थाली तक पहुँचने से पहले, क्या फ़सलों में एंटीबायोटिक हमारी सेहत को खतरे में डाल रहे हैं?
Divendra Singh | Dec 17, 2025, 15:39 IST
FAO की एक रिपोर्ट ने भारत में बागवानी और फसल उत्पादन में एंटीबायोटिक के इस्तेमाल पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं। किसान की फसल बचाने की मजबूरी और उपभोक्ता की सेहत के बीच यह संतुलन कैसे बने, इसी पड़ताल की यह ज़मीनी कहानी।
अब तक देश में जब भी एंटीबायोटिक के गलत इस्तेमाल की बात होती थी, तो ज़िक्र ज़्यादातर मुर्गी पालन, डेयरी या मछली पालन तक ही सीमित रहता था। लेकिन हाल ही में सामने आई एक अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट ने एक नई चिंता खड़ी कर दी है, भारत में अब फसलों, खासकर फलों और सब्ज़ियों में भी एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल हो रहा है।
खेतों में मेहनत करने वाले किसान के लिए बीमारी से फसल को बचाना बड़ा सवाल होता है। सेब का बाग हो या टमाटर की खेती, अगर बैक्टीरिया से फैली बीमारी फैल जाए, तो महीनों की मेहनत कुछ ही दिनों में बर्बाद हो सकती है। ऐसे में किसान अक्सर वही उपाय अपनाता है जो उसे जल्दी राहत दे और कई बार यह उपाय एंटीबायोटिक दवाएँ बन जाती हैं।
संयुक्त राष्ट्र की संस्था खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) की हालिया रिपोर्ट बताती है कि दुनिया भर में फसलों में स्ट्रेप्टोमाइसिन, ऑक्सीटेट्रासाइक्लिन और कासुगामाइसिन जैसी एंटीबायोटिक दवाओं का उपयोग किया जाता है। इनका उद्देश्य पौधों में लगने वाले जीवाणु रोगों को रोकना या नियंत्रित करना होता है। उदाहरण के तौर पर, सेब और नाशपाती में फैलने वाली फायर ब्लाइट बीमारी के खिलाफ स्ट्रेप्टोमाइसिन का इस्तेमाल कई देशों में किया गया है।
भारत के संदर्भ में देखें, तो रिपोर्ट कहती है कि यहाँ भी सेब, आलू, बीन्स, चावल और टमाटर जैसी फसलों में एंटीबायोटिक आधारित दवाओं का उपयोग हुआ है। हालांकि मात्रा बहुत ज़्यादा नहीं है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 2018-19 से 2023-24 के बीच भारत में कीटनाशक के रूप में इस्तेमाल होने वाली एंटीबायोटिक दवाओं की मात्रा सालाना 20 से 37 टन के बीच रही। यह आंकड़ा सुनने में बड़ा लग सकता है, लेकिन अगर इसकी तुलना सालाना इस्तेमाल होने वाले 20,000 टन से ज़्यादा रासायनिक कीटनाशकों से की जाए, तो यह काफी कम है।
फिर भी सवाल उठता है अगर मात्रा कम है, तो चिंता क्यों?
