कश्मीर 30 साल पहले : मुझसे पंडित नेहरु की तस्वीर पर थूकने को कहा गया, और मैंने ऐसा किया भी

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कश्मीर 30 साल पहले : मुझसे पंडित नेहरु की तस्वीर पर थूकने को कहा गया, और मैंने ऐसा किया भीकश्मीर से विस्थापन के 28 साल

उत्तर भारत के अधिकतर हिस्सों में अभी-अभी बच्चों की स्कूली छुट्टियां ख़त्म हुईं हैं। यह हर साल होने वाली प्रक्रिया है। कड़ाके की सर्दी के कारण क्रिसमस से लेकर मकर संक्रांति तक बच्चों को बहुत कम स्कूल जाना होता है। मई-जून के महीने में फिर छुट्टियां मिलेंगी।

लेकिन कश्मीर में ऐसा नहीं होता। मई-जून वाली छुट्टियां वहाँ दिसंबर-जनवरी में ही हो जाती हैं। अब धरती का स्वर्ग जो ठहरा तो, कुछ तो अलग होगा ना स्वर्ग और शेष नरक में...।

बात 1990 की है और बात धरती पर स्वर्ग कश्मीर की है। जनवरी 1990... क्या दोहराया जाए और क्या भूला जाए... आपको पता है। जो नहीं पता, उस ओर बढ़ते हैं। सर्दियों की छुट्टियां ख़त्म हो चुकी थीं। कश्मीर घाटी में हाड़ कंपा देने वाली ठंड, मार्च-अप्रैल में भी बाकी थी। हम नई कक्षा में जा चुके थे। मुझे याद है, मैं छठवीं कक्षा में गया था। नई कक्षा में जाने का हर बार एक नया जोश और उत्साह होता है, लेकिन उस बार मेरे साथ ऐसा नहीं था। लंबी छुट्टियों के बाद एक अलसाई सी सुबह में हर रोज की तरह श्रीनगर के बर्न हाल स्कूल में पीठ पर बस्ता लेकर दाख़िल हुआ। पिछले कुछ दिनों में यहाँ बहुत कुछ बदल गया था। जनवरी की घटना के बाद 'धरती के स्वर्ग' से ज्यादातर कश्मीरी पंडितों के परिवार पलायन कर चुके थे। सरकारी नौकरी की बाध्यताओं के चलते इक्का-दुक्का परिवार जो बचे थे, उनमें एक मेरा भी परिवार था। लेकिन यह ना समझा जाए कि हमारा घर हमारा ही था। हम अपने घर को छोड़कर 24 घंटों संगीनों के साए में बस चुके थे। यानि घर में, अपने घर से दूर एक नया घर... सेना के पहरे के साथ। आज भाई बोलने वाले पड़ोसी बिना कारण हमारे दुश्मन बन गए थे।

उन दिनों स्कूल में सिर्फ मैं इकलौता (कश्मीरी) हिंदू बच्चा था। इससे पहले उस स्कूल में कभी लगभग 55 फीसदी बच्चे कश्मीरी हिंदू हुआ करते थे। आबादी के लिहाज़ से हम भले अल्पसंख्यक (4 फीसदी) रहे हों लेकिन पढ़ने-लिखने और रोजगार के मामले में बहुसंख्यक रहे हैं। खैर... अब स्कूल में जितने बच्चे थे, वे सभी मुसलमान थे। जब भी में उन दिनों स्कूल में दाख़िल होता तो सभी मुझे अज़ीब सी नज़रों से घूर कर देखते, जैसे मैं कोई एलियन था और वे पूछ रहे हों कि ये यहाँ क्या करने आया है? स्कूल में तक़रीबन दो हज़ार बच्चे रहे होंगे और सभी मुझे जानते थे। इसलिए नहीं कि मैं पढ़ने में अच्छा था, बल्कि इसलिए कि मैं कश्मीरी पंडित था, 'हिंदू' था । मोहल्ले में खेलने की बात हो या फिर स्कूल में... हर जगह मेरे साथ 12वें खिलाड़ी या गली-क्रिकेट के उस कॉमन खिलाड़ी जैसा सुलूक किया जाता, जिसे दोनों तरफ से फील्डिंग करनी पड़ती, बॉल कहीं बाहर चली जाए तो लाने की जिम्मेदारी उसी की होती है और बल्लेबाजी मुश्किल से ही नसीब होती है।

