कहीं आपकी गन्ने की फसल को भी तो नहीं बर्बाद कर रहीं हैं यह बीमारियां, समय रहते करें प्रबंधन

बारिश आने के बाद फसलों को वृद्धि होती है, लेकिन गन्ने की फसल में कई तरह के रोग लगने लगते हैं, इसलिए समय रहते प्रबंधन शुरु कर देना चाहिए।

Divendra SinghDivendra Singh   15 Jun 2021 12:04 PM GMT

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कहीं आपकी गन्ने की फसल को भी तो नहीं बर्बाद कर रहीं हैं यह बीमारियां, समय रहते करें प्रबंधन

मानसून आने के साथ ही गन्ने की फसल में रोग और कीट लगने की संभावना भी बढ़ जाती है, ऐसे में किसानों के लिए सबसे ज्यादा जानना जरूरी है कि इस समय अपनी फसल को बर्बाद होने से कैसे बचाएं।

इस समय पोक्का बोइंग, स्टेम रॉट ज्यादा लगते हैं, जिससे किसान की लागत भी ज्यादा बढ़ जाती है। किसान कई बार बीमारियों की सही पहचान भी नहीं कर पाते हैं, जिसकी वजह से उन्हें नुकसान भी उठाना पड़ता है।

उत्तर प्रदेश गन्ना शोध परिषद, शाहजहांपुर के निदेशक डॉ. ज्योत्स्येन्द्र सिंह बताते हैं, "इस समय गन्नों की किस्मों और कहीं-कहीं पर लोकेशन के हिसाब से रोग लगते हैं। इस समय कोशा 0238 किस्म जहां पर होगी, इस समय पूरी संभावना होगी कि वहां पोक्का बोइंग रोग लगेगा ही। इसके साथ ही टॉप बोरर, स्मट जैसी बीमारियां भी लगेगी, क्योंकि जैसे-जैसे बारिश आती है, उसी तरह ही बीमारियां भी आती हैं। जब बरसात शुरू होती है, जिसकी वजह से वातारण में ह्युमिडिटी बढ़ जाती है, बीमारियों को बढ़ने को वातावरण मिल जाता है।"

इस समय लग सकती हैं यह बीमारियां

पोक्का बोइंग रोग

पोक्का बोइंग रोग के शुरूआत में पत्तियां सिकुड़ने लगती हैं, फिर इसमें पहले पत्तियां पीली पड़ जाती हैं, फिर पत्तियां जली-जली भूरी होकर सड़ने लगती हैं। आखिर में पत्तियां बीच से कट जाती हैं, जैसे कि किसी ने चाकू से काट दिया हो। किसान इस रोग को चोटी बेधक (टॉप बोरर) कीट का प्रकोप समझते हैं।


इससे बचाव करने के लिए सबसे बढ़िया उपाय है, 1 ग्राम बावस्टीन 1 लीटर पानी में मिलाकर अगर 15 दिनों में किसान छिड़काव करें तो इससे बचाव किया जा सकता है। या तो कॉपर ऑक्सी क्लोराइड के 0.2 % विलयन 100 लीटर पानी में 200 ग्राम का 15 दिन के अन्तराल पर दो छिड़काव करने से फायदा होता है।

रेड रॉट (लाल सड़न) रोग

रेड रॉट बीमारी में तने के अन्दर लाल रंग के साथ सफेद धब्बे के जैसे दिखते हैं। धीरे धीरे पूरा पौधा सूख जाता है। पत्तियों पर छोटे-छोटे धब्बे दिखायी देते हैं, पत्ती के दोनों तरफ लाल रंग दिखायी देता है। गन्ने को तोड़ेंगे तो आसानी से टूट जाएगा और चीरने पर एल्कोहल जैसी महक आती है।

अगर किसान बार-बार गन्ने की एक ही किस्म लगाते हैं, तो इस रोग की बढ़ने की संभावना ज्यादा बढ़ जाती है। इसलिए किस्में हमेशा बदल-बदल कर लगाना चाहिए।


