पपीता किसान सावधान! बारिश में इस रोग से हो सकता है भारी नुकसान
Dr SK Singh | Jul 25, 2025, 15:49 IST
बारिश के मौसम में पपीते की फसल को कॉलर रॉट जैसे घातक रोग से बड़ा खतरा होता है। यह फफूंदजनित बीमारी पौधे के तने और जड़ों को सड़ा देती है, जिससे पूरी फसल नष्ट हो सकती है। जानिए इसके लक्षण, कारण और बचाव के सरल वैज्ञानिक उपाय - ताकि फसल रहे सुरक्षित और किसान को न हो आर्थिक नुकसान।
बारिश के मौसम में पपीते की फसल को कई रोगों का सामना करना पड़ता है, जिनमें सबसे घातक रोग है कॉलर रॉट या तने का सड़न। यह रोग मुख्यतः गीली मिट्टी और अत्यधिक नमी में फैलने वाले फफूंद जैसे Pythium, Rhizoctonia और Phytophthora के कारण होता है। यदि समय पर इसे रोका न जाए, तो यह पूरी फसल को नष्ट कर सकता है।
लक्षण कैसे पहचानें?
सबसे पहले तने के निचले हिस्से (कॉलर क्षेत्र) में गीले और स्पंजी धब्बे दिखाई देते हैं। ये धब्बे जल्दी ही फैलकर तने को चारों तरफ से घेर लेते हैं जिससे पौधे को पोषण नहीं मिल पाता। तना काला होकर सड़ने लगता है और पौधा गिर जाता है। छाल के नीचे का ऊतक मधुमक्खी के छत्ते जैसा हो जाता है और धीरे-धीरे पूरा पौधा सूखकर मर जाता है।
बचाव कैसे करें?
रोगग्रस्त पौधे हटा दें: जैसे ही किसी पौधे में लक्षण दिखें, उसे जड़ सहित उखाड़कर नष्ट करें ताकि रोग अन्य पौधों में न फैले।
अच्छी जल निकासी जरूरी: खेत में पानी न रुके, इसके लिए पंक्तियों के बीच नालियां बनाएं।
खेत की मिट्टी की जांच करें: पूर्व में यदि रोग हुआ हो, तो 2-3 साल तक पपीते की खेती न करें। मिट्टी की pH और जैविक तत्वों की मात्रा संतुलित रखें।
कवकनाशी का प्रयोग करें:
कॉपर ऑक्सीक्लोराइड (3 ग्राम/लीटर) का घोल बनाकर मिट्टी में डालें।
10 दिन बाद मेटालैक्सिल + मैन्कोजेब (2 ग्राम/लीटर) का घोल डालें।
प्रति पौधा कम से कम 5 लीटर घोल का उपयोग करें।
जैविक उपाय भी अपनाएं:
मिट्टी में ट्राइकोडर्मा विरिडे मिलाएं।
वर्मी कम्पोस्ट और जीवामृत से मिट्टी की गुणवत्ता बढ़ाएं।
समय पर पहचान और उचित वैज्ञानिक उपाय अपनाकर इस घातक रोग से बचा जा सकता है। किसानों को प्रशिक्षित कर IPM यानी समेकित रोग प्रबंधन को अपनाने की सलाह दी जाती है।
याद रखें: समय पर पहचान और सही तकनीक ही है पपीते की सफल खेती की चाबी।"
लक्षण कैसे पहचानें?
सबसे पहले तने के निचले हिस्से (कॉलर क्षेत्र) में गीले और स्पंजी धब्बे दिखाई देते हैं। ये धब्बे जल्दी ही फैलकर तने को चारों तरफ से घेर लेते हैं जिससे पौधे को पोषण नहीं मिल पाता। तना काला होकर सड़ने लगता है और पौधा गिर जाता है। छाल के नीचे का ऊतक मधुमक्खी के छत्ते जैसा हो जाता है और धीरे-धीरे पूरा पौधा सूखकर मर जाता है।
बचाव कैसे करें?
रोगग्रस्त पौधे हटा दें: जैसे ही किसी पौधे में लक्षण दिखें, उसे जड़ सहित उखाड़कर नष्ट करें ताकि रोग अन्य पौधों में न फैले।
अच्छी जल निकासी जरूरी: खेत में पानी न रुके, इसके लिए पंक्तियों के बीच नालियां बनाएं।
खेत की मिट्टी की जांच करें: पूर्व में यदि रोग हुआ हो, तो 2-3 साल तक पपीते की खेती न करें। मिट्टी की pH और जैविक तत्वों की मात्रा संतुलित रखें।
कवकनाशी का प्रयोग करें:
कॉपर ऑक्सीक्लोराइड (3 ग्राम/लीटर) का घोल बनाकर मिट्टी में डालें।
10 दिन बाद मेटालैक्सिल + मैन्कोजेब (2 ग्राम/लीटर) का घोल डालें।
प्रति पौधा कम से कम 5 लीटर घोल का उपयोग करें।
जैविक उपाय भी अपनाएं:
मिट्टी में ट्राइकोडर्मा विरिडे मिलाएं।
वर्मी कम्पोस्ट और जीवामृत से मिट्टी की गुणवत्ता बढ़ाएं।
समय पर पहचान और उचित वैज्ञानिक उपाय अपनाकर इस घातक रोग से बचा जा सकता है। किसानों को प्रशिक्षित कर IPM यानी समेकित रोग प्रबंधन को अपनाने की सलाह दी जाती है।
याद रखें: समय पर पहचान और सही तकनीक ही है पपीते की सफल खेती की चाबी।"