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जहाँ खेती बनी कारोबार: बस्तर के आदिवासियों को आत्मनिर्भर बना रही है ‘मुनाफे की खेती’

Gaon Connection | Dec 25, 2025, 12:32 IST
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कभी हिंसा और कर्ज़ के लिए पहचाना जाने वाला बस्तर आज मुनाफे की खेती का नया चेहरा बन रहा है। राजाराम त्रिपाठी के मॉडल ने आदिवासी किसानों को धान-गेहूँ से आगे सोचने की ताक़त दी है, कम लागत, ज़्यादा मुनाफा और प्रकृति के साथ जीने का रास्ता।
धान और गेहूँ उगाने वाले ये किसान साल भर मेहनत करते, फिर भी मुनाफ़ा इतना नहीं होता कि अगला सीजन बिना कर्ज़ के शुरू कर सकें।
बस्तर… एक ऐसा नाम, जिसे सुनते ही ज़हन में लाल मिट्टी, घने जंगल, आदिवासी गाँव और बरसों तक पसरे डर की तस्वीर उभर आती है। दशकों तक यह इलाका हिंसा, उग्रवाद और उपेक्षा के साये में जीता रहा। यहाँ खेती होती थी, लेकिन आमदनी नहीं। खेतों में धान लहलहाता था, पर घरों में खालीपन था। किसान मेहनत करता था, लेकिन मुनाफा साहूकार और बाज़ार उठा ले जाते थे। बस्तर का किसान कर्ज़ में जन्म लेता था और कर्ज़ में ही बूढ़ा हो जाता था।

इसी बस्तर को अपनी आँखों से देखा था राजाराम त्रिपाठी ने।

कोंडागांव ज़िले के चिखलपुटी गाँव में रहने वाले राजाराम पढ़-लिखकर बैंकिंग सेक्टर में रिकवरी ऑफिसर बने। काम था, कर्ज़ वसूलना। लेकिन जब वे बस्तर के गाँवों में जाते, तो उन्हें सिर्फ बकाया रकम नहीं दिखती थी, बल्कि टूटे हुए सपने, खाली अनाज कोठार और किसानों की बेबसी दिखती थी। उन्हें समझ में आने लगा कि समस्या आलस्य या मेहनत की कमी नहीं, बल्कि खेती का वह मॉडल है जो किसान को कभी समृद्ध ही नहीं होने देता।

1990 के दशक में, जब बस्तर में हालात और भी मुश्किल थे, तब राजाराम त्रिपाठी ने नौकरी छोड़कर खेती को ही बदलाव का माध्यम बनाने का फैसला किया।
1990 के दशक में, जब बस्तर में हालात और भी मुश्किल थे, तब राजाराम त्रिपाठी ने नौकरी छोड़कर खेती को ही बदलाव का माध्यम बनाने का फैसला किया।


यहीं से जन्म हुआ एक सवाल का, “क्या खेती सिर्फ पेट भरने का साधन रहेगी, या यह सम्मान और समृद्धि का रास्ता भी बन सकती है?”

धान-गेहूँ से आगे की सोच

राजाराम त्रिपाठी ने महसूस किया कि अगर किसान सिर्फ धान और गेहूँ पर निर्भर रहेगा, तो उसका जीवन हमेशा सरकारी दामों और मौसम की मार के भरोसे रहेगा। मुनाफा तभी आएगा, जब किसान उन फसलों की ओर जाएगा, जिनकी माँग देश और दुनिया के बाज़ारों में है।

उन्होंने प्रयोग शुरू किया, काली मिर्च, स्टीविया, अश्वगंधा, कालमेघ, हल्दी, जड़ी-बूटियाँ और मसाले। वह भी बिना रासायनिक खाद, बिना ड्रिप सिंचाई, बिना भारी लागत।

राजाराम त्रिपाठी के मॉडल ने आदिवासी किसानों को धान-गेहूँ से आगे सोचने की ताक़त दी है, कम लागत, ज़्यादा मुनाफा और प्रकृति के साथ जीने का रास्ता।
राजाराम त्रिपाठी के मॉडल ने आदिवासी किसानों को धान-गेहूँ से आगे सोचने की ताक़त दी है, कम लागत, ज़्यादा मुनाफा और प्रकृति के साथ जीने का रास्ता।


