हिमाचल प्रदेश: सेब के बागों में तेजी से पांव पसार रही फंगल बीमारी

गाँव कनेक्शन | Jul 24, 2020, 13:27 IST
एक तरफ जहां पूरा भारत कोरोना संकट, टिड्डी हमले और कुछ अन्य क्षेत्रों में आई बाढ़ झेल रहा है, वहीं दूसरी तरफ पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश के किसान सेब में लग रहे फंगल बीमारी से परेशान हैं।
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- सौरभ चौहान

शिमला। हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले में सेब की खेती करने वाले किसान दया राम ने पेड़ की पत्तियों पर आए घाव और अनियमित लकीरों को नहीं देखा। दया राम का ध्यान उन पर तब गया जब घाव काले पड़ गए और लकीरें और ज्यादा गहरी हो गई। हालांकि उन्हें इस बात का अंदाजा नहीं था कि उनके बाग में फंगल अटैक हुआ है, जब तक यह व्यापक रूप से फैल नहीं गया।

दया ने गांव कनेक्शन को बताया, "हमने जुलाई के पहले सप्ताह में सेब पर कुछ काले धब्बे देखे। हमने इस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया लेकिन दो सप्ताह के भीतर यह 30 प्रतिशत बाग में फैल गया। मैंने पिछले साल भी यह धब्बे पत्तियों और फलों पर महसूस किए थे लेकिन तब मैंने इसे अनदेखा कर दिया था।"

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स्कैब संक्रमित सेब, फोटो: यूएचएफ, नौनी

सेब के किसानों के व्हाट्सएप ग्रुप धब्बे वाले पेड़ों की पत्तियों और फलों की तस्वीरों से भरे हुए हैं। कुल्लु के सेब किसान बलराज शर्मा ने गांव कनेक्शन को बताया, "कुछ किसानों ने इसे कोई अन्य बीमारी समझा और वे पिछले दो-तीन वर्षों से ऐसा कर रहे हैं। इस बार समस्या गंभीर है।"

कुछ सोशल मीडिया यूजर्स दया के बचाव में आगे आए। दया ने इस बात को स्वीकारा कि फल रोग विशेषज्ञ के पास जाने से पहले हमने सोशल मीडिया पर लोगों से सेब पर आए इन घावों के बारे में बात की। कुछ लोगों ने पुष्टि की कि यह स्कैब (एक प्रकार का चर्म रोग) है। मैंने इसके बारे में सुना था लेकिन देखा पहली बार है।"

सेब की स्कैब बीमारी जो कि एक तरीके के फंगस से फैलती है उसे वैज्ञानिक रूप से वेंचुरिया इनएक्वॉलिस (Venturia inaequalis) के रूप में जाना जाता है। इसे पहली बार 1977 में हिमाचल में देखा गया था। यह रोग जो सेबों के आकार, आकृति और रंग को खराब कर देता है, 1982 से 83 के बीच में एक महामारी के रूप में बदल गया था जिससे पूरे बाग संक्रमित हुए थे।

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सर्दियां और शुरुआती में नमी रहती है। यह फंगल को बनाए रखने और फैलाने में मदद करता है। फोटो: सौरभ चौहान

उस समय बड़े पैमाने पर देशव्यापी अभियान चलाए गए थे ताकि सेब के किसानों को फंगल बीमारी से निपटने में मदद मिल सके। लेकिन समय के साथ किसान लापरवाह होते चले गए। इन नए किसानों ने फंगल की ऐसी बीमारी को महामारी में परिवर्तित होते नहीं देखा है इसलिए वह अपने बागों में इसकी पहचान नहीं कर पाए।

जून 2019 में खबरें थीं कि सेबों में स्कैब बीमारी होने की आशंका है। लेकिन इस वर्ष यह बीमारी हिमाचल के कुछ इलाकों में ही बताई गई।

क्षेत्रीय बागवानी अनुसंधान और प्रशिक्षण स्टेशन, मशोबरा के एसोसिएट निदेशक डॉ पंकज गुप्ता कहते हैं, "हमने शिमला जिले के बागों का सर्वेक्षण किया और पाया कि फंगल से बाघी, रतनरी, खरापाथर और जुब्बल के कुछ हिस्सों में 50 प्रतिशत बागानों को नुकसान पहुंचा है।"

उन्होंने कहा, ''इन क्षेत्रों में पिछले दो वर्षों में स्कैब (फंगल) देखा गया है और हम नियमित रूप से किसानों को सलाह दे रहें हैं कि वह निर्धारित प्रथाओं का पालन करें। अगर इस बार इसका ठीक से प्रबंधन नहीं किया गया तो यह अगले साल और खराब हो सकता है।''

घाव लगे पुराने गिरे हुए पत्ते अगले साल होने वाली सेब की फसल के लिए खतरनाक हो सकते हैं इसलिए गिरने वाली सभी पत्तियों और कलियों को इकट्ठा करके नष्ट करना जरूरी है। शिमला जिले के किसान डी आर चौहान कहते हैं, "जब हम स्कूल में थे तो हमें सेब के बागों में एक सरकारी कार्यक्रम के तहत पत्तियों को जलाने के लिए ले जाया जाता था ताकि सेब के फंगल को नष्ट किया जा सके। ऐसा एक तरीके से महामारी से निपटने के लिए किया जाता था।"

