Ground Report: दिल में कोरोना का खौफ, जेब और पेट दोनों खाली, साइकिल रिक्शा से 1,400 किमी का सफर

Arvind ShuklaArvind Shukla   5 April 2020 4:43 AM GMT

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अयोध्या/गोरखपुर/कुशीनगर/गोपालगंज। दिल्ली से पूर्णिंया (करीब 1400 किलोमीटर) का सफर साइकिल वाले रिक्शा से, वो भी दो लोगों को बैठाकर खींचते हुए। सोचकर देखिए चक्कर आ जाएगा।

लेकिन अशोक यादव (45 साल) अपने एक मजदूर साथी के साथ दिल्ली से 27 मार्च को सुबह दिल्ली से निकल चुके हैं। वो दिल्ली में आनंद बिहार के आसपास रिक्शा चलाते थे। कोरोना का संक्रमण रोकने के लिए पूरे देश में लॉकडाउन किया गया तो अशोक जैसे लाखों मजदूरों ने दिल्ली छोड़ दी।

दिल और दिमाग में कोरोना का खौफ, जेब और पेट दोनों खाली...

अशोक यादव से जब गांव कनेक्शन की मुलाकात हुई तो वो दिल्ली से करीब 700 किलोमीटर से ज्यादा का सफर करके लखनऊ, बाराबंकी पार करके राष्ट्रीय राजमार्ग 28 पर बिहार की तरफ बढ़े जा रहे थे। उनका गांव दिल्ली से करीब 1400 किलोमीटर दूर बिहार में पूर्णिया जिले के श्रीनगर प्रखंड में पड़ता है। बात करने पर पता चला कि उन्होंने कल रात से कुछ नहीं खाया था, क्योंकि उनके पास बहुत कम पैसे बचे थे और मजदूरों की भीड़ कम होने के साथ सड़क पर खाना खिलाने वाले लोग भी कम हो गए थे।

ठेलिया पर दो झोले, एक कंबल, दो लीटर के कोल्ड ड्रिंक की बोतल में पानी और ठेलिया के पीछे लटकती एक खाली बाल्टी, बस इतनी ही गृहस्थी के साथ अशोक की घर लौटने की जद्दोजहद जारी थी।

"दिल्ली में कुछ काम नहीं बचा था, वहां रहते तो भूखों मर जाते। कोई बस ट्रेन कुछ मिल नहीं रही थी, ये रिक्शा हमारा ही थी, इसलिए इसे से चले पड़े। 6 दिन चलते-चलते हो गए हैं। अभी कम से कम 5 दिन और लगेंगे। दोनों मिलकर थोड़ी थोड़ी दूर चला लेते हैं।' धूप से बचने के सिर पर रखे अंगौछे से मुंह पूछते हुए अशोक करते हैं। इस अंगौछे के आधे हिस्से से उन्होंने अपनी नाक और मुंह भी ढक रखा था, जो आधे से ज्यादा भारत में कोरोना से बचने का प्रतीकात्मक उपाय भी है।


हाईवे के किनारे जिस जगह खड़े होकर अशोक यादव अपनी आपबीती बता रहे थे, उससे करीब 300 मीटर आगे पेड़ की छांव में संतोष पासवान और छोटे लाल पासवान ठेलिया (साइकिल रिक्शा का एक रुप जिसमें सामान ढोते हैं) खड़ी करके सुस्ता रहे थे। बातचीत में पता चला वो आनंद बिहार के पास गाजियाबाद में भोपुरा बॉर्डर के पास रहते थे, ये इलाका साहिबाबाद (यूपी) एरिया में पड़ता है।

लॉकडाउन से पहले वो आइसक्रीम बेचते थे, 28 तारीख को राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) छोड़ चुके थे। अब मुजफ्फरपुर पहुंचने की जल्दी में बस सफर तय करने पर जोर है। मुजफ्फरपुर वैसे तो लीची के लिए प्रसिद्ध है लेकिन पिछले साल चमकी से बच्चों की होने वाली मौतों ने बिहार के इस इलाके की लोगों के सामने अलग तस्वीर खींची है।

जब सरकार ने कहा था कि खाने-पीने का इंतजाम करेंगे तो क्यों निकले घर से?

इस सवाल के जवाब में ठेलिया पर पीछे बैठे छोटे लाल पासवान (45 वर्ष) कहते हैं, "काम बंद होने के बाद एक हफ्ता रुके। कुछ खाने को नहीं मिला। घर में राशन नहीं, बाहर लेने भी जाओ तो पुलिस मारती थी, क्या करते कब तक वहीं मरते।'

छोटे लाल की बात खत्म होने से पहले ही ठेलिया खींच रहे संतोष पासवान बोल पड़ते हैं, "वहां रुक कर क्या करते। इतना पैसा अपने पास थोड़े था। गांव पहुंच जाएंगे तो भूखे तो नहीं मरेंगे। खेती है, राशन तो खरीदना नहीं पड़ेगा। हमारे गांव के आसपास के करीब 50-100 लोग भी तभी निकल गए थे, 700 किलोमीटर आ गए हैं अभी 350 किलोमीटर और जाना है।"

