एक जनजातीय वैद्य की विरासत: सरोजिनी कैसे बचा रहीं दुर्लभ औषधीय पौधे
Divendra Singh | Nov 25, 2025, 15:01 IST
छत्तीसगढ़ की जनजातीय वैद्य सरोजिनी पनिका पारंपरिक औषधीय ज्ञान को न सिर्फ़ जिंदा रख रही हैं, बल्कि उसे आधुनिक वैज्ञानिक समझ से जोड़कर ग्रामीण महिलाओं के लिए आजीविका के नए रास्ते खोल रही हैं। लुप्तप्राय औषधीय पौधों की खेती से लेकर 200 महिलाओं के हर्बल यूनिट तक, उनकी कहानी परंपरा, जंगल और आत्मनिर्भरता की अनोखी मिसाल है।
झारखंड के जमशेदपुर में नवंबर की सर्द हवा में जब देश के सुदूर इलाकों से आए जनजातीय वैद्यों का जमावड़ा हुआ, तो उसी भीड़ में एक महिला अपनी खास पहचान के साथ चमक रही थी, सरोजिनी गोयल पनिका।
सरोजिनी अपने आप को एक ऐसी विरासत की संरक्षक मानती हैं, जो पीढ़ियों से चली आ रही है। वो हैं उनके दादा और पिता से मिली वन औषधियों की अनमोल जानकारियाँ। आज वे इन्हीं पारंपरिक ज्ञानों को वैज्ञानिक समझ से जोड़कर हर्बल तेल, चूर्ण, अर्क, गोलियाँ और यहाँ तक कि औषधीय लड्डू तैयार करती हैं। सिर्फ़ यही नहीं, वे उन औषधीय वनस्पतियों की खेती भी करती हैं जो विलुप्ति के कगार पर हैं। आधुनिक दुनिया में यह काम एक मिशन जैसा है।
छत्तीसगढ़ के कोरबा ज़िले के पनिका जनजाति परिवार से ताल्लुक रखने वाली सरोजिनी ने बचपन से ही अपने दादा, को को जंगलों में औषधि इकट्ठे करते हुए देखा। इनके पिता भी वही काम करते थे। पत्तियों, जड़ों, कंदों, फलों और वन-स्रोतों से बनी दवाइयाँ गाँव के लोगों की हर बीमारी का समाधान होती थीं- जौंडिस से लेकर बुखार, अपच, त्वचा रोगों तक। यही दृश्य उनके भीतर एक बीज की तरह पनप गया, वो बीज जिसने बाद में एक बड़े आंदोलन का रूप लिया।
2013 में उन्होंने कोरबा जिले के डोंड्रो में ‘निष्ठा हर्बल’ नाम से एक छोटा सा केंद्र खोला, जो आज स्थानीय महिलाओं की आर्थिक और सामाजिक रीढ़ बन चुका है। 25 तरह से अधिक उत्पाद बनाये जाते हैं और 200 से अधिक महिलाएँ सीधे-परोक्ष रूप से इससे जुड़ी हैं। कुछ महिलाएँ जंगलों से औषधीय पौधे लाती हैं, कुछ अपने घरों से साफ़-सफाई, सुखाने और बारीक करने का काम करती हैं, अंत में ये सब सामग्री यूनिट में आते ही औषधीय उत्पाद बन जाती है।
यही नहीं सरोजनी आज सरोजनी ग्रामीण विकास महिला संस्थान की अध्यक्ष भी हैं, साथ ही विकास भारती की सदस्य भी।
आज निष्ठा हर्बल का वार्षिक कारोबार लगभग 50 लाख रुपये पहुँच चुका है। यह सिर्फ़ एक आर्थिक सफलता नहीं, बल्कि ग्रामीण आजीविका और महिला नेतृत्व का बेहतरीन उदाहरण है।
लेकिन यह यात्रा इतनी आसान नहीं थी। इससे पहले, 2010 में सरोजिनी को UNDP द्वारा बेंगलुरु में एक वर्ष का “विलेज बॉटनिस्ट” प्रशिक्षण मिला। वहाँ उन्होंने उन पौधों के वैज्ञानिक नाम सीखे जिन्हें वे सिर्फ़ स्थानीय नाम से जानती थीं। टिकाऊ और जिम्मेदार तरीके से पौधों की कटाई-सस्टेनेबल हार्वेस्टिंग का गहन प्रशिक्षण मिला। यही ज्ञान वे अब स्कूलों के बच्चों तक भी ले जाती हैं। वे बच्चों को जंगलों में ट्रेक पर ले जाती हैं और उन्हें उन पौधों से परिचित कराती हैं जिन्हें वे बचपन से जानती थीं और जो अब संकटग्रस्त हैं।
