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जब नृत्य बन जाता है साधना: भील समुदाय का आदिवासी होली

Divendra Singh | Dec 15, 2025, 18:50 IST
होली से पहले उपवास, पहाड़ से लाए गए पत्थरों के रंग और ढोलक-नगाड़ों की थाप, महाराष्ट्र के भील आदिवासियों का होली नृत्य सिर्फ़ उत्सव नहीं, एक जीवित परंपरा है। नंदूरबार के कलाकार गौतम खर्डे और उनकी मंडली इस लोककला को गाँव से राष्ट्रीय मंच तक पहुँचा रहे हैं।
जब मंडली किसी दूसरे राज्य में प्रस्तुति देने जाती है, तो आमतौर पर 25 कलाकारों का समूह होता है, जबकि गाँव में होली के समय 150 से ज़्यादा लोग एक साथ नृत्य करते हैं।
सिर पर रंग-बिरंगी टोपी, कमर में बँधे घुँघरू, किसी के हाथ में ढोलक तो किसी के हाथ में नगाड़ा। जैसे ही ढोलक की थाप गूँजती है, कदम खुद-ब-खुद थिरकने लगते हैं और घुँघरुओं की छनक जंगल, पहाड़ और गाँव की हवाओं में घुल जाती है। यह कोई साधारण नृत्य नहीं, बल्कि महाराष्ट्र के आदिवासी समाज की आस्था, तपस्या और सामूहिक स्मृति से जुड़ा आदिवासी होली नृत्य है।

महाराष्ट्र के नंदूरबार ज़िले के आडगाँव गाँव से आने वाले भील आदिवासी समुदाय के कलाकार गौतम जयराम खर्डे और उनकी मंडली इस नृत्य को आज देश के कई राज्यों तक पहुँचा चुके हैं। यह नृत्य केवल होली का उत्सव नहीं, बल्कि प्रकृति, पूर्वजों और समुदाय के साथ एक गहरे रिश्ते का प्रतीक है।

यह नृत्य जितना रंगीन दिखता है, उतना ही अनुशासन और तपस्या से जुड़ा हुआ भी है।
यह नृत्य जितना रंगीन दिखता है, उतना ही अनुशासन और तपस्या से जुड़ा हुआ भी है।


45 वर्षीय गौतम खर्डे बताते हैं कि आदिवासी होली नृत्य की तैयारी होली से काफी पहले शुरू हो जाती है। “होली आने से लगभग एक महीने पहले हम उपवास शुरू करते हैं। मंडली में जितने भी साथी होते हैं, सभी को यह उपवास रखना होता है। यह परंपरा पावरा और भील समुदाय में पीढ़ियों से चली आ रही है, ”वे कहते हैं।

यह नृत्य जितना रंगीन दिखता है, उतना ही अनुशासन और तपस्या से जुड़ा हुआ भी है। उपवास रखने वाले कलाकार पंद्रह दिनों के बाद पहाड़ों से दो पत्थर लाते हैं, एक पीला और एक सफेद। इन पत्थरों को आग में जलाकर पीसा जाता है और उनसे प्राकृतिक रंग तैयार किया जाता है। यही रंग चेहरे पर खास डिज़ाइन में लगाए जाते हैं। रंग लगाने के बाद कलाकार पाँच दिनों तक स्नान नहीं करते, ताकि यह पवित्र रंग बना रहे। यह प्रक्रिया आदिवासी समाज के प्रकृति-सम्मत जीवन और रसायन-मुक्त परंपराओं को दर्शाती है।

गौतम बताते हैं कि पहले यह नृत्य केवल गाँव तक सीमित था। “हमने यह नृत्य अपने बुज़ुर्गों से सीखा। शुरू में तो होली के समय गाँव में ही करते थे, लेकिन धीरे-धीरे लोगों को यह पसंद आने लगा और बाहर से बुलावा आने लगा, ”वे आगे कहते हैं। आज उनकी पहचान महाराष्ट्र से बाहर भी बन चुकी है।

यह मौसम के बदलाव का उत्सव है, खेतों में नई फसल की उम्मीद है और सामूहिक जीवन का उत्सव है।
यह मौसम के बदलाव का उत्सव है, खेतों में नई फसल की उम्मीद है और सामूहिक जीवन का उत्सव है।


जब मंडली किसी दूसरे राज्य में प्रस्तुति देने जाती है, तो आमतौर पर 25 कलाकारों का समूह होता है, जबकि गाँव में होली के समय 150 से ज़्यादा लोग एक साथ नृत्य करते हैं। सामूहिक नृत्य आदिवासी समाज की सबसे बड़ी ताकत है, जहाँ कोई दर्शक नहीं, सब सहभागी होते हैं।

इस साल आदिवासी कलाकारों के लिए एक ऐतिहासिक पल तब आया, जब 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के अवसर पर गौतम खर्डे और उनकी मंडली को दिल्ली बुलाया गया। राष्ट्रपति के सामने प्रस्तुति देना उनके लिए केवल सम्मान नहीं, बल्कि इस बात की स्वीकृति थी कि आदिवासी लोककला भी देश की सांस्कृतिक पहचान का उतना ही अहम हिस्सा है।

आदिवासी होली नृत्य सिर्फ़ नाच-गाना नहीं है। यह मौसम के बदलाव का उत्सव है, खेतों में नई फसल की उम्मीद है और सामूहिक जीवन का उत्सव है। आधुनिक मंचों तक पहुँचने के बावजूद यह नृत्य आज भी अपनी जड़ों से जुड़ा हुआ है, जहाँ रंग प्राकृतिक हैं, संगीत लोक वाद्यों से निकलता है और नृत्य आत्मा से उपजता है।

गौतम के साथ उनके बच्चे भी इस नृत्य में शामिल होते हैं, गौतम की कोशिश है कि उनके बाद भी कला जीवित रहे और दुनिया उनके बारे में जानें।
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