"यहां गाँव में केवल बूढ़े और घरों पर ताले बचे हैं"
Pragya Bharti | Apr 20, 2019, 09:34 IST
उत्तर प्रदेश राज्य के बांदा जिले की अतर्रा तहसील में चलने वालीं चावल की मिलें पिछले लगभग 20 सालों से बन्द पड़ी हैं। मिल मालिक घरों में फालतू बैठे हैं, मजदूर मजबूरी में पलायन कर गए हैं। हालत ये है कि गांव के गांव खाली पड़े हैं।
अतर्रा, बांदा (उत्तर प्रदेश)। बांदा जिले के खुरहंड गाँव के एक नए बन रहे स्कूल में बैठ कर उमाशंकर पाण्डेय ये बताते हैं। वो बांदा जिले में चावल की मिलों के बंद होने और उसके बाद पलायन को मजबूर हुए मजदूरों की बात कर रहे थे।
बांदा जिले की अतर्रा तहसील को एक समय धान का कटोरा कहा जाता था। धान तो अभी भी यहां होता है लेकिन उसे चावल बनाने वालीं मिलें बंद हो गई हैं। साल 2000 से 2002 के बीच लगभग सभी मिलें बंद हो गईं। इन मिलों में लगभग पांच से छह हज़ार मजदूर काम करते थे। मजदूरों का काम छिन गया और उन्हें मजबूरी में गांव छोड़कर बाहर जाना पड़ा। वहीं मिल मालिक कहीं खाली बैठे हैं तो कहीं अपनी ज़मीन बेच रहे हैं। किसी ने मिल की ज़मीन पर शादी हॉल बनवाया और किराए पर देता है तो कोई ठेकेदारी करने लगा।
अतर्रा में इस ही तरह मिलें बन्द पड़ी हैं।
उमाशंकर पाण्डेय सर्वोदयी कार्यकर्ता हैं। वो बताते हैं कि गांधी और विनोबा भावे के विचारों को मानने वाला कोई भी व्यक्ति सर्वोदयी कार्यकर्ता है। पाण्डेय कहते हैं -
उमाशंकर पाण्डेय बताते हैं कि यहां 1912 में पहली चावल मिल लगी थी, मिर्जापुर राइस मिल के नाम से। दूसरी चावल की मिल 1933 में लगी - भरत बाबू राइस मिल और इसके बाद राम जानकी राइस मिल, भूतेश्वर, कावेरी चावल मिल आदि बहुत सी मिलें लगीं। अतर्रा को धान का कटोरा कहा जाता था। साल 2002 तक मिलें चलती रहीं। यहां की कुछ मिलें तो रेल के इंजन से चलती थीं।
अतर्रा -
अतर्रा कस्बे से 17 किलोमीटर दूर खुरहंड के रहने वाले स्वरूप प्रसाद यादव अब ठेकेदारी में एक छोटा सा चावल का प्लांट चलाते हैं। वो पहले राम जानकी मिल में काम करते थे, कहते हैं, "मिल में पांच साल काम किया, वो उखड़ गई कुछ साल पहले। हमारे साथ लगभग 100 से 150 मजदूर काम करते थे। अब तो यही छोटा सा प्लांट चला रहे हैं। यहीं धान की दराई करते हैं। जब मिल चलती थी तो दो दिन में पांच हज़ार बोरा चावल निकलता था। महीने भर में हमें कुछ नहीं तो 2500 से तीन हज़ार रुपए तक मिल जाया करता था।
स्वरूप प्रसाद यादव इस झोपड़ी में अपना चावल का प्लांट चलाते हैं जो कि उन्होंने ठेकेदारी में लिया है।
राम जानकी राइस मिल के मालिक बताते हैं कि, "सारे मज़दूर पलायन कर गए कोई दिल्ली, मुम्बई तो कोई सूरत निकल गया। हम मिल मालिक कुछ नहीं कर पाए।"
मिल बन्द होने का कारण वो बताते हैं, "सरकार की तरफ से भी दिक्कत आई और खुद के भी कई कारण रहे जैसे हम पुराने प्लांट को नई तकनीक के हिसाब से नहीं बना पाए उस समय। लगभग 2000 से सभी मिलें बंद पड़ी हैं। हमारे पिता जी ने मिल चालू की थी, उस स्तर का तो कोई काम हम नहीं कर पाए। मिल बन्द हो गई तो अपना थोड़ा बहुत करते रहे, किसानी, ठेकेदारी वगैरह। कोई स्थाई काम हम नहीं कर पाए।"