खैर... नए माहौल, नई कक्षा में जैसे-तैसे किसी तरह 3 महीने बीते। जून में फिर वह दिन आया जब स्कूल के लगभग सभी बच्चे 'किसी प्रदर्शन' की तैयारियों में लगे थे। ये प्रदर्शन कश्मीर की आज़ादी और भारत के विरोध में होने वाला था। कफ़न पहने और झंडे-बैनर लेकर स्कूल के बाहर दो हज़ार बच्चों की भीड़ जमा थी।

हिंदू होने की वजह से स्कूल में होने वाली गतिविधियों से मुझे अक्सर बाहर ही रखा जाता था। उस दिन स्कूल की तीसरी मंजिल पर खड़े होकर मैं ये सब देख रहा था। बच्चों में इस बात को लेकर असमंजस था कि रैली के आगे कफ़न पहनकर कौन चलेगा...? अभी कुछ निश्चय हो पाता कि तभी उनमें से एक बच्चे की नज़र मुझ पर पड़ी। उसने सबको याद दिलाया कि हम सब प्रदर्शन में जा रहे हैं तो ये क्यों नहीं जाएगा? बस फिर क्या था, पूरी की पूरी भीड़ कुछ ही पलों में मेरी तरफ बढ़ने लगी। वे सब सीढ़ियों से ऊपर आकर, तीसरी मंजिल पर पहुंचने लगे, जहाँ मैं था। इस बीच का डेढ़ से दो मिनट का समय, में जीवन भर नहीं भूल सकता। मैं बहुत घबरा गया था। मैं समझ नहीं पा रहा था कि ये लोग मेंरे साथ क्या करने वाले हैं। क्या वे मुझे मारेंगे या इसी खिड़की से नीचे फेंक देंगे। डर की वजह से मेरे हाथ पांव-ठंडे हो चुके थे। अगले ही क्षण मेरे साथ कुछ भी हो सकता था, क्योंकि भीड़ के पास दिमाग नहीं होता। इतना ही नहीं उन्हें रोकने की हिम्मत न तो स्कूल प्रशासन की थी (और ना पुलिस प्रशासन की थी, हालांकि पुलिस वहाँ नहीं थी। लेकिन अगर होती भी तो क्या कर लेती)। उस भीड़ के लिए मैं 'हिंदू' था। मैं इनके लिए 'भारत' था। वह सेक्यूलर भारत जिसमें लोकतंत्र की कसौटी को इस स्तर पर कसा जाता है कि वहाँ अल्पसंख्यकों के साथ कैसा बर्ताव किया जाता है। उनका यह व्यवहार उस सेक्युलर भारत के साथ हो रहा था जो आदि-अनंत, सदियों से दुनिया-भर से सताए गए, अपनी मातृभूमि से खदेड़कर भगाए गए अल्पसंख्यकों को छत मुहैया कराता रहा है। यह व्यवहार उस सेक्युलर भारत के लिए था, जिसके लिए कथित बुद्धिजीवी मानवाधिकारों के नाम पर आंसू नहीं रोक पाते। उनका यह व्यवहार उस सेक्युलर भारत के लिए था, जिसका सेक्युलरिज़्म एक-दो घटनाओं से ख़तरे में आ जाता है और विभाजन को जस्टिफाई करने लगता है।

इसी बीच दो मिनट में सब बच्चे ऊपर आ गए और मैं क्लास के एक कोने में सहमा हुआ सा बैठ गया। जितने लोग क्लास में आ सकते थे, क्लास में घुस आए। कुछ बच्चे बेंचों के ऊपर... कुछ फर्श पर... नीचे, सभी जगह भीड़ भर गई। क्लास के बाहर भी भारी भीड़ थी। सभी गुस्से में और पसीने में तरबतर मेरे सामने खड़े थे। उन्हें भी पहले 5 मिनट समझ नहीं आया कि मेरे साथ क्या करना चाहिए। जंग में तो सब कुछ जायज़ होता है, फिर ये तो आज़ादी की जंग है। तभी उनमें से एक, स्कूल का सबसे होनहार छात्र, मेरा अच्छा दोस्त जावेद अहमद टाक आगे बढ़ा। वह इन सभी लोगों का आम तौर पर लीडर हुआ करता था। मेरी तरफ आकर उसने कहा कि हमारे नीचे वाली मंजिल पर पंडित नेहरू की एक बड़ी सी तस्वीर रखी है, मैं उस पर थूक दूं।

