सीमा पार नेपाल से, फसलों की बिक्री पर कोविड प्रतिबंध ने बिहार के किसानों को उठाना पड़ रहा नुकसान

उत्तर बिहार में भारत-नेपाल सीमा से सटे जिलों के किसान नेपाल में अपनी कृषि उपज बेचते हैं, क्योंकि उनके पास बिहार में मंडी व्यवस्था का अभाव है। कोविड-19 महामारी के बाद, अंतरराष्ट्रीय सीमा के पार माल की आवाजाही पर लगे प्रतिबंध से उनकी आजीविका पर भी असर पड़ा है। बिहार के किसान बिक्री फिर से शुरू करने के लिए बार्डर खुलने का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं।

Nishant KumarNishant Kumar   15 Dec 2021 9:23 AM GMT

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सीमा पार नेपाल से, फसलों की बिक्री पर कोविड प्रतिबंध ने बिहार के किसानों को उठाना पड़ रहा नुकसान

बिहार में किसानों की आय का एक बड़ा हिस्सा नेपाल में अपनी फसल बेचकर होने वाले लाभ से आता है। महामारी से पहले भी, भारत सरकार ने 2015 में नेपाल बार्डर पर नाकाबंदी की थी। यह प्रतिबंध आठ महीनों तक चला था। तब भी इन किसानों को काफी नुकसान झेलना पड़ा था। फोटो: निशांत कुमार

सीतामढ़ी, बिहार। अक्सर कहा जाता है कि बिहार और नेपाल के बीच 'बेटी-रोटी का संबंध' हैं। जिसका सीधा से मतलब है कि अंतरराष्ट्रीय सीमा से सटे दोनों ओर के लोगों के बीच व्यापार की एक बड़ी साझेदारी है और साथ ही विवाह और पारिवारिक संबंधों की मजबूत नींव भी।

हालांकि, अब तकरीबन दो सालों से भारत-नेपाल सीमा पर आवाजाही प्रतिबंधित है और कोविड-19 महामारी के कारण माल परिवहन की भी अनुमति नहीं है। इसने उत्तरी बिहार के सीतामढ़ी और सोहर जिलों में किसानों की आजीविका पर काफी असर डाला है।

महामारी के कारण लगाए गए प्रतिबंधों ने उत्तरी बिहार के किसानों को नेपाल जाकर अपनी फसल बेचने से रोक दिया है। सीतामढ़ी और सोहर के सीमावर्ती जिलों के परेशान ग्रामीण कितनी बार फसल लेकर, नेपाल में अवैध रूप से घुसने की कोशिश करते हैं। इस उम्मीद में कि बिहार की मंडियों की तुलना में नेपाल में उनके धान, दाल और गेहूं का उचित मूल्य मिल जाएगा।

सीतामढ़ी जिले के सोनबरसा गांव के अशोक कुमार एक सीमांत किसान हैं। उनके पास एक हेक्टेयर से कम जमीन है। उन्होंने गांव कनेक्शन को बताया, "मेरे पास आमदनी का कोई और जरिया नहीं है। मेरे परिवार में आठ लोग हैं और हम सभी खेती पर निर्भर हैं। खेत में जितनी भी पैदावार होती है, उसकी आधे से ज्यादा खपत तो घर में ही हो जाती है। और बाकी बची फसल को हम नेपाल के बाजारों में बेचते हैं। " उन्होंने कहा, "जब से नेपाल बॉर्डर बंद किए गए है, तब से मैं वहां अपनी फसल नहीं बेच पा रहा हूं। मुझे स्थानीय बाजार पर निर्भर होना पड़ रहा है। यहां हमें ज्यादा फायदा नहीं मिलता।"

उदाहरण के लिए, स्थानीय बाजार में अशोक को धान की, बेहतर से बेहतर संभावित कीमत 17,50 रुपये प्रति क्विंटल मिल पाती है (बशर्ते यह बहुत अच्छी गुणवत्ता का हो और मानसून के बाद की बारिश में खराब न हुआ हो), जबकि यही धान नेपाल में 1,950 रुपये प्रति क्विंटल में बेचा जाता है। अक्सर, बिहार में किसानों को इसके लिए 12,000- 1400 रुपये प्रति क्विंटल से ज्यादा नहीं मिलता है।