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शिमला जिले के सेब उत्पादक प्रणव रावत कहते हैं, "फसल कटाई के बाद प्रबंधन अगले साल महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।" यह थकाऊ प्रक्रिया पहले से संघर्ष कर रहे किसानों के संकट को और बढ़ा देगी क्योंकि इससे लागत में भी इजाफा हो जाता है। हिमाचल का कृषि क्षेत्र श्रम की कमी से भी प्रभावित है।

यूनिवर्सिटी ऑफ हॉर्टिकल्चर एंड फॉरेस्ट्री के वैज्ञानिक यशवंत सिंह परमार कहते हैं, "फल या पत्ती में पड़ा एक काला धब्बा लाखों फलों, पत्तियों और कलियों में फफूंद (फंगल) फैलाने की क्षमता रखता है।" यूनिवर्सिटी ने 'ऐप्पल स्कैब फंगल अटैक' के प्रभावी प्रबंधन पर किसानों को एक एडवाइजरी जारी की है।

कम ऊंचाई वाले क्षेत्रों में सेब की कटाई शुरू हो गई है। कुछ किसान समस्या को हल करने में सक्षम थे, लेकिन उच्च ऊंचाई वाले कई बागवान चिंतित हैं क्योंकि वह समय पर समस्या से निपट नहीं सके। हवा में अधिक नमी के कारण ऊंचाई वाली जगहों पर फंगल होने की संभावना जाती रहती है। निचले और मध्यम ऊंचाई वाले कुछ बाग जो समुद्र तल से लगभग 4,000 से 5,500 फीट की ऊंचाई पर हैं, फंगल से प्रभावित हुए हैं।

सर्दियां और शुरुआती वसंत में मौसम में नमी रहती है। यह फंगल को बनाए रखने और फैलाने में मदद करता है। शिमला जिले के एक सेब किसान यश पाल डोगरा कहते हैं, "दुर्भाग्य से मौसम फंगल के लिए अनुकूल है और कुछ किसान अभी भी अपने बागों में इसकी पहचान करने में सक्षम नहीं हैं।"

शिमला के प्रगतिशील सेब किसान कुणाल चौहान कहते हैं, "फंगल ने हमें और साथ-साथ बागवानी विभाग को पकड़ा है। वह इससे बिल्कुल अनजान हैं। "

यशवंत सिंह परमार बागवानी और वानिकी विश्वविद्यालय के उप-कुलपतिडॉ.परविंदर कौशल ने सलाह देते हुए कहा कि मॉनसून के आगमन के कारण हवा में अधिक नमी होती है और ऐसे में फंगस लगने की संभावना बढ़ जाती है।

एडवाइजरी में कहा गया, "सेब में स्कैब (फंगल) की समस्या जिसे तब अप्रचलित माना जाता था, पिछले साल हिमाचल प्रदेश के कुछ इलाकों में शुरू हुई थी। इस साल कुल्लू, मंडी और शिमला से स्कैब (फंगल) रोग की घटनाएं सामने आईं इसलिए इस बीमारी की गति को रोकने के लिए उपाय करना आवश्यक है।"

एडवाइजरी में यह भी कहा गया कि किसानों को सेब को फंगल से बचाने के लिए 0.3 प्रतिशत की सांद्रता पर प्रोपीनेब (600 ग्राम/ 200लीटर पानी) या डोडीन, 0.075 प्रतिशत सांद्रता (150 ग्राम / 200 लीटर पानी) या मेटिरम 55 प्रतिशत+पाइरक्लोस्ट्रोबिन 5 प्रतिशत, डब्लूजी (Vangard) 0.15 प्रतिशत की सांद्रता (300 ग्राम / 200 लीटर) का छिड़काव करना चाहिए।

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जिन क्षेत्रों में इसकी तीव्रता अधिक है, वहां किसान हर 10 से 12 दिनों में रसायनों का छिड़काव कर रहे हैं। इसमें लागत भी अधिक लगती है। एक किसान ने गांव कनेक्शन को बताया कि हम अपने बाग में 15 से 20 ड्रम फंगीसाइड का छिड़काव करतो हैं और एक ड्रम की कीमत लगभग 300 रुपये होती है। इससे हमारी खेती की लागत और अधिक बढ़ जाती है।

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पेड़ो पर फंगीसाइड का छिड़काव करता किसान। फोटो- सौरभ चौहान

राज्य के किसान मौद्रिक और तकनीकी सहायता के लिए सरकार का हस्तक्षेप और सहयोग चाहते हैं। किसान सभा के नेता संजय चौहान ने कहा, "सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि किसानों को नुकसान के आकलन और मुआवजे के अलावा अनुदानित मूल्यों पर फफूंदनाशक दवा उपलब्ध हो।"

फल, सब्जी और फूल के संघ अध्यक्ष हरीश चौहान कहते हैं, "किसानों को रियायती मूल्य पर नियमित जागरूकता शिविर और प्रभावी फफूंदनाशक दवाएं दी जानी चाहिए। सरकार को 1980 के दशक की तरह एक अभियान शुरू करने की आवश्यकता है।"

अनुवाद- सुरभि शुक्ला

इस रिपोर्ट को मूल रूप से अंग्रेजी में यहां क्लिक करके पढ़ा जा सकता है

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