खेत से फै़सले तक: बिहार की महिलाएं कैसे बदल रही हैं ग्रामीण अर्थव्यवस्था की तस्वीर

Gaon Connection | Dec 23, 2025, 18:39 IST
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जलवायु संकट, छोटे खेत और अनिश्चित आय के बीच बिहार के गाँवों में एक खामोश लेकिन गहरा बदलाव हो रहा है। यह बदलाव ट्रैक्टरों या बड़ी मशीनों से नहीं, बल्कि महिलाओं के आत्मविश्वास, निर्णय और नेतृत्व से आ रहा है, जो अब केवल खेतों में काम नहीं कर रहीं, बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था की दिशा तय कर रही हैं।

<p>यह अध्ययन बताता है कि बिहार की महिलाएं अब योजनाओं की लाभार्थी नहीं, बल्कि ग्रामीण मूल्य शृंखलाओं की सह-निर्माता बन चुकी हैं, वे उद्यम चला रही हैं, संस्थाएं संभाल रही हैं और नई सोच को जन्म दे रही हैं।<br></p>
बिहार की खेती लंबे समय से संकट में रही है, छोटे-छोटे खेत, मौसम की मार, बढ़ती लागत और बाजार की कमजोर पकड़। लेकिन इसी कठिनाई के बीच गांवों से एक नई उम्मीद जन्म ले रही है। यह उम्मीद महिला किसानों के रूप में सामने आ रही है, जो अब सिर्फ़ खेतों में पसीना बहाने वाली मज़दूर नहीं, बल्कि ग्रामीण मूल्य शृंखलाओं की अगुवाई कर रही हैं।

हाल ही में पटना में आयोजित “Herding Hope” नामक परामर्श बैठक में इसी बदलती हकीकत पर चर्चा हुई। इस बैठक में नीति-निर्माता, शोधकर्ता, विकास विशेषज्ञ और सामुदायिक प्रतिनिधि एक साथ बैठे, यह समझने के लिए कि बिहार की कृषि व्यवस्था को केवल उत्पादन से आगे कैसे ले जाया जाए।

बैठक का फोकस साफ था, खेती को अकेले नहीं, बल्कि कृषि, पशुपालन, बाजार, पोषण और सामुदायिक संस्थाओं के एक संयुक्त तंत्र के रूप में देखना।

कार्यक्रम में बोलते हुए बिहार सरकार के डेयरी, मत्स्य एवं पशु संसाधन विभाग की अपर मुख्य सचिव डॉ. एन. विजयलक्ष्मी ने एक साधारण लेकिन गहरी बात कही, “छोटे किसानों के लिए बकरी एटीएम जैसी होती है। जब ज़रूरत पड़े, तो सम्मान के साथ सहारा देती है।”

यह वाक्य दरअसल उस सच्चाई को बयान करता है, जिसमें पशुपालन, खासकर महिलाओं के हाथों में, आर्थिक सुरक्षा का आधार बनता जा रहा है। गाँवों में पशु सखियां अब सिर्फ़ पशुओं की देखभाल नहीं कर रहीं, बल्कि महिलाओं के आत्मनिर्भर बनने की कहानी भी लिख रही हैं। सरकार द्वारा बिहार राज्य बकरी महासंघ के पंजीकरण की घोषणा इसी दिशा में एक बड़ा संकेत है।

बैठक में बीएसएलडी परियोजना के आउटकम मॉनिटरिंग सर्वे के नतीजे भी साझा किए गए। इन आंकड़ों के पीछे सिर्फ़ संख्या नहीं, बल्कि गाँवों की ज़िंदगी है, जहां महिलाओं की आय के स्रोत बढ़े हैं, भोजन ज़्यादा सुरक्षित हुआ है और परिवारों में उनके फैसलों की अहमियत बढ़ी है।

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डॉ. मानवेंद्र नाथ रॉय ने साफ कहा कि विकास योजनाएं तभी मायने रखती हैं, जब उनके परिणामों को ईमानदारी से मापा जाए। वहीं, परियोजना निदेशक सुश्री सोनमणि चौधरी ने बताया कि इन आकलनों की वजह से कार्यक्रमों को समय रहते बदला और बेहतर किया जा सका।

लेकिन इस पूरी चर्चा का सबसे भावनात्मक और असरदार पहलू था पर्सनल ट्रांसफॉर्मेशन इंडेक्स (PTI) अध्ययन। सात साल तक 1,200 से अधिक ग्रामीण महिलाओं को साथ लेकर चला यह अध्ययन यह दिखाता है कि बदलाव सिर्फ़ पैसे से नहीं आता।

यह बदलाव आता है, जब कोई महिला पहली बार मीटिंग में बोलती है, जब वह समूह की अगुवाई करती है, जब वह अपने बच्चों की पढ़ाई या खेती के फैसले खुद लेने लगती है।

यह अध्ययन बताता है कि बिहार की महिलाएं अब योजनाओं की लाभार्थी नहीं, बल्कि ग्रामीण मूल्य शृंखलाओं की सह-निर्माता बन चुकी हैं—वे उद्यम चला रही हैं, संस्थाएं संभाल रही हैं और नई सोच को जन्म दे रही हैं।

पूर्व विकास आयुक्त डॉ. एस. सिद्धार्थ ने इस मौके पर एक अहम चेतावनी दी, “संसाधन दे देना ही विकास नहीं है। असली सवाल यह है कि क्या आजीविका टिकाऊ, लाभकारी और आगे बढ़ने लायक है?”

पैनल चर्चा में विशेषज्ञों, किसानों और समुदाय प्रतिनिधियों ने एक स्वर में कहा कि अगर खेती को भविष्य में बचाना है, तो उसे महिलाओं के नेतृत्व, पशुपालन आधारित आजीविका, बेहतर बाजार और जलवायु अनुकूल रणनीतियों से जोड़ना होगा।

इस परामर्श से निकली सबसे बड़ी सीख यही रही जब आजीविका को ‘योजना’ नहीं, बल्कि एक जीवंत तंत्र की तरह देखा जाता है, तब बदलाव सिर्फ़ आंकड़ों में नहीं, लोगों की ज़िंदगी में दिखाई देता है और बिहार के गांवों में यह बदलाव अब साफ नज़र आने लगा है, महिलाओं के चेहरे, फैसलों और नेतृत्व में।
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