महामारी के बीच पढ़ाई के लिए संघर्ष कर रहें कश्मीर के दिव्यांग छात्र

जम्मू और कश्मीर में 83,000 से अधिक दिव्यांग छात्रों का नाम शैक्षणिक संस्थानों में दर्ज है। इनमें से लगभग आधे यानी 40,000 से अधिक छात्र कश्मीर क्षेत्र में हैं। कोरोना महामारी की वजह से इन बच्चों को पढ़ाई जारी रखने में बहुत कठिनाई आ रही है।

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महामारी के बीच पढ़ाई के लिए संघर्ष कर रहें कश्मीर के दिव्यांग छात्र

- मुदस्सिर कुलु

श्रीनगर: कोरोना माहमारी के कारण लॉकडाउन लगे लगभग आठ महीने हो चुके हैं और तब से लेकर अब तक ईफलाह सईद अपने घर पर खाली बैठी है। ईफलाह जम्मू-कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश की ग्रीष्मकालीन राजधानी श्रीनगर से 65 किलोमीटर दूर अनंतनाग जिले के डायलगाम में रहती है। तीन भाई-बहनों में सबसे बड़ी 15 साल की ईफलाह बोल और सुन नहीं सकती। ईफलाह का भाई मेहरान सईद 14 साल का है। मेहरान कक्षा आठ में पढ़ता है और वह भी बोल और सुन नहीं सकता।

ईफलाह के पिता मोहम्मद सईद भट ने श्रीनगर के सोलीना क्षेत्र के एक स्कूल में उसका दाखिला करवाया था। यह स्कूल विकलांग बच्चों के लिए है। ईफलाह ने कक्षा आठ की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी और वह आगे की पढ़ाई करने के बारे में सोच रही थी। हालांकि तब तक देश में कोरोना अपने पांव पसार चुका था। इस वैश्विक महामारी ने ईफलाह और उसके भाई की आशाओं पर पानी फेर दिया।

सुनने और बोलने में असमर्थ ईफलाह सईद

ईफलाह के पिता ने गांव कनेक्शन को बताया, "मेरे दोनों बच्चे ऑनलाइन क्लास से नहीं पढ़ सकते क्योंकि वे यह सुन नहीं सकते कि उनकी टीचर क्या कह रही है। वे सिर्फ सांकेतिक भाषा समझते हैं।'' भट को इस बात की काफी चिंता है क्योंकि इस समय उनके बच्चे ना तो स्कूल जा पा रहे हैं और ना ही ऑनलाइन क्लासेज ले पा रहे हैं।

भट के दोनों बच्चे पहले दक्षिणी कश्मीर के एक स्थानीय स्कूल में पढ़ते थे, लेकिन उन्हें बेहतर शिक्षा प्रदान कराने के उद्देश्य से भट ने उनका दाखिला श्रीनगर के एक स्कूल में करवाया था। यह स्कूल दिव्यांग बच्चों के लिए विशेष रूप से बनाया गया है। इस वजह से भट ने श्रीनगर में एक आवास किराए पर लिया था। मगर कोरोना की वजह से भट को वह जगह छोड़कर डायलगाम वापस आना पड़ा। अब यहां पर उनके बच्चे खाली बैठे हैं।

भट दुःखी होकर कहते हैं, "जब उन्होंने एक भी शब्द नहीं पढ़ा है तो हम उनसे उनके जीवन में बढ़ने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? मैंने अपने बच्चों को पढ़ाने का प्रयास किया है। लेकिन अब यह सब व्यर्थ लग रहा है। "

बोलने और सुनने में असमर्थ मेहरान सईद

इस साल की शुरुआत में भुवनेश्वर के एक संगठन 'स्वाभिमान' ने प्रेस बयान जारी कर यह सूचना दी थी कि जम्मू-कश्मीर सहित विभिन्न राज्यों में लगभग 43 प्रतिशत दिव्यांग बच्चे पढ़ाई छोड़ने की योजना बना रहे हैं। ये बच्चे ऐसा इसलिए कर रहे हैं क्योंकि उन्हें ऑनलाइन पढ़ाई करने में परेशानी हो रही है। अकेले जम्मू-कश्मीर में ऐसे करीबन हजार दिव्यांग बच्चें हैं, जिनकी शिक्षा लगातार दो लॉकडाउन से बुरी तरह प्रभावित हुई है। गौरतलब है कि कोविड-19 के कारण लॉकडाउन लगने से पहले जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 निरस्त होने के कारण भी कर्फ्यू लगी हुई थी।