दुनियाभर में खौफ की वजह बनी वैश्विक बीमारी कोरोना के चलते दिल्ली में होली के बाद से ही काम प्रभावित होने लगा था, लेकिन 22 तारीफ को जनता कर्फ्यू और लॉकडाउन के बाद लाखों मजदूरों और कामगारों की जीविका और रोजगार पर सीधा असर पड़ा। जनता कर्फ्यू के बाद ही मजदूरों का पलायन शुरु हो गया था लेकिन सरकारें मजदूरों को ये विश्वास दिलाने में नाकाम रही कि वो खाने का इंतजाम करेंगी।

बीमारी का खौफ, भूख से मरने की नौबत आने की आशंका, लॉकडाउन लंबा खिंचने की अफवाहें, पुलिस की शुरुआती सख्ती से लाखों मजदूर अपने-अपने घरों को निकलने के लिए सड़क पर आ गए। कई रिपोर्ट में इसे आजाद भारत का सबसे बड़ा रिवर्स पलायन (घरों की ओर लौटना) कहा गया। दिल्ली-यूपी बार्डर के बीच बढ़ती मजदूरों की भीड़ के बीच 28 मार्च को उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यानाथ सरकार ने 1000 बसे मजदूरों के लिए चलाने की शुरुआत की लेकिन तब तक अशोक और छोटे लाल पासवान जैसे हजारों हजार मजदूरों की भीड़ पैदल, साइकिल रिक्शा, ट्रक के जरिए अपने घरों की तरफ दौड़ पड़ी थी।


उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, राजस्थान, मध्यप्रदेश समेत कई राज्यों के मजदूर और कामगार, दिल्ली, मुंबई, पुणे, बैंगलुरु के साथ ही हरियाणा, पंजाब, और दक्षिण भारत के कई राज्यों में जाकर काम करते हैं। लॉकडाउन के बाद इन राज्यों से लाखों मजदूर अपने घरों की तरफ लौट पड़े और जो बचे रहे, उनके से हजारों भूख से बिलबिलाते, बिलखते देखे गए।

उत्तर प्रदेश में कई जिलों की सीमा बिहार से जुड़ी हैं। एनएच 28 दिल्ली-फैजाबाद-गोरखपुर मार्ग से आने वाले ज्यादातर मजदूर यूपी में बाराबंकी, अयोध्या, बस्ती, संतकबीरनगर, गोरखपुर, सिद्धार्थनर समेत पूर्वांचल कई जिलों के थे तो बिहार की तरफ जा रहे ज्यादातर मजदूर गोपालगंज ब़ॉर्डर से गोपालगंज, मुजफ्फरपुर, सिवान, वैशाली, पटना समस्तीपुर, मधुबनी, गया और सासाराम जैसे जिलों को जा रहे थे।

लॉकडाउन के दिन 25 मार्च को पूर्वी यूपी और बिहार की तरफ जाने वाले हाईवे पर सैकड़ों रिक्शा, ठेलिया वाले नजर आ रहे थे, इनमें यूपी के आजमगढ़ के ईंट गारा ढोने वाले नूर मोहम्मद और अरमान भी थे तो दिल्ली के इंडस्ट्रियल एरिया में ठेलिया चलाने वाले दशरथ पासवान भी।

"टीवी मोबाइल पर सब जगह लोग कह रहे थे, बीमारी फैल रही है घर में रहो। लेकिन हम कहां रहते, हम तो वजीरपुर इंडस्ट्रियल एरिया में दिन भर काम करते थे, रात को पुल ने नीचे सो जाते थे, पुलिस वहां से भी भगाने लगी थी, जो तो सामान था सब लेकर भाग आए।" दशरथ पासवान कहते हैं। दिल्ली से अब तक सफर में कई रातें उन्होंने भूखे पट काटी, क्योंकि डर था कहीं रुके तो कोई मारे या भगाए नहीं। दिल्ली के आनंद बिहार स्टेशन पर बढ़ती भीड़ से मजदूरों मुद्दा बने, जिसके बाद कई जगह लोग इनके खाने-पीने का इंतजाम करते नजर आए।

एकएक भागने के चलते रमेश को सामान सही तरीके से भरने का मौका नहीं मिला था, उन्होने लेटने वाली दरी में सामान भर के ठेलिया के पीछे टांग लिया था.. ताकी बैठने की जगह बनी रहे।

अयोध्या में एक निर्णाणाधीन फ्लाईओवर के नीचे 3 ठेलिया और दो साइकिल खड़ी थीं। एलपीजी के छोटे सिलेंडर के सहारे जल रहे चूल्हे पर दाल-चावल बना रहे हैं। बिहार में आरा जिले के डेबू देहरी गांव लालबाबू सिंह अपने 8 साथियों के साथ इस पिछले पांच दिनों में दिन में सिर्फ एक बार खाना बना रहे हैं।


