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रागी, सांवा जैसे मोटे अनाज और पहाड़ी दालों से उत्तराखंड में शुरू किया कारोबार

Divendra Singh | Aug 07, 2019, 10:49 IST
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कोटद्वार (उत्तराखंड)। दो साल पहले तीन दोस्तों ने मिलकर एक सपना देखा था कि कुछ ऐसा करें, जिससे पहाड़ों पर पलायन रुक जाए। आज वो न केवल उत्तराखंड के पारंपरिक अनाज और दालों को दिल्ली जैसे बड़े शहरों तक पहुंचा रहे हैं। बल्कि वो स्थानीय किसानों को उनके उत्पादन का सही दाम भी दिला रहे हैं।

उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जिले के कोटद्वार में राजदर्शन भदूला, सुबोध देवरानी और विकास देवरानी ने मिलकर दो साल पहले उत्तराखंड के पारंपरिक अनाजों और दालों की प्रोसेस करके उनके उत्पाद बनाने की शुरूआत की थी, आज महीने में कई कुंतल उत्पाद बनाते हैं।

अपने काम की शुरूआत के बारे में राजदर्शन भदूला बताते हैं, "हमने दो साल पहले इस काम की शुरूआत की थी, दरअसल दो साल पहले उर्मिला जी अचार और बड़ियां अपने तरीके से बनाती थीं, सुबोध जी की एक दुकान हुआ करती थी वहीं से हमें ये आइडिया आया कि हमें कुछ ऐसा करना चाहिए तब सुबोध जी और विकास जी साथ मिला, सबसे बड़ी बात उर्मिला जी ने भी हमें पूरा सहयोग किया। वो काफी इनोवेटिव हैं पहले ही उन्हें अचार और बड़ियां बनाना आता था।"

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अपने प्रोसेसिंग यूनिट में उर्मिला देवरानी, सुबोध देवरानी, विकास देवरानी और राजदर्शन भदूला

वो आगे कहते हैं, "उसके बाद हमने थोड़ा बहुत मटेरियल इकट्ठा किया, इसके बाद छोटे स्केल पर बड़िया बनानी शुरू की, जब पहली बार हम मार्केट में बड़ियां ले गए तो इसे लोगों ने काफी पसंद किया, एक बार जिसने ये बड़िया ली दोबारा हमसे मांग की। पहले हमने इसे अपनी दुकान पर इसे बेचा तब कस्टमर के रिपीट ऑर्डर आने लगे। इसके बाद हम दूसरी दुकानों पर इसे बेचने लगे तो वहां से भी अच्छे रिजल्ट आए तो हमने सोचा कि अचार वगैरह भी रखते हैं, उसे भी लोगों ने काफी पसंद किया।"

उत्तराखंड में गहथ, रैंस, भट्ट, उड़द जैसी दालों के साथ ही, मण्डुवा, झंगोरा, जौ जैसे मोटे अनाजों की खेती होती है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इनका उत्पादन घटा है, अब यहां भी किसान बाजार से गेहूं, चावल जैसे अनाज खरीदते हैं। इन लोगों का प्रयास है कि फिर किसान इसकी खेती करें। इनकी कोशिश है कि इस काम से वो पहाड़ में हो रहे पलायन रोकने में मदद कर सकें।

वो बताते हैं, "उत्तराखंड के जो पारपंरिक अनाज है उसमें झंगोरा यानि सावां और मड़ुआ यानि रागी यही दो अनाज हैं, जिन्हें मोटा अनाज कहा जाता है, ये हेल्थ फ्रेंडली भी हैं। इनमें हम ज्यादा कुछ नहीं करते हैं, सावां को प्रोसेस करके उसका चावल बेचते हैं, जबकि मड़ुआ का आटा बनाते हैं। ये तो अनाज हो गए दूसरी पहाड़ की दालें होती हैं, जितनी भी दालें होती हैं पहाड़ की राजमा, गहथ, भट्ट, रयांस, उड़द इन सबको हम पहाड़ से खरीदकर और फिर उनकी साफ-सफाई करके उनकी पैकिंग करके ही मार्केट में ले जाते हैं।"

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कई स्थानीय महिलाओं को भी मिला है रोजगार

