अब खेतों में काम करने के लिए भी मुश्किल से मिलते हैं मजदूर
Akash Singh | Mar 16, 2018, 18:34 IST
खेती से कम मुनाफा और शहरों की ओर बढ़ते पलायन की वजह से गांवों में खेती-किसानी के लिए मुश्किलें बढ़ रही हैं। आलम यह है कि किसानों को खेतों में काम करने के लिए मजदूर मिलना मुश्किल हो रहा है।
ग्रामीण क्षेत्रों में मजदूरों की बात की जाए तो उनको आज भी खेतों में निराई करने के लिए 60 से 70 रुपए प्रतिदिन दिए जाते हैं, जबकि आज के इस महंगाई के दौर में 60 से 70 रुपए में पूरे परिवार का जीवन यापन करना मुश्किल है। ऐसे में मजदूर शहरों में काम करना ही उचित समझते हैं।
उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले के सिद्धौर ब्लॉक के अजमल पट्टी गाँव के जैनेन्द्र अवस्थी (25 वर्ष) बताते हैं, “गाँव में हम लोग खेतों में निराई के लिए प्रतिदिन सिर्फ 60 से 70 रुपए प्रति व्यक्ति देते हैं और दूसरे कामों के लिए 100 से 150 रुपए, बल्कि शहरों में मजदूरी करके वही मजदूर 300 से 400 रुपए प्रतिदिन कमा लेता है। इसकी वजह से वह शहर की ओर निकल जाते हैं और खेतों में काम करने के लिए मजदूर नहीं मिल पाते।“
वहीं सिद्धौर ब्लॉक के ग्राम कमालाबाद के रहने वाले मोहन यादव (32 वर्ष), जो कि गुड़गांव की एक निजी कम्पनी में कार्यरत हैं, बताते हैं, “खेती का स्तर गांव में उतना नहीं है, जिससे कि किसान कुछ बचत कर पाए। किसानों को उनकी फसल का उचित मूल्य नहीं मिल पाता और यहां तक कि कभी-कभी तो किसान के लिए फसल का लागत मूल्य निकालना भी बहुत मुश्किल हो जाता है।”
वह आगे बताते हैं, “बहुत कम ही लोग व्यवसायिक खेती कर पाते हैं। लोग पारम्परिक खेती पर ही टिके हैं और लोगों को लगता है कि वो शहर में मजदूरी करने के बाद खेत में काम करने से ज्यादा कमा सकते हैं। इसी वजह से खेतों में काम करने के लिए मजदूर नहीं मिल पाते हैं और सभी शहरों की ओर भागते हैं।"
बाराबंकी के रहने वाले भीम सिंह (40 वर्ष) बताते हैं, “मूलभूत सुविधाओं का ग्रामीण क्षेत्रों में उपलब्ध न हो पाना और उद्योगों के अभाव के कारण ग्रामीण लोग शहरों में जाकर बसना चाहते हैं। यहां तक कि आज कल के युवाओं का किसानी से तो मोह ही भंग हो चुका है। सब गांव छोड़ शहर जाना चाहते हैं।"
ग्रामीण क्षेत्रों से लोगों का शहरों की ओर बढ़ते पलायन से कहीं न कहीं खेती भी प्रभावित हो रही है या यूं कहे कि लोगों का किसानी की ओर मोह भंग हो रहा है। इसका मुख्य कारण फसलों का उचित समर्थन मूल्य न मिलना भी है।
जिले के हैदरगढ़ निवासी रसायन विज्ञान से स्नातक मनमोहन शुक्ला (30 वर्ष) बताते हैं, “पलायन का मुख्य कारण ग्रामीण क्षेत्रों में देसी उद्योग धंधों का कम होना भी है क्योंकि ऐसे में मजदूर तबके का आदमी है, वो अपनी आय को अधिक करने के लिए शहर में जाकर मजदूरी करना चाहता है और वही अपना गुजर बसर करना चाहता है। अगर सरकार देसी उद्योग और खेती पर आधारित उद्योग धंधों को बढ़ावा दे तो गांव से पलायन को काफी हद तक कम किया जा सकता है।“
सरकार ने मनरेगा योजना के तहत ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को रोजगार उपलब्ध कराने के लिए इसकी शुरुआत की थी, लेकिन हाल यह है कि मजदूर जितने दिन मनरेगा में काम नहीं करता, उससे कई ज्यादा समय उसकी मजदूरी मिलने में लग जाता है।
