बायोफ्लॉक: मछली पालन की इस विधि में कम पानी, कम जगह में ले ज्यादा उत्पादन
Diti Bajpai | Dec 26, 2019, 13:22 IST
अगर आप मछली पालन को व्यवसाय के रूप में करना चाहते हैं और आपके पास जगह कम है तो बायोफ्लॉक विधि से मछली पाल सकते हैं। इस विधि में लागत कम और मुनाफा ज्यादा होता है, देखिए एक सफल किसान का वीडियो
धर्मवीर सिंह पिछले एक साल से कम जगह और कम पानी में ज्यादा से ज्यादा मछली का उत्पादन ले रहे है। उनकी इस विधि के इस्तेमाल से पानी की बचत तो हो रही है साथ वह लाखों की कमाई भी कर रहे हैं।
उत्तर प्रदेश में लखनऊ जिला मुख्यालय से 20 किलोमीटर बाबूखेड़ा गाँव में रहने वाले धर्मवीर सिंह बायो फ्लॉक विधि से मछली पालन कर रहे हैं। बायोफ्लॉक मछली पालन में एक नई विधि है। इसमें टैंकों में मछली पाली जाती है। टैंकों में मछलियां जो वेस्ट निकालती है उसको बैक्टीरिया के द्वारा प्यूरीफाई किया जाता है। यह बैक्टीरिया मछली के 20 प्रतिशत मल को प्रोटीन में बदल देता है। मछली इस प्रोटीन को खा लेती हैं।
बायोफ्लॉक: मछली पालन की इस विधि में कम पानी, कम जगह में ले ज्यादा उत्पादन
मछली पालन की इस तकनीक के बारे में धर्मवीर आगे कहते हैं, "इस तकनीक में पानी की बचत तो है ही साथ ही मछलियों के फीड की भी बचत होती है। मछली जो भी खाती है उसका 75 फीसदी वेस्ट निकालती है और वो वेस्ट उस पानी के अंदर ही रहता है और उसी वेस्ट को शुद्व करने के लिए बायो फ्लॉक का इस्तेमाल किया जाता है जो बैक्टीरिया होता है वो इस वेस्ट को प्रोटीन में बदल देता है, जिसको मछली खाती है तो इस तरह से 1/3 फीड की सेविंग होती है।"
नेवी से रिटायर होने के बाद धर्मवीर ने नई तकनीक का प्रशिक्षण लिया। उसके बाद दो टैंकों से इस विधि से मछली पालन करना शुरू किया। धीरे-धीरे मुनाफा बढ़ने के बाद उन्होंने आठ टैंक बना लिए। धर्मवीर बताते हैं, "मेरे पास आठ टैंक है एक टैंक तीन मीटर डाया का है ,जिसमें 7 हजार 500 लीटर पानी आता है। इसमें करीब पांच कुंतल मछलियां पैदा कर लेते है। एक बार टैंक में पानी भर गया तो पूरा कल्चर इसी में हो जाता है। ज्यादा से ज्यादा 100-200 लीटर पानी डालना पड़ता है। "
तालाब और बायोफ्लॉक (biofloc) तकनीक में अंतर के बारे में धर्मवीर बताते हैं, "तालाब में सघन मछली पालन (fish farming) नहीं हो सकता क्योंकि ज्यादा मछली डाली तो तालाब का अमोनिया बढ़ जाएगी तालाब गंदा हो जाएगा और मछलियां मर जाऐंगी। जबकि इस सिस्टम में आसानी से किया जा सकता है। इस तकनीक में फीड की काफी सेविंग होती है। अगर तालाब में फीड की तीन बोरी खर्च होती है तो इस तकनीक में दो बोरी ही खर्च होंगी।"
अपना बायोफ्लॉक फार्म दिखाते किसान धर्मवीर सिंह। फोटो- अभिषेक वर्मा
बायो फ्लॉक तकनीक में एक टैंक को बनाने में कितनी लागत आएगी वो टैंक के साइज के ऊपर होता है। टैंक का साइज जितना बड़ा होगा मछली की ग्रोथ उतनी ही अच्छी होगी और आमदनी भी उतनी अच्छी होगी। टैंकों में आने वाले खर्च के बारे में सिंह बताते हैं, एक टैंक को बनाने में 28 से 30 हजार रुपए का खर्चा आता है जिसमें उपकरण और लेबर चार्ज शामिल है। टैंक को साइज जितना बढ़ेगा कॉस्ट बढ़ती चली जाएगी। "
इस विधि से धर्मवीर सिंह को जहां मुनाफा हो रहा है वहीं इसमें कुछ दिक्कतों का भी सामना करना पड़ रहा है।बायो फ्लॉक सिस्टम में आने वाली समस्याओं के बारे में धर्मवीर बताते हैं, "इस सिस्टम में पानी के तापमान को नियंत्रित करने की बड़ी समस्या होती है क्योंकि हर मछली अलग-अलग तापमान में रहती है। उदाहरण के लिए पंगेशियस। यह मछली ठंडे पानी में नहीं रह पाती है तो उसके लिए पॉलीशेड और तापमान को नियंत्रित करने की व्यवस्था बनानी पड़ती है। इस वजह से थोड़ी दिक्कत आती है।"
इस तकनीक में 24 घंटे बिजली की जरुरत
इस तकनीक में 24 घंटे बिजली की व्यवस्था होनी चाहिए। क्योंकि इसमें जो बैक्टीरिया पलता है वो ऐरोबिक बैक्टीरिया है जिसको 24 घंटे हवा की जरुरत होती है तभी वह जीवित रहता है। धर्मवीर बताते हैं, "इस सिस्टम को बिना बिजली के नहीं चलाया जा सकता है। मैंने चार टैंक के लिए एक इनवेटर लगा रखा है।"