शारीरिक रूप से कमजोर बच्चों के अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था 'ह्यूमैनिटी वेलफेयर ऑर्गनाइजेशन' हेल्पलाइन के चेयरमैन जाविद अहमद ने गांव कनेक्शन को बताया, "दिव्यांगो और विशेष रूप से दृष्टिबाधित, सुनने और बोलने में असमर्थ कई बच्चे शिक्षा से दूर हो रहे हैं।" अहमद की उम्र 44 साल है और वह खुद भी दिव्यांग हैं। उन्होंने कहा कि कोरोना की वजह से यह बच्चे पढ़ाई से और दूर होते जा रहे हैं।

अहमद 1997 में हुए एक आतंवादी हमले के बाद से ही व्हीलचेयर के सहारे हैं। उन्होंने बताया,"ये बच्चे ऑनलाइन आवेदन भी डाउनलोड नहीं कर सकते हैं। इसके अलावा ये बच्चे ऑनलाइन मोड के माध्यम से पढ़ाई भी नहीं कर सकते हैं क्योंकि वहां कोई सांकेतिक भाषा उपलब्ध नहीं है। इससे उनका मानसिक स्वास्थ्य भी बुरी तरह प्रभावित हो रहा है।"

अपने घर पर जाविद अहमद

2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में 5 से 19 वर्ष के उम्र वाले दिव्यांग छात्रों की संख्या करीब 40 लाख है। महामारी ने इनकी शिक्षा व्यवस्था को एकदम से बिगाड़ कर रख दिया है।

मुख्य सचिव असगर सामून, जिन्हें शिक्षा विभाग से कौशल विकास विभाग में पिछले महीने ही स्थानांतरित किया गया था, ने बातचीत के दौरान गांव कनेक्शन से कहा,"दिव्यांग बच्चों की शिक्षा घाटी में बुरी तरह से प्रभावित हुई है।" उन्होंने कहा कि इन बच्चों की जरूरतों को पूरा करने के लिए कई और ऐसे विशेष स्कूल बनाए जाने चाहिए।

पीछे छोड़ दिए गए लोग

जम्मू-कश्मीर के समाज कल्याण विभाग के आंकड़ों का हवाला देते हुए जावीद ने बताया कि जम्मू-कश्मीर में 1,20,000 दिव्यांग बच्चों में से 83,000 छात्रों को स्कूलों में दाखिला दिया गया था। इनमें 40,000 कश्मीर में और बाकी जम्मू और लद्दाख में हैं। इनमें से एक बड़ा हिस्सा कम आय वाले परिवारों का है जो अपने बच्चों की ऑनलाइन पढ़ाई के लिए स्मार्टफोन का खर्च उठाने में असमर्थ हैं।

श्रीनगर से लगभग 80 किलोमीटर दूर अनंतनाग जिले के वेरीनाग निवासी हिकमत सैयद दृष्टिहीन हैं और कक्षा नौ की छात्र हैं। पिछले साल 5 अगस्त से पहले, जब धारा 370 को समाप्त कर दिया गया था तो हिकमत अपने मोबाइल पर शिक्षकों के लेक्चर रिकॉर्ड करती थीं और बाद में घर पर आराम से उन्हें सुनती थी। हालांकि महामारी ने उनकी पढ़ाई पर ब्रेक लगा दिया है। हिकमत अफसोस करते हुए कहती हैं, "मैं तब से पढ़ नहीं पाई हूं जबसे कोरोना हुआ है। कोरोना की वजह से दिव्यांग बच्चों की शिक्षा बुरी तरह प्रभावित हुई है। हम ऑनलाइन पढ़ाई नहीं कर सकते हैं। "

हिकमत के पिता मोहम्मद यासीन, जो एक निजी मेडिकल शॉप पर काम करते हैं ने गांव कनेक्शन को बताया, "हिकमत की कक्षाएं ब्रेल में होती हैं। यहां तक ​​कि अगर स्कूल खुल भी जाते हैं तो यह दिव्यांग बच्चों के लिए एक चुनौती होगा क्योंकि उनके लिए संक्रमण का खतरा ज्यादा है। "

कश्मीर के बच्चे फोटो: राहुल चट्टोपाध्याय / फ़्लिकर (प्रतीकात्मक चित्र)

अनंतनाग के कंदरपोरा की रहने वाली पंद्रह वर्षीय ज़हरा मंज़ूर नेत्रहीन हैं और अपनी पढ़ाई को जारी रखने के लिए संघर्ष कर रही हैं।

ज़हरा के चाचा कहते हैं, "ज़हरा एक बुद्धिमान बच्ची है, लेकिन उसकी शिक्षा इस महामारी के कारण बुरी तरह प्रभावित हुई है।" वह प्रश्न करते हुए कहते हैं,"जब नार्मल बच्चे ऑनलाइन अध्ययन करने में असमर्थ हैं तो दिव्यांग बच्चों से आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वह वर्चुअल माध्यम से कुशलतापूर्वक अध्ययन कर लेगा?"