जिले की सिद्धौर ब्लॉक के कोठी ग्राम पंचायत के प्रधान महेजबी के प्रतिनिधि मुशीर कुरैशी बताते हैं, "लोगों को रोजगार उपलब्ध करवाने के लिए सरकार ने जिस मनरेगा योजना की शुरुआत की थी, लोग उसमें भी अब काम नही करना चाहते हैं। कारण यह है कि मजदूर जितने दिन काम करता है, उससे कई ज्यादा समय उसकी मजदूरी का भुगतान होने में लग जाता है। मनरेगा में सिर्फ 170 से 175 रुपये ही प्रतिदिन मिलता है और वही मजदूर शहर जाकर 250 से 300 प्रतिदिन तक कमा लेता है।"
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ग्रामीण क्षेत्रों में मजदूरों की बात की जाए तो उनको आज भी खेतों में निराई करने के लिए 60 से 70 रुपए प्रतिदिन दिए जाते हैं, जबकि आज के इस महंगाई के दौर में 60 से 70 रुपए में पूरे परिवार का जीवन यापन करना मुश्किल है। ऐसे में मजदूर शहरों में काम करना ही उचित समझते हैं।
उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले के सिद्धौर ब्लॉक के अजमल पट्टी गाँव के जैनेन्द्र अवस्थी (25 वर्ष) बताते हैं, “गाँव में हम लोग खेतों में निराई के लिए प्रतिदिन सिर्फ 60 से 70 रुपए प्रति व्यक्ति देते हैं और दूसरे कामों के लिए 100 से 150 रुपए, बल्कि शहरों में मजदूरी करके वही मजदूर 300 से 400 रुपए प्रतिदिन कमा लेता है। इसकी वजह से वह शहर की ओर निकल जाते हैं और खेतों में काम करने के लिए मजदूर नहीं मिल पाते।“
वहीं सिद्धौर ब्लॉक के ग्राम कमालाबाद के रहने वाले मोहन यादव (32 वर्ष), जो कि गुड़गांव की एक निजी कम्पनी में कार्यरत हैं, बताते हैं, “खेती का स्तर गांव में उतना नहीं है, जिससे कि किसान कुछ बचत कर पाए। किसानों को उनकी फसल का उचित मूल्य नहीं मिल पाता और यहां तक कि कभी-कभी तो किसान के लिए फसल का लागत मूल्य निकालना भी बहुत मुश्किल हो जाता है।”
वह आगे बताते हैं, “बहुत कम ही लोग व्यवसायिक खेती कर पाते हैं। लोग पारम्परिक खेती पर ही टिके हैं और लोगों को लगता है कि वो शहर में मजदूरी करने के बाद खेत में काम करने से ज्यादा कमा सकते हैं। इसी वजह से खेतों में काम करने के लिए मजदूर नहीं मिल पाते हैं और सभी शहरों की ओर भागते हैं।"
बाराबंकी के रहने वाले भीम सिंह (40 वर्ष) बताते हैं, “मूलभूत सुविधाओं का ग्रामीण क्षेत्रों में उपलब्ध न हो पाना और उद्योगों के अभाव के कारण ग्रामीण लोग शहरों में जाकर बसना चाहते हैं। यहां तक कि आज कल के युवाओं का किसानी से तो मोह ही भंग हो चुका है। सब गांव छोड़ शहर जाना चाहते हैं।"
ग्रामीण क्षेत्रों से लोगों का शहरों की ओर बढ़ते पलायन से कहीं न कहीं खेती भी प्रभावित हो रही है या यूं कहे कि लोगों का किसानी की ओर मोह भंग हो रहा है। इसका मुख्य कारण फसलों का उचित समर्थन मूल्य न मिलना भी है।
गांवों में देसी उद्योग धंधे भी कम
मनरेगा भी ज्यादा कारगार नहीं
जिले की सिद्धौर ब्लॉक के कोठी ग्राम पंचायत के प्रधान महेजबी के प्रतिनिधि मुशीर कुरैशी बताते हैं, "लोगों को रोजगार उपलब्ध करवाने के लिए सरकार ने जिस मनरेगा योजना की शुरुआत की थी, लोग उसमें भी अब काम नही करना चाहते हैं। कारण यह है कि मजदूर जितने दिन काम करता है, उससे कई ज्यादा समय उसकी मजदूरी का भुगतान होने में लग जाता है। मनरेगा में सिर्फ 170 से 175 रुपये ही प्रतिदिन मिलता है और वही मजदूर शहर जाकर 250 से 300 प्रतिदिन तक कमा लेता है।"