खुरहंड में खेती करने वाले किसान बालेन्द्र बताते हैं कि उनके पिता चावल की मिलों में काम करते थे। वो कहते हैं-
"हम लोग बेरोज़गार हैं, हमारे पिता जी पहले कुछ दिन गुजरात में रहे, अब कुछ कर नहीं पाते हैं तो घर ही में रहते हैं। हम ही अपना मेहनत मज़दूरी करते हैं और पूरे परिवार का पालन पोषण करते हैं," - बालेन्द्र आगे बताते हैं।
अन्नपूर्णा चावल मिल के मालिक राजेश कुमार अब खाली ही रहते हैं। साल 2002 से उनकी मिल बन्द हो गई। मिल के पास ही उनका घर है। वो बताते हैं कि पहले धान का दाम सरकार तय नहीं करती थी। चावल का दाम तय होता था। अगर वो अपनी मिल में धान से सौ क्विंटल चावल बना पाते थे तो 75 क्विंटल सरकारी दाम पर सरकार को बेचते थे इसे लेवी कहा जाता था; मतलब 75 प्रतिशत चावल सरकार को बेचने के लिए वो लोग बाध्य होते थे, बाकी 25 क्विंटल बाज़ार में बेच सकते थे। अब बाज़ार का दाम सरकारी दर से कभी ज़्यादा रहता था तो कभी कम भी होता था। जब दाम सरकारी दाम से कम होता था तो बाकी का 25 प्रतिशत भी वो सरकार को ही दे देते थे। अगर ज़्यादा होता था तो उस पच्चीस प्रतिशत को बाज़ार में बेच देते थे।
रामजानकी चावल मिल सालों से बंद पड़ी है।
राजेश कहते हैं कि पानी की कमी होने से उत्पादन कम हो गया। साथ ही सरकार को भी वो इसका ज़िम्मेदार मानते हैं।
"15 सालों से सरकार ने मूल्य समर्थित योजना शुरू कर दी कि कोई व्यापारी धान ले या नहीं ले, सरकार किसान से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदेगी। अब सरकार धान से चावल बनवा कर अपनी राशन की दुकानों पर भेज देती है। जितने चावल की आवश्यकता है वो जो धान खरीदते हैं उससे पूरी हो जाती है तो उसने मिलों से चावल लेना बंद कर दिया।"
"दूसरी बात ये कि यहां नए चावल की किस्मों के अनुसार मशीनें नहीं थीं। धान तो बहुत पैदा होता है लेकिन नई तकनीक यहां नहीं है। आर-आर-21, 11-21 चावल का धान तो बहुत है लेकिन उसका प्लांट नहीं है- उसका धान ही 2-3 हज़ार, 3200, 3500 रुपए तक बिकता है लेकिन वो यहां नहीं बना सकते। उसके धान को चावल बनाने वाला प्लांट यहां नहीं है।"
मिल बंद होने की वो दो मुख्य वजहें बताते हैं, मौसम (गर्मी बढ़ने लगी तो पानी की कमी हो गई) और दूसरा सरकार ने जो है सीधे किसानों से धान लेना शुरू कर दिया। सरकार की समर्थन योजना के साथ क्या समस्या है के जवाब में राजेश कहते हैं-
चावल की मिलों में काम करने वाले छंगू यादव बताते हैं, "पहले हम जो धान बेचते थे तो तुरन्त हमारा धान बिक जाता था। साथ ही हमें मजदूरी का सही दाम मिलता था। आज से लगभग 15-20 साल हो गए हैं मिलों को बंद हुए। मिल बंद होने से बहुत दिक्कत हो गई है। हम लोग जो धान पैदा करते हैं वो बिक नहीं पाता। बड़े-बड़े आदमियों का धान बिकता है, वो लोग ट्रेक्टरों से धान लाते हैं। हम छोटे किसान हैं, हमारा धान नहीं बिक पाता। हम बस ऐसे ही कहीं-कहीं मजदूरी करके पेट पाल रहे हैं।"