चुनौती का जवाब

जाविद ने बताया, "जम्मू-कश्मीर सरकार ने पहले 58 व्यक्तियों को एक केंद्र प्रायोजित योजना के तहत नियुक्त किया था जो स्कूलों में दिव्यांग बच्चों को पढ़ाने के लिए जिम्मेदार थे। लेकिन जम्मू और कश्मीर में विशेष आवश्यकता वाले छात्रों के लिए शिक्षकों का अनुपात अपर्याप्त है। केंद्र शासित प्रदेश में केवल 58 विशेष शिक्षक थे जो ऐसे बच्चों के पास थे जिन्हें उनकी विशेष आवश्यकता है और ये शिक्षक केवल कुछ ही स्कूलों में उपलब्ध हैं। इनमें से अधिकांश लोगों ने नौकरी छोड़ दी है क्योंकि उन्हें अपने काम के अनुसार कम वेतन का भुगतान किया जा रहा था। उन लोगों को अन्य विभागों में काम पसंद आ रहा था।"

जाविद ने बिजबेहरा में जायबा आपा इंस्टीट्यूट ऑफ इनक्लूसिव एजुकेशन शुरू किया है। वह बताते हैं, "हमारा स्कूल सिलेबस को पूरा करने के लिए वैकल्पिक दिनों में कक्षा 9 और 10 के छात्रों के लिए कक्षाएं ले रहा था।" जाविद का यह इंस्टीट्यूट दिव्यांग व्यक्तियों की शैक्षिक, व्यावसायिक और पुनर्वास आवश्यकताओं को पूरा करता है। इस संस्था से लगभग 250 छात्र सीधे लाभान्वित हुए हैं जबकि 10,000 दिव्यांग बच्चों को भी इसमें मदद मिली है। उन्होंने कहा कि दिव्यांग बच्चों के लिए हर जिले में विशेष स्कूल होने चाहिए।

हाल ही में गैर-लाभकारी मानवता कल्याण संगठन हेल्पलाइन ने बेंगलुरु स्थित अजीम प्रेमजी परोपकारी पहल के साथ मिलकर, सरकारी डिग्री कॉलेज, अनंतनाग में एक समावेशी ड्राइंग प्रतियोगिता का आयोजन किया था। इसके साथ ही दृष्टिबाधित लोगों के साथ एक क्रिकेट मैच भी खेला गया।

कश्मीर के एक स्कूल में पढ़ाई करते बच्चे. फोटो: केएस फोटोग्राफी / फ़्लिकर (प्रतीकात्मक चित्र)

ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म तक पहुंच की कमी यह सुनिश्चित करने में एक बड़ी बाधा है कि दिव्यांग बच्चे अपनी पढ़ाई को समय से पूरा कर पाएंगे

भारत में शिक्षा को समावेशी बनाने की एक व्यापक नीति है। पीएम ई विद्या (PM eVidya) मंच बोलने और सुनने में असमर्थ छात्रों तक पहुंचने का आश्वासन देता है। हालांकि, नीतियां और उनके कार्यान्वयन के बीच एक बड़ी खाई है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय, विकलांग व्यक्तियों के सशक्तिकरण विभाग और भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण जैसे विभिन्न सरकारी विभागों की तत्काल आवश्यकता है कि वो नीतियों के बारे में स्पष्टता लाने के लिए एक ही मसौदे पर राजी हो। इसके अलावा योजनाओं का क्रियान्वयन धरातल पर हो और शिक्षकों और अन्य हितधारकों आदि का प्रशिक्षण प्रभावी ढंग से हो, यह भी सुनिश्चित होना चाहिए। न्याय, विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी की एक पहल की शोध सहायक कादम्बरी अग्रवाल लिखती हैं, समावेशिता के लिए एक समग्र और व्यापक दृष्टिकोण होना चाहिए।

(इस कहानी को चरखा फीचर से लिया गया है।)

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