राजाराम बताते हैं, “आप यहाँ 100 फीट तक नज़र डालिए, हर बेल पर काली मिर्च लदी हुई है। एक-एक पेड़ से 40–50 किलो तक उत्पादन। न खाद, न दवा, न भारी पानी। बस जंगल की समझ।”

जंगल से सीखा खेती का सबक

1996 में राजाराम त्रिपाठी ने बस्तर में एक जैविक पार्क की स्थापना की। आज वहाँ 343 से अधिक औषधीय पौधे और जड़ी-बूटियाँ हैं। यह पार्क सिर्फ खेती का मैदान नहीं, बल्कि एक खुली पाठशाला है, जहाँ किसान सीखता है कि प्रकृति के खिलाफ नहीं, उसके साथ चलकर कैसे मुनाफा कमाया जा सकता है।

यह खेती जंगल जैसी है, मल्टी-क्रॉप, लो-इनपुट, हाई-वैल्यू। यहाँ मिट्टी जिंदा रहती है, पानी बचता है और किसान का आत्मसम्मान लौटता है।

आदिवासी जीवन में लौटी उम्मीद

इस मॉडल का सबसे बड़ा असर पड़ा आदिवासी परिवारों पर। कृष्ण राम नेताम जैसे किसान, जिनके पास कभी ढंग का घर नहीं था, आज अपने बच्चों को पढ़ा रहे हैं।

कृष्ण राम नेताम कहते हैं, “स्टीविया और काली मिर्च की खेती से मैंने बच्चों को पढ़ाया, गाड़ी खरीदी और परिवार को सम्मान से जीना सिखाया।”

यह कहानी है खेती को कारोबार और उम्मीद को भविष्य में बदलने की।
यह कहानी है खेती को कारोबार और उम्मीद को भविष्य में बदलने की।


यह सिर्फ आमदनी की कहानी नहीं है। यह आत्मनिर्भरता की कहानी है। पहले किसान अपनी फसल बेचने शहर जाता था, आज बाज़ार खुद गाँव तक आता है।

खेती का पूरा बिज़नेस मॉडल

राजाराम त्रिपाठी सिर्फ खेती सिखाकर नहीं रुकते। वे पूरी वैल्यू चेन तैयार करते हैं, बीज से लेकर बाज़ार तक। गाँव-गाँव जाकर किसानों को प्रशिक्षण दिया जाता है, कब रोपण करना है, कितना पानी देना है, कैसे कटाई करनी है।

शंकर नाग, जो इस अभियान से जुड़े हैं, बताते हैं, “हम किसानों से उनका उत्पादन वापस लेते हैं, ताकि उन्हें बाज़ार की चिंता न रहे।” यह भरोसे का रिश्ता है, जो बस्तर में पहले कभी नहीं था।

हिंसा से विकास की ओर

जहाँ कभी बंदूक की आवाज़ गूंजती थी, वहाँ आज पौधों की पत्तियाँ सरसराती हैं। खेती यहाँ सिर्फ रोज़गार नहीं, बल्कि शांति का रास्ता बन रही है। जब किसान के पास स्थायी आमदनी होती है, तो वह हिंसा से दूर रहता है।

राजाराम त्रिपाठी का मॉडल यह साबित करता है कि विकास का मतलब जंगल काटना नहीं, बल्कि जंगल से सीखना है।

गाँव से निकला समाधान

बस्तर की यह कहानी हमें एक बड़ा सबक देती है, समस्या कितनी भी बड़ी क्यों न हो, समाधान अक्सर गाँव से ही निकलता है।

राजाराम त्रिपाठी ने न कोई बड़ी कंपनी खड़ी की, न भारी मशीनें लगाईं। उन्होंने सिर्फ सोच बदली और वही सोच आज सैकड़ों परिवारों की किस्मत बदल रही है।

यह ‘मुनाफे की खेती’ सिर्फ पैसों की खेती नहीं है। यह आत्मसम्मान, स्वावलंबन और भविष्य की खेती है, जो बस्तर जैसे इलाकों में उम्मीद की सबसे मजबूत फसल उगा रही है।
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