इसकी वजह है एंटीबायोटिक रेज़िस्टेंस (AMR), यानी ऐसी स्थिति जब बैक्टीरिया पर दवाओं का असर कम या खत्म हो जाता है। डॉक्टर और वैज्ञानिक पहले ही चेतावनी दे चुके हैं कि अगर एंटीबायोटिक का अंधाधुंध इस्तेमाल जारी रहा, तो भविष्य में साधारण संक्रमण भी जानलेवा बन सकते हैं।
विशेषज्ञों की चिंता यह है कि खेतों में इस्तेमाल होने वाली एंटीबायोटिक दवाएँ मिट्टी, पानी और फसलों के जरिए धीरे-धीरे इंसानों तक पहुँच सकती हैं। किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज, लखनऊ के फार्माकोलॉजी विभाग के अध्यक्ष डॉ. राकेश कुमार दीक्षित कहते हैं, "जैसे पोल्ट्री और पशुपालन में एंटीबायोटिक के अधिक इस्तेमाल से इंसानों में प्रतिरोधक क्षमता बढ़ी है, वैसे ही अगर फसलों में इनका गलत इस्तेमाल हुआ, तो इसका असर मानव स्वास्थ्य पर भी पड़ सकता है।"
हालांकि, यह भी सच है कि अभी तक भारत में फसलों से सीधे इंसानों में गंभीर नुकसान के ठोस प्रमाण सीमित हैं। FAO की रिपोर्ट भी यह मानती है कि कृषि में एंटीबायोटिक उपयोग और मानव स्वास्थ्य के बीच सीधा संबंध साबित करने के लिए और शोध की ज़रूरत है। लेकिन वैज्ञानिक यह भी कहते हैं कि सावधानी इलाज से बेहतर है।
सरकार ने इस खतरे को देखते हुए कुछ कदम उठाए हैं। उदाहरण के लिए, स्ट्रेप्टोसाइक्लिन (स्ट्रेप्टोमाइसिन और टेट्रासाइक्लिन का मिश्रण) पर प्रतिबंध लगाने के लिए 2021 में मसौदा आदेश जारी किया गया था। इसका मकसद कृषि में इस दवा के इस्तेमाल को चरणबद्ध तरीके से खत्म करना था। हालांकि ज़मीनी स्तर पर इसका पालन कितना सख्ती से हो रहा है, यह एक बड़ी चुनौती बना हुआ है।
राष्ट्रीय समेकित नाशीजीव प्रबंधन अनुसंधान संस्थान के पूर्व वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. सत्येंद्र सिंह बताते हैं, "ज़्यादातर एंटीबायोटिक दवाएँ खेती में पहले से ही प्रतिबंधित हैं, लेकिन जानकारी की कमी या जल्द मुनाफ़े की उम्मीद में कुछ किसान इनका इस्तेमाल कर लेते हैं। वे कहते हैं कि यह न सिर्फ पर्यावरण के लिए, बल्कि खुद किसानों के लिए भी नुकसानदेह साबित हो सकता है।"
पर्यावरण के नजरिए से देखें, तो एंटीबायोटिक दवाएँ मिट्टी और पानी में मौजूद सूक्ष्म जीवों के संतुलन को बिगाड़ सकती हैं। ये दवाएँ खेतों से बहकर नदियों, तालाबों और भूजल तक पहुँच सकती हैं। भारत में कई अध्ययनों में पानी के स्रोतों में एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी बैक्टीरिया पाए गए हैं, हालांकि इनके मुख्य स्रोत अक्सर अस्पताल और दवा उद्योग माने जाते हैं।
इस पूरे मुद्दे में किसान को दोष देना आसान है, लेकिन सच्चाई इससे कहीं ज़्यादा जटिल है। किसान अक्सर बीमारी से बचाव के सुरक्षित और सस्ते विकल्पों की कमी के कारण ऐसे उपाय अपनाने को मजबूर होता है। विशेषज्ञ मानते हैं कि समाधान एंटीबायोटिक पर पूरी तरह निर्भर रहने में नहीं, बल्कि एकीकृत कीट प्रबंधन (IPM), जैव-नियंत्रण उपायों, रोग-प्रतिरोधी किस्मों और बेहतर कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देने में है।
