पिथौरागढ़ में पुस्तकों-शिक्षकों के लिए छात्रों का आंदोलन, देहरादून से जनगीतों के माध्यम से मिला समर्थन

पिथौरागढ़ में लक्ष्मण सिंह महर महाविद्यालय के छात्र 90 के दशक की पुरानी किताबों और शिक्षकों की कमी को लेकर पिछले 25 दिनों से आंदोलन कर रहे हैं।

Mo. AmilMo. Amil   10 July 2019 6:12 AM GMT

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लखनऊ। उत्तराखंड की शान्त और सुंदर पहाड़ियों में आंदोलन की मौन आवाज गूंज रही है। पिथौरागढ़ में लक्ष्मण सिंह महर महाविद्यालय के छात्र 90 के दशक की पुरानी किताबों और शिक्षकों की कमी को लेकर आंदोलन कर रहे हैं।

पिथौरागढ़ स्थित लक्ष्मण सिंह महर महाविद्यालय के छात्र 90 के दशक की पुरानी किताबों को पढ़ने के लिए मजबूर हैं। कॉलेज की लाइब्रेरी में नई किताबें अपना स्थान नही बना सकी हैं। कुमायूँ विश्वविद्यालय के दूसरे सबसे बड़े इस कॉलेज में 120 अध्यपाक होने चाहिए लेकिन अभी भी करीब 40 अध्यापकों के पद रिक्त चल रहे हैं। छात्र इन सभी परेशानियों के बीच पढ़ाई नही कर पा रहे हैं। इन्ही परेशानियों को दूर कराने के लिए कॉलेज के छात्र 17 जून से परीक्षाओं के बीच कॉलेज परिसर में ही धरने पर बैठे हुए हैं।

आंदोलनकारी छात्रों के हक की आवाज को बुलंद करने के लिए प्रदेश के सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक, अभिनेता और पत्रकार भी अब मैदान में उतर आए हैं। इन्होंने प्रदेश की विभिन्न राजनीतिक पार्टियों से शिक्षा में सुधार के लिए अपनी स्थिति को साफ करने की बात कही है। धरने में सभी ने ढपली की धुन पर जनगीतों का सहारा लेकर अपनी बात रखी।

प्रदेश की राजधानी देहरादून स्थित शहीद स्मारक में विभिन्न सामाजिक और राजनीतिक संगठनों सहित पत्रकारों, लेखकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने धरने और जनगीतों का आयोजन किया। इस धरने में उत्तराखंड के तमाम राजनीतिक दलों और नेताओं के नाम एक पत्र भी जारी किया गया। इस पत्र में उनसे शिक्षा के मामले में अपनी स्थिति साफ करने के लिए कहा गया। कांग्रेस और वामपंथी दलों के कार्यालय में इस पत्र की प्रति रिसीव की गई लेकिन भाजपा कार्यालय में पत्र को प्राप्त करने से इंकार कर दिया गया।


इस पत्र में उन्होंने कहा कि "पिछले 18 वर्ष के उत्तराखंड राज्य के अल्पकाल में अभी तक 4 बार विधानसभा चुनाव हो चुके हैं। लोकसभा चुनाव त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव के अलावा विभिन्न प्रकार के चुनाव राज्य में लगातार होते ही रहते हैं। आप सफल हुए या असफल ये महत्वपूर्ण नही है बल्कि महत्वपूर्ण यह है कि आपने लोकतांत्रिक प्रक्रिया में हिस्सा लेकर देश मे लोकतंत्र को मजबूत करने में अपनी भूमिका निभाई है। कम या ज्यादा संख्या महत्वपूर्ण नही है लेकिन कुछ लोगों ने आप पर अपना विश्वास जताया है।

धरना स्थल पर मौजूद लोगों को प्रेम बहुखंडी, प्रदीप सती, भार्गव चंदोला, निर्मला बिष्ट, प्रदीप भट्ट, विजय भट्ट, रेनू नेगी, तन्मय ममगाईं, हिमांशु चौहान, प्रोफेसर सचान, त्रिलोचन भट्ट, सोनाली नेगी, सुप्रिया भण्डारी, दीपक सजवाण, महिपाल दानु, संजय कुनियाल, मनोज कुँवर, दीक्षा भट्ट आदि वक्ताओं ने इस तरह का आंदोलन पूरे राज्य में चलाए जाने की जरूरत बताई और कहा कि केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री को इस मामले में अपनी राय स्पष्ट करनी चाहिए।