मछली पालकों को तालाब की निगरानी रखनी पड़ती है क्योंकि मछलियों को सांप और बगुला खा जाते हैं जबकि बायो फ्लॉक वाले जार के ऊपर शेड लगाया जाता है। इससे मछलियां मरती भी नहीं है और किसान को नुकसान भी नहीं होता है।
एक हेक्टेयर के तालाब में हर समय एक दो इंच के बोरिंग से पानी दिया जाता है जबकि बायो फ्लॉक विधि में चार महीने में केवल एक ही बार पानी भरा जाता है। गंदगी जमा होने पर केवल दस प्रतिशत पानी निकालकर इसे साफ रखा जा सकता है। टैंक से निकले हुए पानी को खेतों में छोड़ा जा सकता है।
उत्तर प्रदेश में लखनऊ जिला मुख्यालय से 20 किलोमीटर बाबूखेड़ा गाँव में रहने वाले धर्मवीर सिंह बायो फ्लॉक विधि से मछली पालन कर रहे हैं। बायोफ्लॉक मछली पालन में एक नई विधि है। इसमें टैंकों में मछली पाली जाती है। टैंकों में मछलियां जो वेस्ट निकालती है उसको बैक्टीरिया के द्वारा प्यूरीफाई किया जाता है। यह बैक्टीरिया मछली के 20 प्रतिशत मल को प्रोटीन में बदल देता है। मछली इस प्रोटीन को खा लेती हैं।
RDESController-2438
मछली पालन की इस तकनीक के बारे में धर्मवीर आगे कहते हैं, "इस तकनीक में पानी की बचत तो है ही साथ ही मछलियों के फीड की भी बचत होती है। मछली जो भी खाती है उसका 75 फीसदी वेस्ट निकालती है और वो वेस्ट उस पानी के अंदर ही रहता है और उसी वेस्ट को शुद्व करने के लिए बायो फ्लॉक का इस्तेमाल किया जाता है जो बैक्टीरिया होता है वो इस वेस्ट को प्रोटीन में बदल देता है, जिसको मछली खाती है तो इस तरह से 1/3 फीड की सेविंग होती है।"
नेवी से रिटायर होने के बाद धर्मवीर ने नई तकनीक का प्रशिक्षण लिया। उसके बाद दो टैंकों से इस विधि से मछली पालन करना शुरू किया। धीरे-धीरे मुनाफा बढ़ने के बाद उन्होंने आठ टैंक बना लिए। धर्मवीर बताते हैं, "मेरे पास आठ टैंक है एक टैंक तीन मीटर डाया का है ,जिसमें 7 हजार 500 लीटर पानी आता है। इसमें करीब पांच कुंतल मछलियां पैदा कर लेते है। एक बार टैंक में पानी भर गया तो पूरा कल्चर इसी में हो जाता है। ज्यादा से ज्यादा 100-200 लीटर पानी डालना पड़ता है। "
तालाब और बायोफ्लॉक (biofloc) तकनीक में अंतर के बारे में धर्मवीर बताते हैं, "तालाब में सघन मछली पालन (fish farming) नहीं हो सकता क्योंकि ज्यादा मछली डाली तो तालाब का अमोनिया बढ़ जाएगी तालाब गंदा हो जाएगा और मछलियां मर जाऐंगी। जबकि इस सिस्टम में आसानी से किया जा सकता है। इस तकनीक में फीड की काफी सेविंग होती है। अगर तालाब में फीड की तीन बोरी खर्च होती है तो इस तकनीक में दो बोरी ही खर्च होंगी।"
RDESController-2439
बायो फ्लॉक तकनीक में एक टैंक को बनाने में कितनी लागत आएगी वो टैंक के साइज के ऊपर होता है। टैंक का साइज जितना बड़ा होगा मछली की ग्रोथ उतनी ही अच्छी होगी और आमदनी भी उतनी अच्छी होगी। टैंकों में आने वाले खर्च के बारे में सिंह बताते हैं, एक टैंक को बनाने में 28 से 30 हजार रुपए का खर्चा आता है जिसमें उपकरण और लेबर चार्ज शामिल है। टैंक को साइज जितना बढ़ेगा कॉस्ट बढ़ती चली जाएगी। "
इस विधि से धर्मवीर सिंह को जहां मुनाफा हो रहा है वहीं इसमें कुछ दिक्कतों का भी सामना करना पड़ रहा है।बायो फ्लॉक सिस्टम में आने वाली समस्याओं के बारे में धर्मवीर बताते हैं, "इस सिस्टम में पानी के तापमान को नियंत्रित करने की बड़ी समस्या होती है क्योंकि हर मछली अलग-अलग तापमान में रहती है। उदाहरण के लिए पंगेशियस। यह मछली ठंडे पानी में नहीं रह पाती है तो उसके लिए पॉलीशेड और तापमान को नियंत्रित करने की व्यवस्था बनानी पड़ती है। इस वजह से थोड़ी दिक्कत आती है।"
इस तकनीक में 24 घंटे बिजली की जरुरत
इस तकनीक में 24 घंटे बिजली की व्यवस्था होनी चाहिए। क्योंकि इसमें जो बैक्टीरिया पलता है वो ऐरोबिक बैक्टीरिया है जिसको 24 घंटे हवा की जरुरत होती है तभी वह जीवित रहता है। धर्मवीर बताते हैं, "इस सिस्टम को बिना बिजली के नहीं चलाया जा सकता है। मैंने चार टैंक के लिए एक इनवेटर लगा रखा है।"