दिन का सौ रुपये भी नहीं कमा पा रहे हैं रिक्शा चालक, वायरस के डर से नहीं मिल रही सवारी

shivangi saxena | Sep 16, 2020, 05:32 IST

कोरोना के प्रकोप ने दिहाड़ी मजदूरों और रिक्शा चालकों को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। इस वायरस ने उनकी रोज़ी-रोटी पर गहरा असर डाला है। अनलॉक होने के बावजूद लोग वायरस के डर से रिक्शों पर बैठने से कतरा रहे हैं, जिससे उनकी आय प्रभावित हो रही है।

लखनऊ के हज़रतगंज में ट्रैफिक के शोर-गुल के बीच आपको शांत बैठे पैडल रिक्शाचालक हर ओर दिख जाएंगे। अटल चौक पर विमलेश की आंखें रोज़ाना सुबह आठ से रात ग्यारह बजे तक सवारी का इंतज़ार किया करती हैं। लेकिन लाखों मज़दूरों की तरह लॉकडाउन की चपेट में आने से वे भी नहीं बच सके हैं। विमलेश जहाँ पहले दिनभर मे 500 से 600 रुपये कमा लिया करते थे, वहीं अब उनके लिए सौ रूपए भी कमाना मुश्किल हो रहा है।

विमलेश बताते हैं, "पहले सुबह से शाम तक में 500 रूपए कमा लेते थे। पर अब दिन भर का 100 रूपए भी मुश्किल से हाथ में आ रहा है। हम एक समय का खाना नहीं खाते ताकि रात में परिवार का पूरा पेट भर सकें।"

पैडल रिक्शाचालक दूर-दराज के गाँवों से शहर आकर रिक्शा चलाते हैं। लॉकडाउन के बाद कई अपने गाँव चले गए। लेकिन कुछ वापस नहीं लौट पाए और शहर में ही रुक गए। विमलेश भी उनमे से एक हैं, जो गाँव लौटने के बजाए लखनऊ में अपने एक कमरे के मकान में रुक गए।

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वह किराए पर रिक्शा चलाते हैं जिसका मतलब उन्हें रोज़ की अपनी कमाई से 50 रुपये रिक्शे का किराया भी भरना पड़ता है। "हमने अपनी परेशानी का हिसाब रखना छोड़ दिया है। हमसे सुखी तो वो हैं जो रोज़ भीख मांगकर खा रहे हैं। हम मेहनत भी करते हैं और सवारी नहीं मिलती तो क्या करें? पूरे दिन में सिर्फ एक सवारी मिली है।"

विमलेश ने बताया कि लॉकडाउन खुलने के बाद से लोग अपने निजी वाहनों से चलना अधिक पसंद कर रहे हैं या थोड़ी दूर जाना हो तो पैदल चले जाते हैं। कोरोना वायरस के डर से रिक्शे पर सवारी चढ़ने से कतरा रही हैं। उन्हें डर लगता है कि रिक्शे पर उनसे पहले कौन बैठा होगा या हम सफाई रखते हैं या नहीं!

कोरोना को हराने के लिए देश में पहली बार 14 अप्रैल तक देशव्यापी तालाबंदी की गयी थी। लेकिन लखनऊ में रिक्शाचालकों को उन 21 दिन के बाद भी कठिन समय का सामना करना पड़ रहा है। विमलेश लखनऊ के पड़ोसी जिले सीतापुर के सिधौली के रहने वाले हैं और हर हफ्ते के अंत में परिवार को पैसा भेजते हैं।

"राशन कार्ड तो है पर लॉकडाउन के बाद गाँव नहीं जा पाए हैं। जितना बचा था उसी में दो महीना लॉकडाउन का निकाल दिया और अब रोज़ कमाओ, रोज़ खाओ का सिस्टम चल रहा है। घर पर पैसा भेजना होता है। पिछले हफ्ते वो भी नहीं भेज पाए। अपना खाएं या घर पैसा भेजें?"

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विमलेश की तरह यशपाल भी परेशान हैं। बहराइच के यशपाल लखनऊ में अकेले रहते हैं और चिड़ियाघर के आसपास इलाके में रिक्शा चलाते हैं। सामान्य स्थिति में वे भी रु. 600 तक कमा लिया करते थे पर अब दो सौ से ज़्यादा नहीं मिल पाते, जिसमे से भी रु.40 किराया देना पड़ता है।

यशपाल ने हमें बताया, "पहले लॉकडाउन नहीं था तो खूब सवारी निकलती थी। अब सवारी घर से बाहर पैर नहीं रखती। स्कूल, कॉलेज बंद हैं और पिकनिक स्पॉट पर कोई नहीं जाता। लोग घूमने नहीं निकलते। हम किसको बैठाकर रिक्शा चलाएं?"