FAO और भारतीय विशेषज्ञों की सिफारिश है कि खेत स्तर पर निगरानी बढ़ाई जाए, किसानों को सही जानकारी दी जाए और कृषि विश्वविद्यालयों व कृषि विज्ञान केंद्रों के जरिए सुरक्षित विकल्पों का प्रशिक्षण दिया जाए। साथ ही, “वन हेल्थ” दृष्टिकोण अपनाने की ज़रूरत है, जिसमें इंसान, जानवर, पर्यावरण और खेती, सभी को एक साथ देखा जाए।
आख़िरकार सवाल यही है कि हम कैसी खेती और कैसा भोजन चाहते हैं। अगर आज सावधानी नहीं बरती गई, तो आने वाली पीढ़ियों को इसकी कीमत चुकानी पड़ सकती है। खेत से थाली तक का सफ़र सिर्फ उपज का नहीं, बल्कि सेहत का भी है और इस सफ़र को सुरक्षित रखना हम सभी की ज़िम्मेदारी है।
खेतों में मेहनत करने वाले किसान के लिए बीमारी से फसल को बचाना बड़ा सवाल होता है। सेब का बाग हो या टमाटर की खेती, अगर बैक्टीरिया से फैली बीमारी फैल जाए, तो महीनों की मेहनत कुछ ही दिनों में बर्बाद हो सकती है। ऐसे में किसान अक्सर वही उपाय अपनाता है जो उसे जल्दी राहत दे और कई बार यह उपाय एंटीबायोटिक दवाएँ बन जाती हैं।
संयुक्त राष्ट्र की संस्था खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) की हालिया रिपोर्ट बताती है कि दुनिया भर में फसलों में स्ट्रेप्टोमाइसिन, ऑक्सीटेट्रासाइक्लिन और कासुगामाइसिन जैसी एंटीबायोटिक दवाओं का उपयोग किया जाता है। इनका उद्देश्य पौधों में लगने वाले जीवाणु रोगों को रोकना या नियंत्रित करना होता है। उदाहरण के तौर पर, सेब और नाशपाती में फैलने वाली फायर ब्लाइट बीमारी के खिलाफ स्ट्रेप्टोमाइसिन का इस्तेमाल कई देशों में किया गया है।
<p style="line-height: 70px">भारत में 2018–19 से 2023–24 के दौरान कीटनाशकों के रूप में एंटीबायोटिक दवाओं का उपयोग</p>
भारत के संदर्भ में देखें, तो रिपोर्ट कहती है कि यहाँ भी सेब, आलू, बीन्स, चावल और टमाटर जैसी फसलों में एंटीबायोटिक आधारित दवाओं का उपयोग हुआ है। हालांकि मात्रा बहुत ज़्यादा नहीं है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 2018-19 से 2023-24 के बीच भारत में कीटनाशक के रूप में इस्तेमाल होने वाली एंटीबायोटिक दवाओं की मात्रा सालाना 20 से 37 टन के बीच रही। यह आंकड़ा सुनने में बड़ा लग सकता है, लेकिन अगर इसकी तुलना सालाना इस्तेमाल होने वाले 20,000 टन से ज़्यादा रासायनिक कीटनाशकों से की जाए, तो यह काफी कम है।
भारत में 2019–20 से 2022–23 के दौरान पशुधन और पोल्ट्री में एंटीबायोटिक दवाओं का उपयोग
फिर भी सवाल उठता है अगर मात्रा कम है, तो चिंता क्यों?
इसकी वजह है एंटीबायोटिक रेज़िस्टेंस (AMR), यानी ऐसी स्थिति जब बैक्टीरिया पर दवाओं का असर कम या खत्म हो जाता है। डॉक्टर और वैज्ञानिक पहले ही चेतावनी दे चुके हैं कि अगर एंटीबायोटिक का अंधाधुंध इस्तेमाल जारी रहा, तो भविष्य में साधारण संक्रमण भी जानलेवा बन सकते हैं।
विशेषज्ञों की चिंता यह है कि खेतों में इस्तेमाल होने वाली एंटीबायोटिक दवाएँ मिट्टी, पानी और फसलों के जरिए धीरे-धीरे इंसानों तक पहुँच सकती हैं। किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज, लखनऊ के फार्माकोलॉजी विभाग के अध्यक्ष डॉ. राकेश कुमार दीक्षित कहते हैं, "जैसे पोल्ट्री और पशुपालन में एंटीबायोटिक के अधिक इस्तेमाल से इंसानों में प्रतिरोधक क्षमता बढ़ी है, वैसे ही अगर फसलों में इनका गलत इस्तेमाल हुआ, तो इसका असर मानव स्वास्थ्य पर भी पड़ सकता है।"