लालबाबू सिंह कहते हैं, "गाजियाबाद में तार बनाने वाली फैक्ट्री में हमारा ज्यादा काम था, तार ढोते थे, फैक्ट्री बंद हो गई थी, तो कैसे रहते वहां। पैसा भी नहीं मिला था ठेकेदार से लेकिन घर तो जाना ही था, जान रहेगी तो फिर कमा लेंगे।"

लालबाबू की ठेलिया के पास ही लाल रंग की एक साइकिल खड़ी है, सीट पर मोटा कपड़ा बांध रखा गया था, ताकि चलाने में तकलीफ ना हो। लेकिन लालबाबू के साथी, जो साइकिल चलाकर दिल्ली से अयोध्या पहुंचे थे और फिर उन्हें आगे आरा जाना जाना था.. अपने पैर दिखाते हुए कहते हैं, " गोड़ (पैर) इतने फूल गए हैं कि चप्पल नहीं पहुंच पा रहे हैं लेकिन क्या करें.. मरना है ही जो घर जाकर मरेंगे, परिवार को देख तो पाएंगे।" इन लोगों की ठेलिया पर ही पूरी गृहस्थी चल रही थी।

यहीं पर हमारी मुलाकात अयोध्या के जिलाधिकारी अनुज कुमार झा से हुई जो बता रहे थे सरकारी आंकड़ों के मुताबिक अकेले अध्योध्या जिले (फैजाबाद) में 28, 29 और 30 तारीख में 3000 से ज्यादा प्रवासी मजदूर जिले में लौटे हैं, जिनकी स्क्रीनिंग हो रही है। 175 से ज्यादा टीमें इन मजदूरों के अलावा बाकी नजर में न आए लौटे लोगों पर नजर रख रही हैं।'

हाईवे के किनारे-किनारे यूपी के लगभग हर जिलें में कुछ कुछ किलोमीटर पर क्वारेटाइंन सेंटर बनाए गए हैं। इसी हाईवे के किनारे बस्ती जिले के सीमा से कुछ दूर पहले एक प्राइवेट स्कूल में कुछ मजूदरों के लिए सेंटर बनाय़ा गया है, जिसमें दिल्ली और मुंबई से लौटे कुछ मजदूर ठहरे हुए हैं। छत्तीसगढ़ में बिलासपुर जिले के जानकी चाबा के रहने वाले अशोक पटेल अपनी पत्नी, छोटे से बच्चे और गांव के कुछ लोगों के साथ रुके हैं।

वो बताते हैं, "हम लोग दिल्ली में निजामुद्दीन इलाके में पुल के नीचे रहते थे, हमें तो कोई दिक्कत नहीं थी लेकिन सब भाग रहे थे तो हमें भी डर लगा और हम भी चल पड़े। पहले दिन पूरा पैदल चले, फिर कई जगह ट्रक बदले तो यहां तक पहुंचे.. लेकिन अब आगे नहीं जाऊंगा.. अब सब ठीक होने पर 14 अप्रैल को निकलूंगा।'


हाईवे के सहारे रिक्शा, साइकिल ठेलिया खींचते मजदूरों के पैर दिन-रात पैडल मार रहे हैं। हरियाणा के मानेसर से लौटे और बिहार में गया को जा रहे शहाबुद्दीन कहते हैं, अब रास्ते में रुकने का कोई फायदा नहीं बस गांव पहुंच जाए, वहां जाकर चाहे मर ही जाएं।

अयोध्या, बस्ती, संतकबीर नगर पार करते हुए गांव कनेक्शन की मुलाकात रात में करीब 9 बजे पूर्णिया जिले में रहने वाले मोहम्मद इमरान से हुई। महज 18 साल की उम्र रही होगी उसकी। वो अब तक 800 किलोमीटर से ज्यादा रिक्शा खींच चुका था, आगे का सफर भी 550 किलोमीटर के आसपास होगा।

पीछे से ट्रक की पड़ी लाइट में इमरान का चेहरा दिखा, जो पसीने से तरबतर था। नजदीक जाने पर मेरा वही सवाल कि कब निकले, कितने दिन हुए, दिल्ली में क्या काम करते थे आदि? इकराम ने बताया, "आजाद पुर मंडी में पल्लेदारी करते थे। जब कुछ काम नहीं बचा तो रविवार की सुबह तड़के ठेलिया से निकले लिए। कुछेक दिन में अब घर पहुंच जाएंगे, काफी नजदीक आ गए हैं।"

गांव में क्या करोगे के सवाल पर इमरान कहते हैं, "क्या करेंगे क्या। जब यह सब खत्म हो जाएगा तो फिर से दिल्ली आ जाएंगे। पेट भरने के लिए तो दिल्ली आना ही पड़ेगा, गांव में कुछ थोड़ा ही है जिससे कमा-खाकर पेट भरा जा सके।" इतना कहकर इमरान आगे निकल चुके होते हैं।

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