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अपने पुश्तैनी व्यवसाय से दूर जा रहे महोबा के मूर्तिकार

गाँव कनेक्शन | Feb 18, 2020, 09:41 IST
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रितुराज रजावत, कम्युनिटी जर्नलिस्ट

महोबा(उत्तर प्रदेश)। कभी बुंदेलखंड के राजाओं के लिए सोने-चांदी की मोहरे ढालने वाले मूर्तिकार आज अपने इस पुश्तैनी व्यवसाय से दूर जा रहे हैं।

उत्तर प्रदेश के महोबा जिले में श्रीनगर गाँव में बनने वाली धातु की मूर्तियों की पहचान बुंदेलखंड ही नहीं देश भर में थी। लेकिन अब नई पीढ़ी मूर्ति बनाने का काम नहीं करना चाहती है।

मूर्तिकार जनार्दन सोनी बताते हैं, "श्रीनगर के राजा मोहन राय के लिए न सिर्फ चांदी की मोहरें बनाई जाती थी बल्कि उनपर शिल्पकारी का हुनर भी दिखाते थे। अब हम चांदी की मोहरों की जगह पर अष्टधातू की मूर्तियां बनाने का काम करते हैं।"

हिंदू मान्यता के अनुसार पूर्व के समय में धातु से बनी मूर्तियों को विशेष दर्जा दिया जाता था। जो की अब की तुलना में कम दिया जाता है। समय के साथ धातु की मूर्तियों का प्रचलन लगभग समाप्ति की कगार पर जा पहुंचा है और धातु की जगह कांच या फिर मिट्टी की मूर्तियों ने ले ली है।

धातु की मूर्ति को बनवाने में लागत अधिक आने के चलते इसका सीधा असर मूर्तिकारों पर दिखाई देता है। धातू की मूर्तियां आम आदमी की पहुंच से खासी दूर तो वहीं मिट्टी और कांच से बनाई जाने वाली मूर्तियां काफी किफायती नजर आती हैं। मंदी की मार झेल रहे इन कारीगरों के हुनर को नजरअंदाज कर सस्ता और मंहगा का फर्क आंके जाने के बाद ही मूर्तियों की खरीद फरोक्त की जाती है। कुल मिलाकर अगर कहें तो आम आदमी से धातु की मूर्ति का सरोकार अब कम ही देखने को मिलता है। जिसका सीधा असर इन मूर्तिकारों की आम जिंदगी में भी पड़ रहा है।

श्रीनगर ग्राम पंचायत के ज्यादातर मूर्तिकार पलायन कर रहे हैं। तंगहाली के चलते साल में कुछ महीनों के लिए परिवार सहित पलायन किया जाता है। मंहगाई की मार झेल रहे व्यवसाय के ठप्प पड़ जाने के चलते इन परिवारों को दो वक्त की रोटी के लिए पलायन करना पड़ता है। अन्य प्रदेशों में जाकर मेहनत मजदूरी के दम पर इन कारीगरों द्वारा रोजमर्रा की जरूरतें पूरी की जाती हैं। कम पढ़े लिखे होने के कारण परिवार के सदस्यों को मजबूरी के चलते मेहनतकश काम ही दिया जाता है।

मूर्तिकार दिलीप कुमार विश्वकर्मा कहते हैं, "धातु की मूर्ति की मांग कभी कभार आने के कारण अधिकांश परिवारों के सर पर कर्ज चढ़ा हुआ है। मेहनत के दम पर बाहरी प्रदेशों से कमा कर लाए रुपए से कर्ज की भरपाई की जाती है। बैंक से ऋण भी आसानी से इन परिवारों को नही दिया जाता है जिसके चलते इन परिवारों को अन्य व्यक्तियों से पैसे ब्याज पर लेने पड़ते हैं जिनका ब्याज सरकारी ब्याज की तुलना में कहीं अधिक वसूला जाता है।"

अनदेखी अब इनकी निजी जिंदगी पर भी असर डालती दिखाई पड़ रही है। न तो योजनाओं से इन मूर्तिकला के माहिरों को अभी जोड़ा गया है और न ही जल्द जोड़े जाने के हालात फिलहाल बनतें दिखाई पड़ रहें है। वर्षो से पलायन को मजबूर रहे ये मूर्तिकार आज भी पलायन को विवश हैं।



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