जलवायु की जंग में पैसे की कमी: एडेप्टेशन फाइनेंस क्यों पीछे रह गया?
Gaon Connection | Nov 01, 2025, 19:15 IST
संयुक्त राष्ट्र की नई रिपोर्ट ने चेतावनी दी है कि दुनिया जलवायु संकट से लड़ने के लिए तैयार नहीं है। विकासशील देशों को हर साल 310 अरब डॉलर की ज़रूरत है, लेकिन मिल रहे हैं सिर्फ़ 26 अरब। अगर अब भी निवेश नहीं बढ़ा, तो आने वाले सालों में सिर्फ़ तापमान ही नहीं, नुकसान भी कई गुना बढ़ जाएगा।
दुनिया का तापमान बढ़ता जा रहा है। कहीं सूखा है, कहीं तूफान, कहीं बाढ़ और कहीं आग - अब यह सिर्फ मौसम की बात नहीं रही, बल्कि लोगों की ज़िंदगियों का सवाल बन चुकी है। लेकिन इस संकट से बचने के लिए जो सबसे ज़रूरी चीज़ है - जलवायु अनुकूलन (Climate Adaptation) के लिए वित्तीय सहायता, यानी एडेप्टेशन फाइनेंस - वही सबसे पीछे छूट गई है।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) की ताज़ा रिपोर्ट ‘Adaptation Gap Report 2025: Running on Empty’ ने साफ़ चेतावनी दी है कि विकासशील देशों को 2035 तक हर साल कम से कम 310 अरब डॉलर की ज़रूरत होगी, ताकि वे जलवायु परिवर्तन से होने वाले प्रभावों से खुद को बचा सकें। लेकिन हकीकत में 2023 में यह मदद सिर्फ 26 अरब डॉलर रही। यानी ज़रूरत और उपलब्ध मदद के बीच अब 12 से 14 गुना का फासला है।
एडेप्टेशन: खर्च नहीं, जीवन की सुरक्षा
UN महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने इस रिपोर्ट पर चिंता जताते हुए कहा —
इसी तरह, UNEP की कार्यकारी निदेशक इंगर एंडर्सन ने कहा कि दुनिया भर में लोग पहले से ही हीटवेव, बाढ़, सूखा और बढ़ती लागतों से जूझ रहे हैं। अगर अब भी निवेश नहीं बढ़ाया गया, तो भविष्य में जलवायु से होने वाला आर्थिक और सामाजिक नुकसान बेकाबू हो जाएगा।
योजना ज़्यादा, पैसा कम
रिपोर्ट बताती है कि अब 172 देशों के पास कम से कम एक जलवायु एडेप्टेशन नीति या रणनीति है। यह संख्या उत्साहजनक लगती है, लेकिन हकीकत यह है कि इनमें से 36 देशों की योजनाएँ दस साल पुरानी हो चुकी हैं, और सिर्फ चार देश ऐसे हैं जिनके पास कोई राष्ट्रीय योजना नहीं है।
विकासशील देशों ने अब तक अपने Biennial Transparency Reports (BTRs) में करीब 1,600 एडेप्टेशन एक्शन दर्ज किए हैं — जिनमें कृषि, जल, जैवविविधता और इंफ्रास्ट्रक्चर जैसे क्षेत्र शामिल हैं। लेकिन समस्या यह है कि अधिकांश देशों ने यह नहीं बताया कि इन कदमों का असर ज़मीन पर कितना दिखा है — जैसे खेती की उपज में सुधार, पानी की उपलब्धता, या इकोसिस्टम की बहाली में क्या फर्क आया।
अधूरा ग्लासगो वादा और नया लक्ष्य
रिपोर्ट में कहा गया है कि मौजूदा रफ्तार जारी रही तो ग्लासगो क्लाइमेट पैक्ट के तहत 2025 तक एडेप्टेशन फंडिंग को दोगुना कर 40 अरब डॉलर करने का वादा पूरा नहीं हो पाएगा।
विकसित देशों ने अब COP29 के तहत New Collective Quantified Goal (NCQG) तय किया है, जिसके अनुसार 2035 तक हर साल 300 अरब डॉलर का क्लाइमेट फंड जुटाया जाएगा। लेकिन यह राशि mitigation और adaptation दोनों के लिए है, इसलिए असल में एडेप्टेशन के हिस्से में बहुत कम पैसा आएगा।
