आदिवासियों का रुझान ‘बाड़ी खेती’ की ओर बढ़ा

Neetu SinghNeetu Singh   10 April 2017 7:23 PM GMT

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आदिवासियों का रुझान ‘बाड़ी खेती’ की ओर बढ़ाबाड़ी खेती की ओर बढ़ा आदिवासियों का रुझान ।

स्वयं प्रोजेक्ट डेस्क

लखनऊ। बुंदेलखंड के किसान सूखे की वजह से जहां भारी संख्या में पिछले कई वर्षों से पलायन करने को मजबूर हैं, वहीं कुछ आदिवासी परिवार बाड़ी की खेती कर इस पलायन को रोकने की कोशिश में लगे हैं।

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ललितपुर जिले से 35 किलोमीटर दूर विरधा ब्लॉक के पीपरी गाँव में रहने वाली राधा सहरिया (39 वर्ष) का कहना है, “हमारे परिवार के लोग वर्षों से पलायन कर रहे हैं, क्योंकि हमारे पास रोजी रोटी का कोई साधन नहीं है, पिछले सात वर्षों से हमने बाड़ी की खेती करनी शुरू की है तबसे हमारे परिवार के लोग बहार कमाने के लिए नहीं जा रहे हैं।”

वो आगे बताती हैं, “इस बाड़ी से बहुत ज्यादा बचत तो नहीं कर पायें है लेकिन हमारे बच्चों ने, पड़ोसियों ने, रिश्तेदारों ने अमरुद खूब खाए, गरीबी की वजह से कभी बच्चों को बाजार से फल खरीद कर नहीं खिला पाते थे लेकिन अब तो बाड़ी से बच्चे को खूब फल खाने को मिलते हैं।

बुंदेलखंड के ललितपुर में 71 हजार 610 सहरिया आदिवासी परिवार के लोग रहते हैं। रोजगार का कोई साधन न हो पाने की वजह से यहां के ज्यादातर लोग पलायन कर जाते हैं। इन सहरिया आदिवासी परिवार का पलायन रोकने के लिए जिले में काम कर रही एक गैर सरकारी संस्था साईं ज्योति संस्थान प्रोजेक्ट कोऑर्डिनेटर महेश रिझरिया बताते हैं, “जब सहरिया आदिवासी समूहों के साथ बैठकें की तो पता चला कि अगर ने रोजगार मिले तो ये पलायन न करें, संस्थान ने रोजगार मुहैया कराने के लिए एक एकड़ में प्रति आदिवासी परिवार को 55 पौधे और उसकी पूरी लागत दी जिससे ये बाड़ी कर सकें और अपना जीवकोपार्जन चला सकें।“

ललितपुर के विरधा ब्लॉक में अब तक 500 बाड़ी दर्जनों गाँवों जैसे पीपरी, वारौध, सहपुरा, पिपौरिया, बडौली, ऐरवानी, डावर, चौतरहा में लग चुकी हैं, जाखलौन ब्लॉक में 200 बाड़ी लग गयी है। वर्ष 2008 में बाड़ी लगने का कार्यक्रम इस संस्था द्वारा शुरू किया गया था, इन बाड़ी के लगने से इन आदिवासियों का पलायन काफी हद तक रोका गया है ।

बजरंगगढ़ में रहने वाली सकुन सहरिया (40 वर्ष) का कहना है, “बाड़ी में आंवला, आम, अमरुद, करौंदा, बेर जैसे तमाम पेड़ लगाये हैं, पिछली साल हमने 12 हजार के अमरुद बेचें, आम भी बेचे थे, हम इस बाड़ी में पौधों के साथ-साथ चने, गेहूं जैसी फसलें भी ले लेते हैं।” वो आगे बताती हैं, “बाड़ी में जो भी पैदा होता है उससे घरेलू खर्चे, साग-सब्जी आराम से चल जाता है, फसलों में ज्यादा पानी की जरूरत पड़ती है जबकि बाड़ी में बहुत कम पानी में सिंचाई हो जाती है, जिससे सूखे के समय भी ये खेती हो जाती है।”

जब सहरिया आदिवासी समूहों के साथ बैठकें की तो पता चला कि अगर रोजगार मिले तो ये पलायन न करें, संस्थान ने रोजगार मुहैया कराने के लिए एक एकड़ में प्रति आदिवासी परिवार को 55 पौधे और उसकी पूरी लागत दी जिससे ये बाड़ी कर सकें और अपना जीवकोपार्जन चला सकें।“
महेश रिझरिया प्रोजेक्ट कोऑर्डिनेटर साईं ज्योति संस्थान

महेश रिझरिया का कहना है, “जिस उद्देश्य से बाड़ी वाला कार्यक्रम शुरू किया था ,वो उद्देश्य काफी हद तक पूरा हो रहा है, सहरिया आदिवासी जो कभी खेती नही करते थे, उन्हें जो पंचायत से भूमि मिली है या फिर जो उनकी पुश्तैनी भूमि थी वो खाली पड़ी रहती थी। भूमि बंजर होती जा रही थी लेकिन जबसे ये बाड़ी के कार्यक्रम की शुरुवात की तबसे सहरिया आदिवासियों ने अपने खेत को साफ किया अब पूरी तरह से देखरेख करते हैं।

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