"हमने देखा कि आज के समय में ऑर्गेनिक फूड , हेल्थ फूड, मिलेट्स, सावां, मड़ुआ, झंगोरा की मांग धीरे-धीरे बढ़ रही है। आजकल इसकी जरूरत भी बढ़ गई है, जिस तरह से बीमारियां बढ़ रही हैं, इन सबको अपनी फूड चेन में शामिल करना बहुत जरूरी हो गया है। हमने इस मिलेट्स में मड़ुआ झंगोरा जो हमारे उत्तराखंड में होता है, उन्हें हमने प्रोसेस कर शुरू कर दिया, "राजदर्शन भदूला ने आगे बताया।

इस काम से यहां कई स्थानीय महिलाओं को भी रोजागार मिला है। वो बताते हैं, "हमने जब यहां काम शुरू किया तो जो लोकल यहां की महिलाएं हैं, उनको साथ में लेकर काम शुरू किया। मशीन चलाने के अलावा हमारे यहां सारे काम महिलाएं ही करती हैं। ये सारी यहीं आसपास की महिलाएं हैं जो पैकिंग से लेकर सारे काम करती हैं।"

पलायन आयोग की साल 2018 की रिपोर्ट के अनुसार पिछले सात वर्षों में उत्तराखंड के सात सौ गाँव वीरान हो गये हैं। जिनमें पहाड़ी क्षेत्र के जिलों में पलायन का प्रतिशंत सबसे अधिक हैं। इसलिए उत्तराखंड में ऐसे युवाओं को आगे आने की जरूरत है, जो लोगों को भी रोजगार दें और खुद भी बेहतर कमाई कर सकें।

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रागी की प्रासेंसिंग करके उसका आटा बनाकर ले जाते हैं बाजार

वो आगे कहते हैं, "अपना काम हमने बैंकों को दिखाया वहां से भी मदद मिली, इसके बाद हम जिला उद्योग विभाग गए उन्हें भी हमारा काम पसंद आया वहां से भी मदद मिली। इसके बाद भी एक परेशानी थी मड़ुआ, झंगोरा जैसे अनाजों के प्रोसेसिंग के लिए यहां ऐसी मशीनें नहीं थी, यहां पर गेहूं पीसने की चक्की तो हर जगह मिल जाएगी, लेकिन मड़ुआ प्रोसेसिंग की मशीनें कहीं नहीं मिलेंगी। हमें था कि हम जो मार्केट में ले जाएं वो वो लोगों से बिल्कुल अलग हो।"

उत्तराखंड में प्रोसेसिंग की ऐसी मशीनें नहीं थीं, जिनसे वो मोटे अनाजों की प्रोसेसिंग कर पाते। इसलिए वो दक्षिण भारत से मशीनें ले आए हैं। "इसके लिए हम साउथ इंडिया गए जहां पर कुछ मशीनें मिली, आज के टाइम हम हर महीने पांच से छह टन मड़ुआ निकालते हैं और तीन से चार टन झंगोरा, जिसे सावां भी बोलते हैं। अभी हम इसे लोकल मार्केट और दिल्ली के कुछ आउलेट्स पर बेचते हैं। अगले साल तक हमारी कोशिश है कि दूसरी मेट्रो सिटीज तक अपने उत्पाद पहुंचा सकें। कुछ हम अपने आउटलेट खोलेंगे और कुछ वहां की जो रिटेल कंपनियां हैं उनकी मदद से करेंगे, "उन्होंने आगे बताया।

पिछले कुछ वर्षों में बाजार में जैविक उत्पादों की मांग तेजी से बढ़ी है। इसे बारे में उन्होंने आगे बताया, "पहाड़ों पर तो सारी खेती ही ऑर्गेनिक होती है, ये ऑर्गेनिक शब्द हमारे लिए नया शब्द है, लेकिन यहां तो हमेशा से ही नेचुरल फॉर्मिंग होती है। उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में कोई भी किसान रसायनिक खाद का इस्तेमाल नहीं करता है।

सुबोध देवारानी कहते हैं, "आज हम जो दूर-दराज की जो पहाड़ी दालें और अनाज लेकर आते हैं, उसमें ढेर सारे कंकड़ होते हैं, उन्हें हम साफ करते हैं, ताकि हम उसे बड़े शहरों तक पहुंचा पाएं।"

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