अगर इसमें सालाना 3% महंगाई दर जोड़ दी जाए, तो 2035 तक एडेप्टेशन की ज़रूरत 440 से 520 अरब डॉलर तक पहुँच जाएगी। यानी अभी जो फंडिंग तय की गई है, वह भविष्य की ज़रूरत से बहुत कम साबित होगी।
‘बाकू से बेलें’ रोडमैप: उम्मीदें और सावधानियाँ
रिपोर्ट में Baku to Belém Roadmap का ज़िक्र किया गया है, जिसका लक्ष्य 2035 तक 1.3 ट्रिलियन डॉलर जुटाना है ताकि दुनिया भर में लो-कार्बन और क्लाइमेट-रेज़िलिएंट विकास को बढ़ावा दिया जा सके। लेकिन UNEP ने आगाह किया है कि अगर यह फंडिंग कर्ज़ के रूप में दी गई, तो यह गरीब और जलवायु-संवेदनशील देशों के लिए नया बोझ बन जाएगी। इसलिए रिपोर्ट ने सुझाव दिया है कि फंडिंग में ग्रांट (अनुदान), कन्सेशनल लोन, और नॉन-डेब्ट फाइनेंस को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
निजी क्षेत्र की भूमिका अभी सीमित
रिपोर्ट के मुताबिक, निजी क्षेत्र का योगदान अभी सिर्फ 5 अरब डॉलर प्रतिवर्ष है, जबकि इसकी क्षमता 50 अरब डॉलर तक पहुँच सकती है — यानी कुल ज़रूरत का लगभग 15 से 20 प्रतिशत हिस्सा।
इसके लिए सरकारों को ऐसी नीतियाँ बनानी होंगी जो निजी निवेश को प्रोत्साहित करें, जैसे “ब्लेंडेड फाइनेंस मॉडल”, जिसमें सार्वजनिक फंड शुरुआती जोखिम को कम करे और निजी पूंजी निवेश को बढ़ावा दे।
नतीजा: अब वक्त बातों का नहीं, कार्रवाई का
रिपोर्ट का नाम ही अपने आप में एक चेतावनी है — “Running on Empty”, यानी “खाली टैंक पर दौड़ती दुनिया”। योजनाएँ हैं, नीतियाँ हैं, लक्ष्य हैं — पर ईंधन नहीं है।
जलवायु की इस जंग में अब विकासशील देशों के लिए यह सिर्फ़ “एडेप्टेशन” नहीं, बल्कि “सर्वाइवल” का सवाल बन गया है।
अगर यह फाइनेंस गैप जल्दी नहीं भरा गया, तो तापमान बढ़ने से पहले ही अर्थव्यवस्थाएँ और ज़िंदगियाँ टूटने लगेंगी। अब ज़रूरत है कि दुनिया सिर्फ़ घोषणाएँ न करे, बल्कि उन पर ठोस पुल बनाए — ताकि हर देश जलवायु संकट के खिलाफ अपनी लड़ाई खुद लड़ सके।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) की ताज़ा रिपोर्ट ‘Adaptation Gap Report 2025: Running on Empty’ ने साफ़ चेतावनी दी है कि विकासशील देशों को 2035 तक हर साल कम से कम 310 अरब डॉलर की ज़रूरत होगी, ताकि वे जलवायु परिवर्तन से होने वाले प्रभावों से खुद को बचा सकें। लेकिन हकीकत में 2023 में यह मदद सिर्फ 26 अरब डॉलर रही। यानी ज़रूरत और उपलब्ध मदद के बीच अब 12 से 14 गुना का फासला है।
एडेप्टेशन: खर्च नहीं, जीवन की सुरक्षा
UN महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने इस रिपोर्ट पर चिंता जताते हुए कहा —
जलवायु प्रभाव हर दिन तेज़ हो रहे हैं, लेकिन एडेप्टेशन फाइनेंस उस रफ्तार से नहीं बढ़ रहा। यह खर्च नहीं, जीवनरेखा है। अगर अभी निवेश नहीं किया गया, तो आने वाले सालों में नुकसान कई गुना बढ़ जाएगा।
योजना ज़्यादा, पैसा कम
रिपोर्ट बताती है कि अब 172 देशों के पास कम से कम एक जलवायु एडेप्टेशन नीति या रणनीति है। यह संख्या उत्साहजनक लगती है, लेकिन हकीकत यह है कि इनमें से 36 देशों की योजनाएँ दस साल पुरानी हो चुकी हैं, और सिर्फ चार देश ऐसे हैं जिनके पास कोई राष्ट्रीय योजना नहीं है।