यशपाल भी आठ बजे तक रिक्शा चलाकर, खाना खाकर सो जाते हैं। यशपाल कहते हैं कि उनका अब रोज़ कमाओ रोज़ खाओ वाला हाल है। जिस दिन जितना कमा लिया, उतना ही रात को पेट भर जाता है।

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बता दें लॉकडाउन के बाद से ही केंद्रीय सरकार समेत कई राज्य सरकारों ने रिक्शा चालकों को भी "अनुरक्षण भत्ता" देने की घोषणा की थी। इस प्रक्रिया में, उत्तर प्रदेश सरकार ने अप्रैल माह में रेहड़ी विक्रेताओं, रिक्शा चालकों, ई-रिक्शा चालकों के बैंक खातों में 1,000 रुपये का अनुरक्षण भत्ता भेजने की बात कही थी।

विघनेश झा फेडरेशन ऑफ़ रिक्शा पुलर नामक संस्था के महासचिव हैं। गाँव कनेक्शन से हुई बातचीत में उन्होंने हमें बताया कि कैसे अचानक किये लॉकडाउन के फैसले ने रिक्शेवालों के पेट पर लात मारी। लॉकडाउन की शुरुआत से ही कई रिक्शेवालों ने उनसे संपर्क किया है। उनमे से कई रिक्शेवालों के पास केवल 200 रूपए तो किसी के पास मात्र 20 रूपए बचे थे। बहुत कम थे जिनकी जेब से रु. 1000 - 2000 निकल आये हों।

विघनेश बताते हैं कि पहले लॉकडाउन के दौरान रिक्शेवालों ने उम्मीद नहीं खोई थी। जितने भी रूपए बचे थे उसी में गुज़ारा किया। कईयों ने अपने पडोसी या मित्र से उधार लेकर खाने का बंदोबस्त कर लिया। लेकिन लॉकडाउन का दूसरा चरण इन लोगों के लिए किसी आपदा से कम नहीं रहा। इस दौरान कइयों के सामने जीने- मरने का सवाल आ खड़ा हुआ। इनके पास घर पर जो कुछ छोटा-मोटा पड़ा था वो बेचना पड़ा। चंद पैसों के लिए मजबूर पत्नी के गहने भी कई रिक्शा चालकों ने बेच दिए।

खाने के लिए घर पर कुछ नहीं बचा था। प्रवासी मज़दूरों के साथ कई रिक्शेवाले भी गाँव की तरफ रवाना हो रहे थे लेकिन कई ऐसे भी थे जिनका गाँव में कोई घर नहीं है। उनके पूर्वज भी खेत में दिहाड़ी पर काम करके गुज़ारा करते और गाँवों में झोपड़ी बनाकर रहा करते थे। यदि ये रिक्शेवाले गाँव लौटते भी तो इनके पास कोई आश्रय नहीं था। शहर में जहाँ खाना बंटता दिखाई पड़ता वहीं पहुँच जाते। ये लोग पुलिसवालों की लाठियां खाते इधर-उधर भटकते रहे।

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राज्य सरकार की स्कीमें लांच होने के बावजूद इसका फायदा कितनों को मिलेगा ऐसा कोई हिसाब लगाना कठिन है क्योंकि पैडल रिक्शा चलाने वालों की संख्या कितनी है इसका कोई आधिकारिक डाटा मौजूद नहीं है। ग्रामीण क्षेत्रों से शहर पलायन करने वाले रिक्शाचालकों का आंकड़ा किसी मीडिया या सरकारी रिपोर्ट से गायब रहता है। ये रिक्शा वाले रोज़ कमाकर ज़िंदा रहते हैं। जो बचता है अपने गाँव भेज देते या फिर अपनी जेब में बचाकर रख लेते हैं लेकिन बैंक खाता बहुत कम का ही होता है।

विघनेश की फेडरेशन ने केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को चिट्टी लिखी थी। उनका सुझाव था कि स्टेडियम और बड़े मैदानों में टेंट लगाकर इनके रहने की सुविधा बनाई जाए। सोशल डिस्टैन्सिंग के डर से सवारी इनके रिक्शे पर बैठने से कतराती है। ऐसे में इन्हे प्लास्टिक शीट बांटी जाए। विघनेश की चिट्ठी का दो महीने से कोई जवाब नहीं आया है।

विघनेश सुझाव करते हैं कि पैडल रिक्शाचालकों की गणना की जानी चाहिए, इन्हें कार्ड भी दिया जाना चाहिए। कंस्ट्रक्शन वर्कर्स और स्ट्रीट वेंडर्स को लोन दिया जा रहा है। लेकिन रिक्शे वालों के लिए कोई ठोस असिस्टेंस प्रोग्राम नहीं है जिससे उनकी गाड़ी भी पटरी पर वापस लौट सके।

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