हालांकि, यह भी सच है कि अभी तक भारत में फसलों से सीधे इंसानों में गंभीर नुकसान के ठोस प्रमाण सीमित हैं। FAO की रिपोर्ट भी यह मानती है कि कृषि में एंटीबायोटिक उपयोग और मानव स्वास्थ्य के बीच सीधा संबंध साबित करने के लिए और शोध की ज़रूरत है। लेकिन वैज्ञानिक यह भी कहते हैं कि सावधानी इलाज से बेहतर है।
सरकार ने इस खतरे को देखते हुए कुछ कदम उठाए हैं। उदाहरण के लिए, स्ट्रेप्टोसाइक्लिन (स्ट्रेप्टोमाइसिन और टेट्रासाइक्लिन का मिश्रण) पर प्रतिबंध लगाने के लिए 2021 में मसौदा आदेश जारी किया गया था। इसका मकसद कृषि में इस दवा के इस्तेमाल को चरणबद्ध तरीके से खत्म करना था। हालांकि ज़मीनी स्तर पर इसका पालन कितना सख्ती से हो रहा है, यह एक बड़ी चुनौती बना हुआ है।
इसकी वजह है एंटीबायोटिक रेज़िस्टेंस (AMR), यानी ऐसी स्थिति जब बैक्टीरिया पर दवाओं का असर कम या खत्म हो जाता है। डॉक्टर और वैज्ञानिक पहले ही चेतावनी दे चुके हैं कि अगर एंटीबायोटिक का अंधाधुंध इस्तेमाल जारी रहा, तो भविष्य में साधारण संक्रमण भी जानलेवा बन सकते हैं।<br>
राष्ट्रीय समेकित नाशीजीव प्रबंधन अनुसंधान संस्थान के पूर्व वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. सत्येंद्र सिंह बताते हैं, "ज़्यादातर एंटीबायोटिक दवाएँ खेती में पहले से ही प्रतिबंधित हैं, लेकिन जानकारी की कमी या जल्द मुनाफ़े की उम्मीद में कुछ किसान इनका इस्तेमाल कर लेते हैं। वे कहते हैं कि यह न सिर्फ पर्यावरण के लिए, बल्कि खुद किसानों के लिए भी नुकसानदेह साबित हो सकता है।"
पर्यावरण के नजरिए से देखें, तो एंटीबायोटिक दवाएँ मिट्टी और पानी में मौजूद सूक्ष्म जीवों के संतुलन को बिगाड़ सकती हैं। ये दवाएँ खेतों से बहकर नदियों, तालाबों और भूजल तक पहुँच सकती हैं। भारत में कई अध्ययनों में पानी के स्रोतों में एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी बैक्टीरिया पाए गए हैं, हालांकि इनके मुख्य स्रोत अक्सर अस्पताल और दवा उद्योग माने जाते हैं।
इस पूरे मुद्दे में किसान को दोष देना आसान है, लेकिन सच्चाई इससे कहीं ज़्यादा जटिल है। किसान अक्सर बीमारी से बचाव के सुरक्षित और सस्ते विकल्पों की कमी के कारण ऐसे उपाय अपनाने को मजबूर होता है। विशेषज्ञ मानते हैं कि समाधान एंटीबायोटिक पर पूरी तरह निर्भर रहने में नहीं, बल्कि एकीकृत कीट प्रबंधन (IPM), जैव-नियंत्रण उपायों, रोग-प्रतिरोधी किस्मों और बेहतर कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देने में है।
FAO और भारतीय विशेषज्ञों की सिफारिश है कि खेत स्तर पर निगरानी बढ़ाई जाए, किसानों को सही जानकारी दी जाए और कृषि विश्वविद्यालयों व कृषि विज्ञान केंद्रों के जरिए सुरक्षित विकल्पों का प्रशिक्षण दिया जाए। साथ ही, “वन हेल्थ” दृष्टिकोण अपनाने की ज़रूरत है, जिसमें इंसान, जानवर, पर्यावरण और खेती, सभी को एक साथ देखा जाए।
आख़िरकार सवाल यही है कि हम कैसी खेती और कैसा भोजन चाहते हैं। अगर आज सावधानी नहीं बरती गई, तो आने वाली पीढ़ियों को इसकी कीमत चुकानी पड़ सकती है। खेत से थाली तक का सफ़र सिर्फ उपज का नहीं, बल्कि सेहत का भी है और इस सफ़र को सुरक्षित रखना हम सभी की ज़िम्मेदारी है।