दलहनी फसलों पर रासायनिक खादों का इस्तेमाल है घातक
Ashwani Nigam | Jan 04, 2018, 21:56 IST
लखनऊ। देश में दालों की खपत के मुकाबले उसका उत्पादन पिछले कई दशक से कम हो रहा है। ऐसी स्थिति में दलहनी फसलों और दाल उत्पादन को बढ़ावा देने को लेकर सरकारी स्तर पर कई प्रयास चल रहे हैं, लेकिन जानकारी के अभाव में इसका उल्टा असर हो रहा है।
दलहनी फसलों से अधिक उत्पादन लेने के लिए किसान बड़ी मात्रा में रासायनिक उर्वरक का इस्तेमाल कर रहे हैं, जिससे दलहनी फसलों पर संकट आ गया है। उत्तर प्रदेश कृषि अनुसंधान परिषद के महानिदेशक राजेन्द्र कुमार बताते हैं, “दलहनी फसलों पर अधिक उर्वरक डालने से उनके जननद्रव्य में परिवर्तन होने से दालों के दानों की कम उपज हो रही है।''
उन्होंने कहा, “दलहनी फसलें जलवायु के प्रति अधिक संवदेनशील होती हैं। सूखा, पाला, घटता-बढ़ता तापमान दलहनी फसलों पर सबसे ज्यादा प्रभाव डालता है, जिससे इसकी पैदावार घट रही है।“ देश में रबी सीजन में ही दलहनी फसलों की खेती अधिक होती है, जिसमें चना, मटर, मसूर की खेती प्रमुख होती है।
देश में दलहनी फसलों के घटते रकबे पर चिंता जताते हुए भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान, कानपुर के पूर्व निदेशक डॉ. शंकर लाल बताते हैं, ''दलहनी फसलों का कृषि, वातावरण, मानव और पशुओं के पोषण और स्वास्थ्य में विशेष महत्व है। देश में दालों का उत्पादन कम होने के कुछ कारण जैविक और अजैविक तनाव हैं। अजैविक तनाव में सूखा, बाढ़ और जलवायु परिवर्तन हैं।''
डॉ. शंकर लाल, पूर्व निदेशक, भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान, कानपुर
डॉ. शंकर लाल आगे बताते हैं, “अधिकतर दलहन का उपयोग उच्च प्रोटीन उपलब्धता के कारण किया जाता है, लेकिन अधिक प्रोटीन देने वाली प्रजातियां कम उत्पादकता वाली होती हैं। ऐसे में अधिक प्रोटीन के साथ अधिक उत्पादन करने वाली प्रजातियों का विकसित करने की जरुरत है।“
फोटो: अभिषेक वर्मा बीएचयू के क्राप फिजियोलॉजी विभाग के अध्यक्ष कृषि वैज्ञानिक डॉ. जेपी श्रीवास्तव ने बताया, “दलहनी फसलें प्रकाश और तापमान के प्रति अधिक संवदेनशील होती हैं। ऐसे में इसमें अगर मौसम में जरा सा भी परिवर्तन होता है तो उसका असर इन फसलों पर पड़ता है।“ आगे कहा, “धान्य फसलों स्टार्च की पूर्ति के लिए उगाई जाती हैं जबकि दलहनी फसलें प्रोटीन से भरपूर बीजों के लिए उगाई जाती हैं। प्रोटीन के निर्माण में फसल को ज्यादा ऊर्जा व्यय करनी पड़ती है। इसलिए इसका उत्पादन कम होता है।“ उन्होंने दालों की ऐसी किस्मों के विकास पर जोर दिया जो इस समस्या को हल कर सकें।
देश में हर साल लगभग 220 लाख टन दाल की जरुरत पड़ती है। इसमें लगभग 20 से लेकर 22 प्रतिशत हिस्सा अरहर दाल का होता है। खासकर उत्तर भारत में अरहर दाल की खपत सबसे ज्यादा है। इस डिमांड को पूरा करने के लिए बाहर के देशों से अरहर की दाल को निर्यात करना पड़ता है। पिछले कुछ सालों से दलहन की फसलों के क्षेत्रफल कम होने और जलवायु परिवर्तन के कारण देश में दलहन का उत्पादन काम हो रहा था, लेकिन सरकार और कृषि वैज्ञानिकों की मेहनत से दलहन उत्पादन बढ़ाने का लक्ष्य तय हुआ।
साल 2020 तक 24 मिलियन टन दाल दलहन उत्पादन का लक्ष्य प्राप्त करने पर जोर है। जिससे देश के हर व्यक्ति को 52 ग्राम दाल प्रतिदिन मिल सके। विश्व स्वास्थ्य संगठन, विश्व खाद्य और कृषि संगठन के अनुसार प्रति व्यक्ति प्रतिदन 104 ग्राम दाल मिलनी चाहिए, लेकिन भारत में लोगों को इतनी दाल नहीं मिल पा रही है।
दालों के दानों की कम उपज
उन्होंने कहा, “दलहनी फसलें जलवायु के प्रति अधिक संवदेनशील होती हैं। सूखा, पाला, घटता-बढ़ता तापमान दलहनी फसलों पर सबसे ज्यादा प्रभाव डालता है, जिससे इसकी पैदावार घट रही है।“ देश में रबी सीजन में ही दलहनी फसलों की खेती अधिक होती है, जिसमें चना, मटर, मसूर की खेती प्रमुख होती है।
अजैविक तनाव में सूखा, बाढ़ और जलवायु परिवर्तन
देश में दलहनी फसलों के घटते रकबे पर चिंता जताते हुए भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान, कानपुर के पूर्व निदेशक डॉ. शंकर लाल बताते हैं, ''दलहनी फसलों का कृषि, वातावरण, मानव और पशुओं के पोषण और स्वास्थ्य में विशेष महत्व है। देश में दालों का उत्पादन कम होने के कुछ कारण जैविक और अजैविक तनाव हैं। अजैविक तनाव में सूखा, बाढ़ और जलवायु परिवर्तन हैं।''
डॉ. शंकर लाल, पूर्व निदेशक, भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान, कानपुर
डॉ. शंकर लाल आगे बताते हैं, “अधिकतर दलहन का उपयोग उच्च प्रोटीन उपलब्धता के कारण किया जाता है, लेकिन अधिक प्रोटीन देने वाली प्रजातियां कम उत्पादकता वाली होती हैं। ऐसे में अधिक प्रोटीन के साथ अधिक उत्पादन करने वाली प्रजातियों का विकसित करने की जरुरत है।“
जो इस समस्या को हल कर सके
फोटो: अभिषेक वर्मा बीएचयू के क्राप फिजियोलॉजी विभाग के अध्यक्ष कृषि वैज्ञानिक डॉ. जेपी श्रीवास्तव ने बताया, “दलहनी फसलें प्रकाश और तापमान के प्रति अधिक संवदेनशील होती हैं। ऐसे में इसमें अगर मौसम में जरा सा भी परिवर्तन होता है तो उसका असर इन फसलों पर पड़ता है।“ आगे कहा, “धान्य फसलों स्टार्च की पूर्ति के लिए उगाई जाती हैं जबकि दलहनी फसलें प्रोटीन से भरपूर बीजों के लिए उगाई जाती हैं। प्रोटीन के निर्माण में फसल को ज्यादा ऊर्जा व्यय करनी पड़ती है। इसलिए इसका उत्पादन कम होता है।“ उन्होंने दालों की ऐसी किस्मों के विकास पर जोर दिया जो इस समस्या को हल कर सकें।