उनकी सोच में बड़ा बदलाव तब आया जब वे जैव विविधता अधिनियम 2002 के बारे में जान पाईं। आज वे कोरबा जिले की बायोडायवर्सिटी मैनेजमेंट कमेटी की सदस्य हैं और अपनी एम.एससी. बॉटनी कर चुकी हैं और अब पीएचडी की तैयारी भी कर रही हैं। उनके लिए परंपरा सिर्फ़ ज्ञान का वारिस होना नहीं। बल्कि उसे वैज्ञानिक रूप से संरक्षित करना है।
परंपरा को खत्म होने से बचाना उनका सबसे बड़ा मिशन है। वे कहती हैं, “पहले हर घर में कोई न कोई होता था जो औषधीय पौधों का ज्ञान रखता था। आज वही पौधे जंगलों से गायब हो रहे हैं।”
इसी चिंता ने उन्हें एक और महत्वपूर्ण कदम उठाने के लिए प्रेरित किया रेड-लिस्टेड औषधीय पौधों की खेती। वे सेफेद मूसली, शतावरी, कालमेघ, गुडमार और कचनार जैसे लुप्तप्राय पौधों के पौधे जंगलों से लाकर अपने नर्सरी में लगाती हैं। इन्हें वे औषधीय उत्पादों में भी इस्तेमाल करती हैं और इच्छुक किसानों को पौधे भी देती हैं।
साल दर साल वे संवाद-टाटा स्टील फाउंडेशन द्वारा आयोजित इस वार्षिक जनजातीय सम्मेलन में शामिल होती रही हैं। इसी सम्मेलन ने उन्हें मंच दिया, पहचान दी, और आत्मविश्वास भी। वे मुस्कुराते हुए कहती हैं, "इस सम्मेलन ने मुझे अपनी पहचान पर गर्व करना सिखाया।”
यह सिर्फ़ एक महिला की कहानी नहीं, ये भारत के उन अनगिनत आदिवासी समुदायों की कहानी है जिनके पास सदियों पुराना ज्ञान है, लेकिन आधुनिक दुनिया उन्हें अक्सर नजरअंदाज़ कर देती है। सरोजिनी जैसी महिलाएँ हमें याद दिलाती हैं कि जंगल सिर्फ़ पेड़ों का समूह नहीं, एक चलता-फिरता मेडिकल कॉलेज है, और परंपरा हमारी मिट्टी की विश्वविद्यालय।
सरोजिनी अपने आप को एक ऐसी विरासत की संरक्षक मानती हैं, जो पीढ़ियों से चली आ रही है। वो हैं उनके दादा और पिता से मिली वन औषधियों की अनमोल जानकारियाँ। आज वे इन्हीं पारंपरिक ज्ञानों को वैज्ञानिक समझ से जोड़कर हर्बल तेल, चूर्ण, अर्क, गोलियाँ और यहाँ तक कि औषधीय लड्डू तैयार करती हैं। सिर्फ़ यही नहीं, वे उन औषधीय वनस्पतियों की खेती भी करती हैं जो विलुप्ति के कगार पर हैं। आधुनिक दुनिया में यह काम एक मिशन जैसा है।
छत्तीसगढ़ के कोरबा ज़िले के पनिका जनजाति परिवार से ताल्लुक रखने वाली सरोजिनी ने बचपन से ही अपने दादा, को को जंगलों में औषधि इकट्ठे करते हुए देखा। इनके पिता भी वही काम करते थे। पत्तियों, जड़ों, कंदों, फलों और वन-स्रोतों से बनी दवाइयाँ गाँव के लोगों की हर बीमारी का समाधान होती थीं- जौंडिस से लेकर बुखार, अपच, त्वचा रोगों तक। यही दृश्य उनके भीतर एक बीज की तरह पनप गया, वो बीज जिसने बाद में एक बड़े आंदोलन का रूप लिया।
