'वोकल फॉर लोकल' का बेहतरीन उदाहरण है नीलगिरी में बसा यह 'टी स्टूडियो', जिसे स्थानीय महिलाएं ही करती हैं संचालित

तमिलनाडु के नीलगिरी में इस छोटी सी चाय की फ़ैक्ट्री को आठ स्थानीय महिलाएं चलाती हैं और यहां से चाय को कनाडा, यूरोप, जापान, ऑस्ट्रेलिया और उत्तरी अमेरिका समेत पूरी दुनिया में भेजा जाता है।

Pankaja SrinivasanPankaja Srinivasan   21 May 2021 6:25 AM GMT

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वोकल फॉर लोकल का बेहतरीन उदाहरण है नीलगिरी में बसा यह टी स्टूडियो, जिसे स्थानीय महिलाएं ही करती हैं संचालित

नीलगिरी की चाय के बारे में लिखना थोड़ा मुश्किल है। यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि घुमावदार पहाड़ियों में ये चाय के बागान कैैसे दिखते हैं। हरियाली से ढंके इस इलाक़े में लाल रंग की एक छोटी सी बिल्डिंग बरबस अपनी तरफ़ आकर्षित करती है।

लाल रंग की ये बिल्डिंग मुस्कान खन्ना का आकर्षक टी स्टूडियो है, जो तमिलनाडु के नीलगिरी में कट्टाबेट्टू के एक छोटे से गांव टी मनीहट्टी में स्थित है। ये जगह तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई से करीब 550 किलोमीटर दूर है।

2018 में स्थापित यह टी स्टूडियो दरअसल दक्षिण भारत के सबसे बड़े चाय उत्पादक जिले नीलगिरी में चाय उत्पादन की एक छोटी सी इकाई है। यहां चार तरह की ब्लैक टी, छह तरह की ग्रीन टी, तीन तरह की व्हाइट टी और दो तरह के ओलोंग टी का उत्पादन होता है। ये सभी उत्पादन सेमी हैंड क्राफ़्टड हैं और ग्राहकों की सुविधानुसार इन्हें बनाया जाता है।

बाहर के ठंड के विपरीत गरम चाय की भीनी खुशबू माहौल को गरम बनाए रखती है। इस टी स्टूडियो की सबसे विशेष बात यह है कि यहां की सभी कर्मचारी महिलाएं हैं, जो पड़ोस के ही गांव में रहती हैं। जबकि इस टी स्टूडियो की मालकिन मुस्कान खन्ना 20 किलोमीटर दूर कुन्नूर में रहती हैं। इस तरह यह 'लोकल फॉर वोकल' का एक बेहतरीन उदाहरण है, जो स्थानीय लोगों को रोज़गार देता है।


यह शायद देश की एकमात्र चाय उत्पादन इकाई है जो चाय की पत्तियों के सुखाने, भूनने और उसे प्रोसेस, प्रसंस्कृत करने के लिए एलपीजी का उपयोग करती है, ताकि पर्यावरण का भी संरक्षण किया जा सके। आपको बता दें कि अधिकांश चाय बनाने वाली फैक्ट्रियां, चाय उत्पादन में कोयला या लकड़ी का उपयोग करती हैं।

फैक्ट्री के लिए चाय की पत्तियां टी स्टूडियो के चारों ओर स्थित बागानों से आती हैं। यह आम तौर पर स्थानीय चाय उत्पादकों की होती हैं, जिनके पास आधा एकड़ (0.2 हेक्टेयर) से लेकर चार एकड़ (लगभग 1.5 हेक्टेयर) तक ज़मीन है। ये उत्पादक प्रमुख रूप से 'बड़गा समुदाय' से हैं। वे फैक्ट्री में अपनी चाय की पत्तियां लाते हैं, मुस्कान खन्ना उनको चेक करती हैं और यदि वे गुणवत्ता में पास होती हैं, तो मुस्कान उन्हें तुरंत ख़रीद लेती हैं। इन चाय उत्पादकों में से कई फैक्ट्री में ही कार्यरत महिलाओं के पति हैं।