बंद पड़ी चावल की मिल।
अतर्रा के किसान भूरे लाल साहू कहते हैं, "मिलें बंद होने से मजदूरों पर बहुत असर पड़ा। सब घर-द्वार छोड़ कर के परदेश जाने लगे, लुधियाना, पंजाब, दिल्ली, बंबई। मिल मालिकों ने भी अपना धंधा तब्दील कर दिया, लोग दूसरा धंधा करने लगे।"
वहीं लालचंद कुशवाह (किसान) बताते हैं, "अतर्रा और आस-पास की जगहों में धान बहुत अधिक मात्रा में होता है। मिलें बंद हो गईं तो मजदूरों को भी पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा। यहां अभी भी धान बहुत होता है। अगर यहां पर दोबारा मिलें खोल दी जाएं और धान की खपत यहीं हो तो फिर से यहां चावल की पैदावार ज़्यादा होने लगेगी।"
बांदा जिले की अतर्रा तहसील को एक समय धान का कटोरा कहा जाता था। धान तो अभी भी यहां होता है लेकिन उसे चावल बनाने वालीं मिलें बंद हो गई हैं। साल 2000 से 2002 के बीच लगभग सभी मिलें बंद हो गईं। इन मिलों में लगभग पांच से छह हज़ार मजदूर काम करते थे। मजदूरों का काम छिन गया और उन्हें मजबूरी में गांव छोड़कर बाहर जाना पड़ा। वहीं मिल मालिक कहीं खाली बैठे हैं तो कहीं अपनी ज़मीन बेच रहे हैं। किसी ने मिल की ज़मीन पर शादी हॉल बनवाया और किराए पर देता है तो कोई ठेकेदारी करने लगा।
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उमाशंकर पाण्डेय सर्वोदयी कार्यकर्ता हैं। वो बताते हैं कि गांधी और विनोबा भावे के विचारों को मानने वाला कोई भी व्यक्ति सर्वोदयी कार्यकर्ता है। पाण्डेय कहते हैं -
उमाशंकर पाण्डेय बताते हैं कि यहां 1912 में पहली चावल मिल लगी थी, मिर्जापुर राइस मिल के नाम से। दूसरी चावल की मिल 1933 में लगी - भरत बाबू राइस मिल और इसके बाद राम जानकी राइस मिल, भूतेश्वर, कावेरी चावल मिल आदि बहुत सी मिलें लगीं। अतर्रा को धान का कटोरा कहा जाता था। साल 2002 तक मिलें चलती रहीं। यहां की कुछ मिलें तो रेल के इंजन से चलती थीं।
अतर्रा -
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राम जानकी राइस मिल के मालिक बताते हैं कि, "सारे मज़दूर पलायन कर गए कोई दिल्ली, मुम्बई तो कोई सूरत निकल गया। हम मिल मालिक कुछ नहीं कर पाए।"
मिल बन्द होने का कारण वो बताते हैं, "सरकार की तरफ से भी दिक्कत आई और खुद के भी कई कारण रहे जैसे हम पुराने प्लांट को नई तकनीक के हिसाब से नहीं बना पाए उस समय। लगभग 2000 से सभी मिलें बंद पड़ी हैं। हमारे पिता जी ने मिल चालू की थी, उस स्तर का तो कोई काम हम नहीं कर पाए। मिल बन्द हो गई तो अपना थोड़ा बहुत करते रहे, किसानी, ठेकेदारी वगैरह। कोई स्थाई काम हम नहीं कर पाए।"
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"हम लोग बेरोज़गार हैं, हमारे पिता जी पहले कुछ दिन गुजरात में रहे, अब कुछ कर नहीं पाते हैं तो घर ही में रहते हैं। हम ही अपना मेहनत मज़दूरी करते हैं और पूरे परिवार का पालन पोषण करते हैं," - बालेन्द्र आगे बताते हैं।