2013 में उन्होंने कोरबा जिले के डोंड्रो में ‘निष्ठा हर्बल’ नाम से एक छोटा सा केंद्र खोला, जो आज स्थानीय महिलाओं की आर्थिक और सामाजिक रीढ़ बन चुका है। 25 तरह से अधिक उत्पाद बनाये जाते हैं और 200 से अधिक महिलाएँ सीधे-परोक्ष रूप से इससे जुड़ी हैं। कुछ महिलाएँ जंगलों से औषधीय पौधे लाती हैं, कुछ अपने घरों से साफ़-सफाई, सुखाने और बारीक करने का काम करती हैं, अंत में ये सब सामग्री यूनिट में आते ही औषधीय उत्पाद बन जाती है।
यही नहीं सरोजनी आज सरोजनी ग्रामीण विकास महिला संस्थान की अध्यक्ष भी हैं, साथ ही विकास भारती की सदस्य भी।
tribal healers ancient knowledge
आज निष्ठा हर्बल का वार्षिक कारोबार लगभग 50 लाख रुपये पहुँच चुका है। यह सिर्फ़ एक आर्थिक सफलता नहीं, बल्कि ग्रामीण आजीविका और महिला नेतृत्व का बेहतरीन उदाहरण है।
लेकिन यह यात्रा इतनी आसान नहीं थी। इससे पहले, 2010 में सरोजिनी को UNDP द्वारा बेंगलुरु में एक वर्ष का “विलेज बॉटनिस्ट” प्रशिक्षण मिला। वहाँ उन्होंने उन पौधों के वैज्ञानिक नाम सीखे जिन्हें वे सिर्फ़ स्थानीय नाम से जानती थीं। टिकाऊ और जिम्मेदार तरीके से पौधों की कटाई-सस्टेनेबल हार्वेस्टिंग का गहन प्रशिक्षण मिला। यही ज्ञान वे अब स्कूलों के बच्चों तक भी ले जाती हैं। वे बच्चों को जंगलों में ट्रेक पर ले जाती हैं और उन्हें उन पौधों से परिचित कराती हैं जिन्हें वे बचपन से जानती थीं और जो अब संकटग्रस्त हैं।
उनकी सोच में बड़ा बदलाव तब आया जब वे जैव विविधता अधिनियम 2002 के बारे में जान पाईं। आज वे कोरबा जिले की बायोडायवर्सिटी मैनेजमेंट कमेटी की सदस्य हैं और अपनी एम.एससी. बॉटनी कर चुकी हैं और अब पीएचडी की तैयारी भी कर रही हैं। उनके लिए परंपरा सिर्फ़ ज्ञान का वारिस होना नहीं। बल्कि उसे वैज्ञानिक रूप से संरक्षित करना है।
परंपरा को खत्म होने से बचाना उनका सबसे बड़ा मिशन है। वे कहती हैं, “पहले हर घर में कोई न कोई होता था जो औषधीय पौधों का ज्ञान रखता था। आज वही पौधे जंगलों से गायब हो रहे हैं।”
इसी चिंता ने उन्हें एक और महत्वपूर्ण कदम उठाने के लिए प्रेरित किया रेड-लिस्टेड औषधीय पौधों की खेती। वे सेफेद मूसली, शतावरी, कालमेघ, गुडमार और कचनार जैसे लुप्तप्राय पौधों के पौधे जंगलों से लाकर अपने नर्सरी में लगाती हैं। इन्हें वे औषधीय उत्पादों में भी इस्तेमाल करती हैं और इच्छुक किसानों को पौधे भी देती हैं।
साल दर साल वे संवाद-टाटा स्टील फाउंडेशन द्वारा आयोजित इस वार्षिक जनजातीय सम्मेलन में शामिल होती रही हैं। इसी सम्मेलन ने उन्हें मंच दिया, पहचान दी, और आत्मविश्वास भी। वे मुस्कुराते हुए कहती हैं, "इस सम्मेलन ने मुझे अपनी पहचान पर गर्व करना सिखाया।”
यह सिर्फ़ एक महिला की कहानी नहीं, ये भारत के उन अनगिनत आदिवासी समुदायों की कहानी है जिनके पास सदियों पुराना ज्ञान है, लेकिन आधुनिक दुनिया उन्हें अक्सर नजरअंदाज़ कर देती है। सरोजिनी जैसी महिलाएँ हमें याद दिलाती हैं कि जंगल सिर्फ़ पेड़ों का समूह नहीं, एक चलता-फिरता मेडिकल कॉलेज है, और परंपरा हमारी मिट्टी की विश्वविद्यालय।