सीतामढ़ी और सोहर के सीमावर्ती जिलों के परेशान ग्रामीण कितनी बार फसल लेकर, नेपाल में अवैध रूप से घुसने की कोशिश करते हैं। इस उम्मीद में कि बिहार की मंडियों की तुलना में नेपाल में उनके धान, दाल और गेहूं का उचित मूल्य मिल जाएगा।

बिहार में किसानों की आय का एक बड़ा हिस्सा नेपाल में अपनी फसल बेचकर होने वाले लाभ से आता है। महामारी से पहले भी, भारत सरकार ने 2015 में नेपाल बार्डर पर नाकाबंदी की थी। यह प्रतिबंध आठ महीनों तक चला था। तब भी इन किसानों को काफी नुकसान झेलना पड़ा था।

बिहार में 15 साल पहले खत्म कर दिया था APMC कानून

2006 में, बिहार ने कृषि उपज मंडी समिति (APMC) कानून को खत्म कर दिया था। तब से राज्य में कोई मंडी प्रणाली नहीं है। कृषि उपज खरीदने के लिए स्थानीय निकायों - प्राइमरी एग्रीकल्चरल क्रेडिट सोसाइटी (PACS) की स्थापना की गई। ये निकाय किसानों और खरीदारों (निजी व्यापारियों) दोनों से सुविधा शुल्क के रूप में वस्तु के बिक्री मूल्य का एक प्रतिशत चार्ज कर रहे हैं। PACS के कामकाज में कई समस्याएं हैं, जिसकी वजह से किसान अपनी उपज को निजी व्यापारियों और बिचौलियों को निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) से काफी कम दर पर बेचने को मजबूर हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य केंद्र सरकार द्वारा तय किया जाता है।

पटना स्थित एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज में समाजशास्त्री अभिषेक रंजन ने गांव कनेक्शन को बताया कि किसानों को अपनी उपज निजी खरीददारों को औने-पौने दामों पर बेचनी पड़ रही है। वह कहते हैं, "पिछले 15 सालों से, किसानों के पास अपनी उपज बेचने के लिए अनुकूल बाजार नहीं है। बिहार में धान 900-1000 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से बिका है, जो केंद्र द्वारा एमएसपी के रूप में तय किए गए 1868 रुपये का लगभग आधा है।

विशेषज्ञों का मानना ​​​​है कि बिहार में APMC प्रणाली के निरस्त होने के बाद से, किसान काफी मुश्किल परिस्थितियों में अपनी फसल बेच रहे हैं। उचित भंडारण सुविधाओं की कमी के चलते, उन्हें अपनी उपज के बर्बाद होने का डर लगातार बना रहता है।

भंडारण की सुविधा नहीं

सीतामढ़ी जिले के सोनबरसा गांव की सरपंच सुनीता देवी ने कहा," 2015 में भारत सरकार ने कई महीनों के लिए नाकेबंदी की थी। इसने स्थानीय समुदाय को सबसे ज्यादा प्रभावित किया था। क्षेत्र में लंबे समय से की जा रही कोल्ड स्टोरेज की उनकी मांग राज्य सरकार के पास वर्षों से लंबित है।"


सरपंच ने बताया कि सीतामढ़ी कस्बे में पांच कोल्ड स्टोरेज स्वीकृत किए गए हैं। उनमें से बस एक ही काम कर रहा है। नतीजतन, किसान सब्जियों जैसी खराब होने वाली वस्तुओं को गांवों में ही बेचने को मजबूर हैं या फिर उन्हें खुद ही इनका उपभोग करना पड़ता है।

सीतामढ़ी जिले के डुमरी ब्लॉक की खंड विकास अधिकारी कमला देवी ने कहा, " क्योंकि सीतामढ़ी जिला बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में आता है, शायद ही ऐसा कुछ है जो सरकार कर सकती हो।" लेकिन उन्होंने स्वीकार किया कि स्थानीय निकाय (PACS) चावल और दाल खरीदने में लंबा समय लगाते हैं और किसानों को पैसे देने में देरी करते हैं। यही कारण है कि किसान नेपाल में अपनी उपज बेचना पसंद करते हैं। वह आगे कहती हैं, "कृषि उत्पादों को स्टोर करने के लिए एक कोल्ड स्टोरेज यूनिट के लिए जमीन खरीद ली गई है, और जल्द ही निर्माण कार्य शुरू हो जाएगा।"