अन्नपूर्णा चावल मिल के मालिक राजेश कुमार अब खाली ही रहते हैं। साल 2002 से उनकी मिल बन्द हो गई। मिल के पास ही उनका घर है। वो बताते हैं कि पहले धान का दाम सरकार तय नहीं करती थी। चावल का दाम तय होता था। अगर वो अपनी मिल में धान से सौ क्विंटल चावल बना पाते थे तो 75 क्विंटल सरकारी दाम पर सरकार को बेचते थे इसे लेवी कहा जाता था; मतलब 75 प्रतिशत चावल सरकार को बेचने के लिए वो लोग बाध्य होते थे, बाकी 25 क्विंटल बाज़ार में बेच सकते थे। अब बाज़ार का दाम सरकारी दर से कभी ज़्यादा रहता था तो कभी कम भी होता था। जब दाम सरकारी दाम से कम होता था तो बाकी का 25 प्रतिशत भी वो सरकार को ही दे देते थे। अगर ज़्यादा होता था तो उस पच्चीस प्रतिशत को बाज़ार में बेच देते थे।
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राजेश कहते हैं कि पानी की कमी होने से उत्पादन कम हो गया। साथ ही सरकार को भी वो इसका ज़िम्मेदार मानते हैं।
"15 सालों से सरकार ने मूल्य समर्थित योजना शुरू कर दी कि कोई व्यापारी धान ले या नहीं ले, सरकार किसान से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदेगी। अब सरकार धान से चावल बनवा कर अपनी राशन की दुकानों पर भेज देती है। जितने चावल की आवश्यकता है वो जो धान खरीदते हैं उससे पूरी हो जाती है तो उसने मिलों से चावल लेना बंद कर दिया।"
"दूसरी बात ये कि यहां नए चावल की किस्मों के अनुसार मशीनें नहीं थीं। धान तो बहुत पैदा होता है लेकिन नई तकनीक यहां नहीं है। आर-आर-21, 11-21 चावल का धान तो बहुत है लेकिन उसका प्लांट नहीं है- उसका धान ही 2-3 हज़ार, 3200, 3500 रुपए तक बिकता है लेकिन वो यहां नहीं बना सकते। उसके धान को चावल बनाने वाला प्लांट यहां नहीं है।"
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चावल की मिलों में काम करने वाले छंगू यादव बताते हैं, "पहले हम जो धान बेचते थे तो तुरन्त हमारा धान बिक जाता था। साथ ही हमें मजदूरी का सही दाम मिलता था। आज से लगभग 15-20 साल हो गए हैं मिलों को बंद हुए। मिल बंद होने से बहुत दिक्कत हो गई है। हम लोग जो धान पैदा करते हैं वो बिक नहीं पाता। बड़े-बड़े आदमियों का धान बिकता है, वो लोग ट्रेक्टरों से धान लाते हैं। हम छोटे किसान हैं, हमारा धान नहीं बिक पाता। हम बस ऐसे ही कहीं-कहीं मजदूरी करके पेट पाल रहे हैं।"
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अतर्रा के किसान भूरे लाल साहू कहते हैं, "मिलें बंद होने से मजदूरों पर बहुत असर पड़ा। सब घर-द्वार छोड़ कर के परदेश जाने लगे, लुधियाना, पंजाब, दिल्ली, बंबई। मिल मालिकों ने भी अपना धंधा तब्दील कर दिया, लोग दूसरा धंधा करने लगे।"
वहीं लालचंद कुशवाह (किसान) बताते हैं, "अतर्रा और आस-पास की जगहों में धान बहुत अधिक मात्रा में होता है। मिलें बंद हो गईं तो मजदूरों को भी पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा। यहां अभी भी धान बहुत होता है। अगर यहां पर दोबारा मिलें खोल दी जाएं और धान की खपत यहीं हो तो फिर से यहां चावल की पैदावार ज़्यादा होने लगेगी।"