलवायु स्थितियों पर निर्भर करते हैं। इसीलिए, मिट्टी की विशेषताओं और फसल आवश्यकताओं के साथ उस स्थान की जलवायु का मिलान किए बिना भूमि संसाधन मानचित्रों से प्राप्त अलग-अलग मापदंडों से जुड़ी जानकारी से स्पष्ट तौर पर पता नहीं चल पाता कि किस स्थान पर कौन-सी फसल की खेती की जा सकती है।
अध्ययनकर्ताओं के अनुसार, "भूमि संसाधन मानचित्र और फसल मानचित्र किसी विशिष्ट फसल की क्षमता या उपयुक्तता पर अधिक जानकारी प्रदान नहीं करते। इन सभी बिंदुओं को ध्यान में रखते हुए राज्य और जिले के भीतर विशेष फसल के संभावित क्षेत्रों की पहचान और चित्रण करने के लिए मिट्टी की उपयुक्तता तथा सापेक्ष विस्तार सूचकांक (आरएसआई) और सापेक्ष उपज सूचकांक (आरवाईआई) को एकीकृत किया गया है। इसकी मदद से यह जाना जा सकता है कि किस जिले में कौन-सा ब्लॉक कौन-सी फसल की खेती के लिए अधिक उपयुक्त है।"
"इस अध्ययन में पहचाने गए क्षेत्रों में ऐसी प्राथमिक कृषि क्षेत्र शामिल हैं, जिन्हें खाद्यान्न सुरक्षा बनाए रखने के लिए संरक्षित किया जाना जरूरी, "डॉ. राममूर्ति ने बताया। अध्ययनकर्ताओं में डॉ. राममूर्ति के अलावा एस. चटराज तथा एस.के. सिंह और आर.पी. यादव शामिल थे। यह अध्ययन शोध पत्रिका करंट साइंस में प्रकाशित किया गया है। (इंडिया साइंस वायर)
ऐसे क्षेत्रों में मिट्टी और जलवायु के अनुकूल फसलों की खेती की जा सकेगी, जिससे अधिक पैदावार और बेहतर मुनाफा मिल सकता है। भूमि उपयोग संबंधी नीतियों के निर्माण में भी यह पद्धति मददगार हो सकती है। वैज्ञानिकों ने मिट्टी की गहराई, बनावट, गुरुत्वाकर्षण, मिट्टी की प्रतिक्रिया, अंतर्निहित मिट्टी की उर्वरता, ढलान, क्षरण और जलवायु को केंद्र में रखकर राष्ट्रीय स्तर पर 668 भूमि प्रबंधन इकाइयों की पहचान की है और फिर उनका कृषि प्राथमिकता वाले क्षेत्रों के रूप में मूल्यांकन किया है।
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इस अध्ययन से जुड़े राष्ट्रीय मृदा सर्वेक्षण एवं भूमि उपयोग नियोजन ब्यूरो के बंगलुरु स्थित क्षेत्रीय केंद्र के शोधकर्ता डॉ. वी. राममूर्ति ने बताया, "विभिन्न फसलों के लिए अधिक उत्पादकता वाले क्षेत्रों की पहचान के लिए विकसित यह द्विस्तरीय पद्धति है। इसके पहले चरण के अंतर्गत उत्पादन क्षेत्र, विशिष्ट फसल, उत्पादकता, जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर कुल कृषि योग्य भूमि संबंधी पिछले पांच वर्षों के आंकड़ों का उपयोग किया गया है। मिट्टी संबंधी मापदंडों और फसल की आवश्यकतों के आधार पर संबंधित भूमि प्रबंधन इकाई का मूल्यांकन किया गया है।"
सूरजमुखी की खेती के लिए प्रभावी क्षेत्र
सूरजमुखी की खेती के लिए प्रभावी क्षेत्र
वैज्ञानिकों के अनुसार, चावल, गेहूं, कपास, मक्का जैसी विभिन्न फसलों के मुताबिक प्रभावी उत्पादन क्षेत्रों और विशेष कृषि क्षेत्रों की पहचान करना जरूरी है। ऐसा करने से कृषि इनपुट्स का कुशलता से उपयोग किया जा सकेगा और संसाधनों की बचत के साथ-साथ बेहतर उत्पादन प्राप्त किया जा सकेगा।
डॉ. राममूर्ति ने बताया, "भूमि संसाधन मानचित्र पहले से ही उपलब्ध हैं। इन मानचित्रों से मिलने वाली जानकारी मैपिंग इकाई पर आधारित होती है जो जिला या ब्लॉक जैसी प्रशासनिक सीमाओं का प्रतिनिधित्व नहीं करती। जबकि, फसल मानचित्र सिर्फ फसलों के वितरण और उत्पादकता की जानकारी प्रदान करते हैं। फसलों के रकबे या उत्पादकता के आंकड़े गतिशील होते हैं और वे जलवायु स्थितियों पर निर्भर करते हैं। इसीलिए, मिट्टी की विशेषताओं और फसल आवश्यकताओं के साथ उस स्थान की जलवायु का मिलान किए बिना भूमि संसाधन मानचित्रों से प्राप्त अलग-अलग मापदंडों से जुड़ी जानकारी से स्पष्ट तौर पर पता नहीं चल पाता कि किस स्थान पर कौन-सी फसल की खेती की जा सकती है।
अध्ययनकर्ताओं के अनुसार, "भूमि संसाधन मानचित्र और फसल मानचित्र किसी विशिष्ट फसल की क्षमता या उपयुक्तता पर अधिक जानकारी प्रदान नहीं करते। इन सभी बिंदुओं को ध्यान में रखते हुए राज्य और जिले के भीतर विशेष फसल के संभावित क्षेत्रों की पहचान और चित्रण करने के लिए मिट्टी की उपयुक्तता तथा सापेक्ष विस्तार सूचकांक (आरएसआई) और सापेक्ष उपज सूचकांक (आरवाईआई) को एकीकृत किया गया है। इसकी मदद से यह जाना जा सकता है कि किस जिले में कौन-सा ब्लॉक कौन-सी फसल की खेती के लिए अधिक उपयुक्त है।"
"इस अध्ययन में पहचाने गए क्षेत्रों में ऐसी प्राथमिक कृषि क्षेत्र शामिल हैं, जिन्हें खाद्यान्न सुरक्षा बनाए रखने के लिए संरक्षित किया जाना जरूरी, "डॉ. राममूर्ति ने बताया। अध्ययनकर्ताओं में डॉ. राममूर्ति के अलावा एस. चटराज तथा एस.के. सिंह और आर.पी. यादव शामिल थे। यह अध्ययन शोध पत्रिका करंट साइंस में प्रकाशित किया गया है। (इंडिया साइंस वायर)