छात्रों के इस आंदोलन को लेकर देहरादून के सामाजिक कार्यकर्ता त्रिलोचन भट्ट कहते हैं कि "उत्तराखंड का पिथौरागढ़ नेपाल बॉर्डर का जिला है। यहां के छात्रों ने अभूतपूर्व आंदोलन शुरू किया है। यह बच्चे शिक्षकों और पुस्तकों की मांग कर रहे हैं। यह आंदोलन अभूतपूर्व इसलिए है कि इससे पहले भी प्रदेश में कई तरह के आंदोलन महंगाई, नौकरी, कानून व्यवस्था को लेकर आंदोलन हुए है। ऐसा नही है कि सिर्फ पिथौरागढ़ में पुस्तकों की कमी हो, उत्तराखंड ही नही बल्कि पूरे देश मे इस तरह की कमी है। किसी भी कॉलेज में अध्यापक पूरे नही हैं और कोई भी लाइब्रेरी सम्ब्रन्ध नही है। ऐसा आंदोलन पूरे देश में होना चाहिए। पूरे देश के छात्रों को ऐसा करना चाहिए।"

पूरे प्रदेश में ऐसा है हाल

प्रदेश के विद्यालय हो या महाविद्यालय वह लगातार शिक्षको की कमी से जूझ रहे हैं। अच्छी लाइब्रेरी, अच्छे गुणवत्ता का इंटरनेट कनेक्शन, खेल की सुविधा, अच्छे शिक्षक छात्रों का मूलभूत अधिकार है।

पिथौरागढ़ में शिक्षा की लड़ाई में जा चुकी हैं पूर्व में दो जान

पिथौरागढ़ में शिक्षा को लेकर पूर्व में भी आन्दोलन हुए हैं। विश्वविद्यालय की मांग को लेकर उग्र आंदोलन में यहां दो आन्दोलनकारियो ने अपनी जान भी गवाई थी। इस महाविद्यालय की स्थापना 1963 में हुई थी और तब ये महाविद्यालय आगरा विश्वविद्यालय से सम्बद्ध एक कॉलेज हुआ करता था।

समाजसेवी चंद्रशेखर कापड़ी बताते हैं कि "महाविद्यालय में तब करीब 300-400 छात्र छात्राएं ही पढ़ते थे और शिक्षा का स्तर भी बेहतर था।सन 1972 में उत्तर प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्र में ( जो कि बाद में उत्तराखंड बना ) एक अलग से पर्वतीय विश्वविद्यालय की मांग ने जोर पकड़ा और शीघ्र ही यह आंदोलन पूरे कुमाऊं और गढ़वाल क्षेत्र में फैल गया।"


सरकार की अनदेखी के कारण पर्वतीय विश्वविद्यालय की इस मांग ने जल्द ही उग्र रूप ले लिया और 15 दिसंबर 1972 को पिथौरागढ़ जनपद में पुलिस की गोलीबारी में 2 युवाओं सज्जन लाल शाह और सोबन सिंह की मौत हो गई। 2 शहादतों के पश्चात 1973 में कुमाऊं और गढ़वाल क्षेत्रों के लिए अलग - अलग विश्वविद्यालय की स्थापना की गई।

गढ़वाल के लिए गढ़वाल विश्वविद्यालय जिसे अब 'हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल केंद्रीय विश्वविद्यालय' के नाम से जाना जाता है और कुमाऊं के लिए कुमाऊं विश्वविद्यालय बनाया गया जिसका कार्यालय नैनीताल में बनाया गया। पिथौरागढ़ महाविद्यालय तब से नैनीताल से सम्बद्ध एक कॉलेज है। लेकिन शिक्षा के हालात अभी भी नही सुधरे हैं।"

यह भी पढें- उत्तराखंडः पिथौरागढ़ में किताबों और शिक्षकों के लिए धरना दे रहे छात्र


  

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