आने वाले दिनों में गेहूं की फसल में लग सकता है पीला रतुआ रोग
Divendra Singh 9 Jan 2020 9:06 AM GMT

लखनऊ (उत्तर प्रदेश)। पहाड़ी क्षेत्रों में गेहूं की फसल में लगने वाला पीला रतुआ रोग पिछले कुछ साल में मैदानी भागों में भी दिखने लगा है। जनवरी-फरवरी के महीने में लगने वाले इस रोग का अगर सही समय पर प्रबंधन न किया जाए तो फसल बर्बाद हो सकती है।
भारतीय गेहूं एवं जौ अनुसंधान संस्थान, करनाल के प्रमुख वैज्ञानिक (फसल सुरक्षा) डॉ. प्रेम लाल कश्यप बताते हैं, "लगातार बादल रहने से नमी वाले तराई क्षेत्रों में गेहूं की फसल में पीला रतुआ बीमारी होने की संभावना बढ़ जाती है, ऐसे में समय रहते किसानों को इस रोग का प्रबंधन करना चाहिए।"
केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय की ओर से जारी आंकड़ों के अनुसार देशभर में गेहूं की बुवाई 297.02 लाख हेक्टेयर में हो चुकी है जो पिछले साल की अपेक्षा 9.70 फीसदी (26.67 लाख) से ज्यादा है।
पीला रतुआ पहाड़ों के तराई क्षेत्रों में पाया जाता है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में इस रोग का प्रकोप पाया गया है। उत्तर भारत के पंजाब, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखंड के तराई क्षेत्र में पीला रतुआ के प्रकोप से साल 2011 में करीब तीन लाख हेक्टेयर गेहूं के फसल का नुकसान हुआ था।
रोग के लक्षण व पहचान के बारे में क्षेत्रीय एकीकृत नाशीजीवी प्रबंधन, लखनऊ के संयुक्त निदेशक डॉ. टीए उस्मानी (फसल सुरक्षा) कहते हैं, "इस बीमारी के लक्षण ज्यादातर नमी वाले क्षेत्रों में देखने को मिलते हैं, साथ ही पोपलर व यूकेलिप्टस के आस-पास उगाई गई फसल में ये रोग पहले आता है। पत्तों का पीला होना ही पीला रतुआ नहीं है, पीला रंग होने के कारण फसल में पोषक तत्वों की कमी, जमीन में नमक की मात्रा ज्यादा होना व पानी का ठहराव भी हो सकता है। पीला रतुआ बीमारी में गेहूं की पत्तों पर पीले रंग का पाउडर बनता है, जिसे हाथ से छूने पर हाथ पीला हो जाता है।"
कृषि विज्ञान केंद्र, सहारनपुर के प्रमुख वैज्ञानिक डॉ. आईके कुशवाहा बताते हैं, "इस समय जैसे तापमान गिरा है, उसी समय इसका प्रकोप बढ़ता है। जब तापमान ऐसा होता है और हरियाणा और पहाड़ों से हवा चलती है तो ये बढ़ता है। क्योंकि ये हवा से बढ़ता है, ये मैदानी क्षेत्रों में खत्म हो जाता है, ये पहाड़ों से हवा के साथ नीचे आता है, तो जो फसल पहले मिलेगी, वहां पर वो बढ़ने लगता है। और ये धीरे-धीरे आगे बढ़ता जाता है। ये जनवरी में ये लगना शुरू हो जाता है। जिस हिसाब से मौसम बन रहा है, इसकी संभावना बढ़ रही है, क्योंकि पहले मौसम ठंडा रहा, उसके बाद बारिश हो गई। बारिश में इसका एनाकुलम ज्यादा बढ़ता है।"
ऐसे करें पहचान
पत्तों का पीलापन होना ही पीला रतुआ नहीं कहलाता, बल्कि पाउडरनुमा पीला पदार्थ हाथ पर लगना इसका लक्षण है।
पत्तियों की ऊपरी सतह पर पीले रंग की धारी दिखाई देती है, जो धीरे-धीरे पूरी पत्तियों को पीला कर देती है।
पीला पाउडर जमीन पर गिरा देखा जा सकता है।
पहली अवस्था में यह रोग खेत में 10-15 पौधों पर एक गोल दायरे में शुरु होकर बाद में पूरे खेत में फैल जाता है।
तापमान बढ़ने पर पीली धारियां पत्तियों की निचली सतह पर काले रंग में बदल जाती है।
जैविक उपचार
एक किग्रा. तम्बाकू की पत्तियों का पाउडर 20 किग्रा. लकड़ी की राख के साथ मिलाकर बीज बुवाई या पौध रोपण से पहले खेत में छिड़काव करें।
गोमूत्र व नीम का तेल मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर लें और 500 मिली. मिश्रण को प्रति पम्प के हिसाब से फसल में तर-बतर छिड़काव करें।
गोमूत्र 10 लीटर व नीम की पत्ती दो किलो व लहसुन 250 ग्राम का काढ़ा बनाकर 80-90 लीटर पानी के साथ प्रति एकड़ छिड़काव करें।
पांच लीटर मट्ठा को मिट्टी के घड़े में भरकर सात दिनों तक मिट्टी में दबा दें, उसके बाद 40 लीटर पानी में एक लीटर मट्ठा मिलाकर प्रति एकड़ छिड़काव करें।
रासायनिक उपचार
रोग के लक्षण दिखाई देते ही 200 मिली. प्रोपीकोनेजोल 25 ई.सी. या पायराक्लोट्ररोबिन प्रति लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ छिड़काव करें।
रोग के प्रकोप और फैलाव को देखते हुए दूसरा छिड़काव 10-15 दिन के अंतराल में करें।
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