मुस्कान हर महीने लगभग 2,000 किलो चाय की पत्तियां ख़रीदती है। ये चाय की पत्तियां पूरी तरह से जैविक होती हैं। "परंपरागत रूप से इन छोटे उत्पादकों ने कभी भी रसायनों या उर्वरकों का उपयोग नहीं किया है। वे गोबर की खाद का उपयोग चाय के उत्पादन में करते हैं। हालांकि इन्हें अभी तक जैविक होने का प्रमाण पत्र नहीं मिला है," मुस्कान खन्ना ने बताया।

मुस्कान इन चाय उत्पादकों से लेन-देन का काम अपनी कर्मचारी वैधेगी की सहायता से करती है, जो चाय उत्पादकों के स्थानीय बड़गा भाषा का अनुवाद अंग्रेजी में करती हैं। ताजी हरी चाय की पत्तियों के ढेर की पहले जांच की जाती है, उत्पादकों से कुछ सवाल पूछे जाते हैं और फिर अंतिम रूप से सौदा मंज़ूर कर लिया जाता है।

'टी स्टूडियो' एक साफ-सुथरी जगह पर बना है, जहां पर भरपूर रोशनी और हवा का इंतज़ाम है। स्टूडियो की चमकदार मशीनें जब चलती हैं, तब 'हम्म', भनभनाहट और गड़गड़ाहट की मीठी आवाज़, कानों को सुकून देती हैं।


इस 'टी स्टूडियो' में केवल महिला कारीगरों की मदद से चाय बनती है, चाय उत्पादन की प्रक्रिया में कर्मचारियों का नाज़ुक स्पर्श बहुत जरूरी होता है। गेट पर बाहर बैठी अकेली महिला कर्मचारी चाय की पत्तियों की बहुत ध्यान से हाथ से ही छंटाई करती है। ये चाय की पत्तियां बहुत नाज़ुक होती हैं और इस फैक्ट्री में कोई छंटाई मशीन नहीं है जैसे कि सभी चाय के प्लांट्स में होती हैं। इसलिए महिलाएं ही हाथ से छंटाई करती हैं।

चाय उत्पादन की यह फैक्ट्री बहुत छोटी है और इसमें बहुत ही सीमित उत्पादन होता है। इस फैक्ट्री में सिर्फ एक ही शिफ्ट चलती है, जिसमें काम के घंटे और समय का निर्णय महिलाओं के सुविधा के अनुसार ही तय होता है। पारंपरिक रूप से पुरुष प्रधान इस उद्योग में महिलाओं को अपना तालमेल बिठाने में कुछ समय ज़रूर लगा। फैक्ट्री की कर्मचारी वैधेगी ने बताया कि उन्हें भी इस जॉब में एडजस्ट करने में थोड़ा समय लगा था।

इस फैक्ट्री की पांच कर्मचारी- चित्रा, शर्मिला, संध्या, कलिवानी और कुंजम्मा दिहाड़ी कामगार हैं और उन्हें प्रति दिन के काम के बदले 320 रुपया मिलता है। वे सप्ताह में छह दिन काम करती हैं। जबकि प्रमुख 'चाय निर्माता' वैधेगी प्रति माह 13,000 रुपये कमाती हैं। इस फैक्ट्री की एकाउंटेंट ऐश्वर्या का वेतन प्रति माह 12,000 रुपये है। इन सभी कर्मचारियों की उम्र 23 से 48 साल के बीच है। इनमें से कुछ अविवाहित लड़कियाँ हैं, जबकि कुछ घरेलू हिंसा की शिकार महिलाएं हैं।

फैक्ट्री की ऊपरी मंज़िल बहुत ही सुंदर है, जहां खिड़कियों से चारों तरफ सिर्फ और सिर्फ चाय के बागान ही दिखते हैं। एक काउंटर पर फैक्ट्री में बनने वाली अलग-अलग तरह की चाय सजाई गई हैं, जो कि गहरे लाल रंग से लेकर पीले रंग के हैं।