विकासशील देशों ने अब तक अपने Biennial Transparency Reports (BTRs) में करीब 1,600 एडेप्टेशन एक्शन दर्ज किए हैं — जिनमें कृषि, जल, जैवविविधता और इंफ्रास्ट्रक्चर जैसे क्षेत्र शामिल हैं। लेकिन समस्या यह है कि अधिकांश देशों ने यह नहीं बताया कि इन कदमों का असर ज़मीन पर कितना दिखा है — जैसे खेती की उपज में सुधार, पानी की उपलब्धता, या इकोसिस्टम की बहाली में क्या फर्क आया।
अधूरा ग्लासगो वादा और नया लक्ष्य
रिपोर्ट में कहा गया है कि मौजूदा रफ्तार जारी रही तो ग्लासगो क्लाइमेट पैक्ट के तहत 2025 तक एडेप्टेशन फंडिंग को दोगुना कर 40 अरब डॉलर करने का वादा पूरा नहीं हो पाएगा।
विकसित देशों ने अब COP29 के तहत New Collective Quantified Goal (NCQG) तय किया है, जिसके अनुसार 2035 तक हर साल 300 अरब डॉलर का क्लाइमेट फंड जुटाया जाएगा। लेकिन यह राशि mitigation और adaptation दोनों के लिए है, इसलिए असल में एडेप्टेशन के हिस्से में बहुत कम पैसा आएगा।
अगर इसमें सालाना 3% महंगाई दर जोड़ दी जाए, तो 2035 तक एडेप्टेशन की ज़रूरत 440 से 520 अरब डॉलर तक पहुँच जाएगी। यानी अभी जो फंडिंग तय की गई है, वह भविष्य की ज़रूरत से बहुत कम साबित होगी।
‘बाकू से बेलें’ रोडमैप: उम्मीदें और सावधानियाँ
रिपोर्ट में Baku to Belém Roadmap का ज़िक्र किया गया है, जिसका लक्ष्य 2035 तक 1.3 ट्रिलियन डॉलर जुटाना है ताकि दुनिया भर में लो-कार्बन और क्लाइमेट-रेज़िलिएंट विकास को बढ़ावा दिया जा सके। लेकिन UNEP ने आगाह किया है कि अगर यह फंडिंग कर्ज़ के रूप में दी गई, तो यह गरीब और जलवायु-संवेदनशील देशों के लिए नया बोझ बन जाएगी। इसलिए रिपोर्ट ने सुझाव दिया है कि फंडिंग में ग्रांट (अनुदान), कन्सेशनल लोन, और नॉन-डेब्ट फाइनेंस को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
निजी क्षेत्र की भूमिका अभी सीमित
रिपोर्ट के मुताबिक, निजी क्षेत्र का योगदान अभी सिर्फ 5 अरब डॉलर प्रतिवर्ष है, जबकि इसकी क्षमता 50 अरब डॉलर तक पहुँच सकती है — यानी कुल ज़रूरत का लगभग 15 से 20 प्रतिशत हिस्सा।
इसके लिए सरकारों को ऐसी नीतियाँ बनानी होंगी जो निजी निवेश को प्रोत्साहित करें, जैसे “ब्लेंडेड फाइनेंस मॉडल”, जिसमें सार्वजनिक फंड शुरुआती जोखिम को कम करे और निजी पूंजी निवेश को बढ़ावा दे।
नतीजा: अब वक्त बातों का नहीं, कार्रवाई का
रिपोर्ट का नाम ही अपने आप में एक चेतावनी है — “Running on Empty”, यानी “खाली टैंक पर दौड़ती दुनिया”। योजनाएँ हैं, नीतियाँ हैं, लक्ष्य हैं — पर ईंधन नहीं है।
जलवायु की इस जंग में अब विकासशील देशों के लिए यह सिर्फ़ “एडेप्टेशन” नहीं, बल्कि “सर्वाइवल” का सवाल बन गया है।
अगर यह फाइनेंस गैप जल्दी नहीं भरा गया, तो तापमान बढ़ने से पहले ही अर्थव्यवस्थाएँ और ज़िंदगियाँ टूटने लगेंगी। अब ज़रूरत है कि दुनिया सिर्फ़ घोषणाएँ न करे, बल्कि उन पर ठोस पुल बनाए — ताकि हर देश जलवायु संकट के खिलाफ अपनी लड़ाई खुद लड़ सके।