सड़कों की हालत ठीक नहीं

ग्रामीणों के अनुसार, उत्तर बिहार में सीमावर्ती क्षेत्रों और प्रमुख शहरों को जोड़ने वाली सड़कों की हालत ठीक नहीं है। जिसकी वजह से कृषि उत्पादों की ढुलाई में खासी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। अशोक कुमार ने शिकायत करते हुए कहा, "सोनबरसा गांव से सीतामढ़ी शहर की दूरी 30 किलोमीटर है। इसे तय करने में करीब तीन घंटे लग जाते हैं।" उत्तर बिहार भारत का सबसे अधिक बाढ़ संभावित क्षेत्र है। जिसकी वजह से साल में दो महीने से ज्यादा समय के लिए यहां आना-जाना वैसे ही मुश्किलों भरा होता है

सीतामढ़ी के सोनबरसा गांव के अशोक कुमार कहते हैं, "बाढ़ और खराब सड़कों के कारण, हमें हर साल मानसून के बाद सीतामढ़ी बाजार में अपने चावल बेचने के लिए काफी जद्दोजहद करनी पड़ती है। यहां से पचास किलोमीटर दूर शहर तक जाने के लिए हमें अपने लाभ का एक बड़ा हिस्सा खर्च करना पड़ता है।" किसान ने आगे कहा, "हमें अपनी फसल को निजी खरीददारों को उनके द्वारा तय किए गए मूल्य पर और कई बार कम से कम लाभ पर बेचने के लिए मजबूर किया जाता है।"

सीतामढ़ी के सोनबरसा गांव के एक अन्य किसान राजेश सिंह ने बताया, "सीतामढ़ी जिला बाढ़ प्रभावित क्षेत्र है। हर साल हमारे गांव में बाढ़ आती है, इसलिए हम अपने अनाज को लंबे समय तक स्टोर नहीं कर सकते। नेपाल का बाजार न केवल अच्छे मुनाफे के लिए बल्कि आसान कनेक्टिविटी के कारण भी फायदेमंद है।

प्रवासी मजदूरों की परेशानी

अभिषेक रंजन ने कहा कि कोविड​​-19 के बाद काफी लोग दिल्ली और मुंबई जैसे बड़े शहरों से वापस अपने गांव लौट आए हैं। जिस कारण लोगों को इस समय नौकरी पाना मुश्किल हो रहा है और एक बड़े हिस्से को खेतों में खेत मजदूरों के रूप में काम करना होगा।

सोहर जिले के पिपराही गांव के एक दिहाड़ी मजदूर भोला गुप्ता ने कहा, "कस्बों में काम ढूंढना अब और मुश्किल हो गया है। महामारी से पहले जिस काम के लिए अच्छी खासी मजदूरी मिल जाया करती थी, आज उसी काम के लिए कम भुगतान किया जाता है।" वह आगे कहते हैं, " मैं दिल्ली में काम किया करता था। बहुत परेशानियों का सामना करने के बाद, अब अपने पैतृक गांव लौट आया हूं। मैं बिहार नहीं छोड़ूंगा, भले ही मुझे खेतों में काम करना पड़े।"

कोविड​​-19 के बाद काफी लोग दिल्ली और मुंबई जैसे बड़े शहरों से वापस अपने गांव लौट आए हैं। फोटो: गाँव कनेक्शन

दिहाड़ी मजदूर ने शिकायत की कि मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम) के तहत काम मिलना आसान नहीं है। क्योंकि न तो गांवों में और न ही कस्बों में, निर्माण कार्य ज्यादा नहीं हो रहे हैं।

नेपाल ने पूर्व के कोविड-19 मामलों में बढ़ोतरी के लिए भारत को जिम्मेदार ठहराया, इस साल मार्च में सीमा पर गोलीबारी की और भारतीय क्षेत्र पर अपना दावा भी किया। इस सबके चलते, बिहार में किसानों के लिए माल की आवाजाही के लिए अंतरराष्ट्रीय सीमा खोले जाने को लेकर फिलहाल तो कोई उम्मीद नहीं नजर आ रही है। तब तक अशोक कुमार जैसे किसान अपनी कड़ी मेहनत से उगाई फसल को घाटे में बेचने के लिए यूं ही मजबूर होते रहेंगे।

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अनुवाद: संघप्रिया मौर्या

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