इस 'टी स्टूडियो' में आने वाले लोगों को यहां बनने वाले काढ़े और चाय की चुस्की लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। वे चाय की पत्तियों को मुंह में दबाकर रखने और प्रत्येक चाय का स्वाद चखने के लिए भी कहते हैं। यह 'टी स्टूडियो' लगातार नए-नए प्रयोग करते हुए चाय का बनाता है।

हालांकि इस फैक्ट्री में भी मशीनों का उपयोग होता है, लेकिन सामान्य कारखानों के विपरीत यहां पर हर कदम पर मानवीय दखल है। इस फैक्ट्री में चीन से आयात मशीनों को इस तरह डिज़ाइन किया गया है कि महिलाएं उत्पादन की हर प्रक्रिया पर अपनी पैनी नज़र रख सकें। क्या चाय की पत्तियों को अधिक या कम तापमान की जरूरत है, क्या पत्तियों को अधिक भुनने की आवश्यकता है या उन्हें और सुखाने की जरूरत है, क्या चाय का रंग सही है, इन सभी बातों का ध्यान ये महिलाएं रखती हैं।

यह 'टी स्टूडियो' महीने में चार सौ से पांच सौ किलो चाय की बिक्री करता है और केवल ऑर्डर देने पर ही उत्पादन होता है। इसलिए इस फैक्ट्री का उत्पादन ग्राहक के ऑर्डर पर निर्भर करता है।

'टी स्टूडियो' चाय की नीलामी प्रक्रिया में भाग नहीं लेता है। इसके नियमित ग्राहक थोक के ख़रीदार हैं, जो अक्सर उत्पाद का नाम बदलकर आगे बेचते हैं। कनाडा, यूरोप, जापान, ऑस्ट्रेलिया और उत्तरी अमेरिका में यहां की चाय जाती है और बहुत ही छोटा सा हिस्सा भारत के खुदरा बाजार में भी बेचा जाता है।


'टी स्टूडियो' के मुनाफे का दो प्रतिशत कॉर्पोरेट-सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी (CSR) के तहत स्थानीय ग्रामीणों, खासकर महिलाओं की मदद करने के लिए अलग रखा जाता है। इससे शौचालय का निर्माण, किसी कर्मचारी के बच्चे की शिक्षा में मदद आदि होती है। जब भी गांव वालों को इसकी जरूरत पड़ती है, वे स्टूडियो पहुंचते हैं और सीएसआर फंड में पर्याप्त राशि होने पर उन्हें हरसंभव तत्काल मदद की जाती है।

यह 'टी स्टूडियो' इस साल अपने चौथे वर्ष में प्रवेश कर रहा है। इसके विस्तार के लिए स्टूडियो के बगल की ज़मीन खरीदने की योजना भी मुस्कान खन्ना के ज़हन में है ताकि वे विभिन्न प्रकार के चाय के पौधों के साथ अपने प्रयोग को विस्तार दे सकें।

"मेरे लिए व्यक्तिगत रूप से अधिक यह ज्यादा संतोषजनक है कि मैं महिलाओं को इस पुरुष-प्रधान उद्योग में काम करने के लिए प्रेरित कर रही हूं। इसके अलावा मैं युवा पीढ़ी को भी यह दिखाना चाह रही हूं कि चाय-उत्पादन की प्रक्रिया या चाय की फैक्ट्री में काम करना कोई उबाऊ काम नहीं है। कुल मिलाकर, यह महिलाओं को सशक्त बनाने की एक प्रक्रिया है," मुस्कुराते हुए मुस्कान खन्ना कहती हैं।

इसके बाद वह फैक्ट्री में आगे बढ़ जाती है, जहां उन्हें 400 किलो के ऑर्डर को समय पर पूरा करना है।

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