रेड रॉट से बचाव के लिए हेक्सास्टॉप या थायोफिनेट मिथाइल का घोल बनाकर इसी समय छिड़काव कर देते हैं, जिससे अगले दो-तीन महीने तक यह रोग नहीं लगेगा। क्योंकि अगस्त-सितम्बर तक यह बीमारी ज्यादा बढ़ने लगती है। अगर तब भी इसका प्रकोप कम नहीं हुआ है तो दोबारा फिर से छिड़काव करें और अगर ज्यादा प्रकोप है, तो संक्रमित पौधे को जड़ से उखाड़ कर वहां ब्लीचिंग पाउडर डाल दें।

ग्रासी शूट डिजीज (घासीय प्ररोह रोग)

इस बीमारी को जीएसडी, विवर्ण रोग, ग्रासीशूट या एल्बिनो भी कहते हैं। बुवाई के कुछ दिनों बाद से ही इस रोग के लक्षण दिखायी देने लगते हैं, लेकिन इसका प्रभाव सबसे ज्यादा बारिश के मौसम में होता है।

संक्रमित पौधों के अगोले की पत्तियों में हरापन बिल्कुल खत्म हो जाता है, जिससे पत्ती का रंग दूधिया हो जाता है और नीचे की पुरानी पत्तियों में बीच की शिरा के समानान्तर दूधिया रंग की धारियां पड़ जाती हैं। थानों की वृद्धि रुक जाती है। गन्ने बौने और पतले हो जाते हैं और गन्ने का पूरा थान झाड़ी की तरह हो जाता है।


इस रोग के कारण पौधों का हरापन कभी–कभी बिल्कुल गायब हो जाता है, जिसके कारण किल्ले सूख जाते हैं और पौधे दूर-दूर हो जाते हैं। रोग के कारण फसल में मिल योग्य गन्ने कम और पतले बनते हैं। इससे भी उपज में गिरावट आती है। इससे ग्रसित गन्नों में सुक्रोज कम होता है साथ ही रिड्यूसिंग शुगर बढ़ जाती है, जिससे सुक्रोज के क्रिस्टल नहीं बनते हैं।

जहां भी बीमारी दिखे उसे काटकर चारे में इस्तेमाल कर सकते हैं। इससे दूसरे पौधे संक्रमित होने से बच जाएंगे। इसको बहुत आसानी से नष्ट किया जा सकता है।

कंडुआ रोग

यह बीज जनित रोग है जो स्पोरिसोरियम सीटेमिनियम नामक फफूंदी से होता है। संक्रमित पौधों की पत्तियां छोटी, पतली, नुकीली हो जाती हैं और गन्ना लम्बा व पतला हो जाता है। बाद में गन्ने की गोंफ में से एक काला कोड़ा निकलता है जो कि सफेद पतली झिल्लीसे ढका होता है। यह झिल्ली हवा के झोकों से फट जाती है, जिससे रोग के बीजाणु बिखर जाते हैं और बारिश के बाद पूरे खेत में फैल जाता है, अगर ज्यादा बारिश हो गई तो दूसरे खेत तक यह बीमारी पहुंच जाती है।

यह रोग मुख्यत: तमिलनाडु, महाराष्ट्र तथा केरल राज्यों में अधिक पाया जाता है। उत्तर प्रदेश में यह रोग वर्ष भर देखने को मिलता है लेकिन अप्रैल, मई, जून और अक्टूबर, नवम्बर, फरवरी माह में इस रोग की तीव्रता अधिक पायी जाती है। प्रजाति को0 1158 इस रोग से पूरी तरह ग्रस्त हैं। पेड़ी में यह रोग बावग की तुलना में अधिक पाया जाता है।

इससे बचाने के लिए संक्रमित पौधे को काटकर फेंक दें, लेकिन काटते समय बहुत सावधानी बरतनी पड़ती है। इसलिए किसी बोरी से ऊपर से ढक कर नीचे से पौधे का काट दें, जिससे पूरे खेत में नहीं फैलेगा।

इसके बचाव के लिए प्रोपेनाजोल .1% का घोल बनाकर बीज को उपचारित करके बुवाई करें। इससे बुवाई से पहले ही फसल को रोग से बचाया जा सकता है।

लीफ बाइंडिंग डीजीज

इसमें पत्तियां सिकुड़ जाती हैं, जैस कि किसी ने गांठ बांध दी हो, इससे प्रकोप से बचाने के लिए कार्बेंडाजिम का छिड़काव करें।

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