यहाँ पर आपको बता दूं कि वह मेरा दोस्त, वह बच्चा आगे चलकर एक आतंकी बना और उसका भी वही अंज़ाम हुआ, जो अन्य आतंकियों का हुआ। इसके बाद फिर क्या था... जावेद के कहने पर दो हज़ार बच्चों की भीड़ मुझे पकड़कर नीचे तक ले गई। नेहरू की उस तस्वीर के सामने। मैं उस तस्वीर के सामने खड़ा था और वे लोग मुझे थूकने के लिए कह रहे थे। कुछ पल सोचने के बाद, एक कश्मीरी पंडित ने दूसरे कश्मीरी पंडित के चेहरे पर थूक दिया। वर्तमान ने इतिहास पर थूक दिया। भारत ने भारत पर थूक दिया।

ये सब देखकर उन्हें बहुत खुशी हुई। उन्होंने खूब शोर मचाया। वे ऐसे उछल रहे थे जैसे उन्होंने कोई जंग जीत ली हो।

इसके बाद आज़ादी रैली निकाली गई, जिसमें मुझे सबसे आगे रखा गया। हालांकि मुझे कफ़न नहीं पहनाया गया... क्यों नहीं पहनाया गया, इसके पीछे कारण शायद हो सकता है कि नेहरु की तस्वीर पर थूंकना ही काफी था उनके लिए। इसके बाद जब मैं घर आया, तो मैंने देखा कि मेरे कपड़े फट चुके थे। मेरे शरीर पर कई जगह चोट-खरोंच के निशान थे जिनमें से खून रिस रहा था।

दरअसल, जब दो हज़ार लोग ऐसी परिस्थिति में आपको प्यार से भी उठाकर ले जाते हैं तो वह भी एक तरह की मार ही होती है। लेकिन मैं सच कहूं तो आज भी भगवान का शुक्रिया करता हूं कि वे सभी बच्चे थे और उनके दिमाग में ऐसा कुछ नहीं आया कि मैं आज यह सब कहने के लिए ज़िंदा नहीं बच पाता।

अंत में, एक बात और... उनके लिए हम कश्मीरी पंडित भारत थे, हम ही वे परिवार थे, जो तिरंगा लगाते, राष्ट्रगान गाते, गांधी, पटेल और पंडित नेहरु को याद करते थे। भले भारत का संविधान हमारे काम ना आ सका लेकिन उम्मीद करते थे कि एक दिन यह किताब हमें भी रास्ता दिखाने वाली बनेगी। हम एक उम्मीद पाले बैठे थे कि अगर ऐसा कुछ होगा, जैसा जनवरी में हुआ, तो पूरा देश, पूरा भारत हमारे लिए उठ खड़ा होगा... लेकिन कुछ नहीं हुआ। ऐसा भारतीय इतिहास में शायद नया नहीं था । पड़ोसियों पर आक्रमण हुए तो हमें नींद आने की बीमारी सदियों से चली आ रही है। जयचंद ने यही किया था। राणा सांगा ने तो बकायदा बाबर को चिट्ठी ही दे डाली थी। और हाँ... अंग्रेजों के लिए पेशावाओं की हार पर जश्न भी तो हम ही मनाते हैं। इतिहास से सबक नहीं लेंगे तो मिट्टी में तो मिलना ही है। आज नहीं तो कल... 28 सालों के बाद और क्या याद करुं?

(लेखक आशीष कौल फिलहाल राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में रहते हैं। कश्मीर में उनका पैतृक घर उसी दौर में छीना जा चुका है। ये उनके अपने विचार हैं।)

साभार: चौपाल (Chaupal.org)

   

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